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ड्रैकुला 20

 

ड्रैकुला 20

मैं ध्यान से नीचे उतरने लगा, क्योंकि सीढ़ियों पर अंधेरा था, बस पत्थरों की चिनाई के बीच बन गए छेदों में से रोशनी आ रही थी। नीचे जा कर एक सुरंग नुमा गलियारा था, जिसमें पुरानी मिट्टी को उलटने-पुलटने की की तेज़ महक भरी थी, जिससे मुझे मतली आने लगी। जैसे-जैसे मैं गलियारे में आगे बढ़ता गया, महक और भी तेज़ और भारी होती गई। अंत में मुझे एक अधखुला दरवाजा मिला, जिसे मैंने खींच कर खोला, तो मैं ने खुद को एक पुराने चैपल के खंडहर में खड़ा पाया— जिसे ज़रूर कब्रिस्तान के रूप में इस्तेमाल किया जाता होगा। जड़ टूट गई थी, और दो जगहों पर सीढ़ियाँ थीं, जो तहखाने को जाती थीं, लेकिन ज़मीन में हाल ही में खुदाई की गई थी, और मिट्टी को बड़े-बड़े लकड़ी के बक्सों में भरा गया था, ज़ाहिर है उन्हीं बक्सों में, जिन्हें स्लोवाकी लाये थे।

वहाँ कोई नहीं था और मुझे ज़मीन के एक-एक इंच में खोज करनी थी, ताकि कोई मौका छूट न जाये। मैं नीचे तहख़ानों तक भी जा पहुंचा, जहां बहुत हल्की रोशनी थी, हालांकि ऐसा करने में मेरी आत्मा तक काँप गई थी। इनमें से दो में मुझे पुराने ताबूतों और मिट्टी के ढेरों के अलावा और कुछ नहीं मिला— लेकिन तीसरे में मुझे कुछ मिला था।

वहाँ मौजूद लगभग पचास बक्सों में से एक विशाल बक्से में नई खोदी गई मिट्टी के एक ढेर पर काउंट लेटा था! वह या तो मर चुका था, या सोया हुआ था। मैं कुछ कह नहीं सकता, क्योंकि आँखें खुली थीं लेकिन पथराई हुई थीं, लेकिन उनमें मौत की भावशून्यता नहीं थी, गालों में फीकेपन के बीच जीवन की गर्मी थी। होंठ हमेशा की तरह लाल थे, लेकिन किसी हरकत का कोई नामो-निशान तक नहीं था, न नाड़ी, न सांसें, न दिल की धड़कन।

मैं उसके ऊपर झुका, और ज़िंदगी के कोई लक्षण खोजने की कोशिश करने लगा, लेकिन बेकार। वह वहाँ ज़्यादा देर तक पड़ा नहीं रह सकता था, क्योंकि मिट्टी की महक कुछ घंटों में चली जाती। बक्से के बगल में उसका ढक्कन रखा था, जिसमें यहाँ-वहाँ छेद बनाए गये थे। मैं ने सोचा, शायद उसके पास चाबियाँ हों, लेकिन जैसे ही मैं ढूँढने लगा— मैंने उसकी मुर्दा आँखों को देखा, और हालांकि वे मुर्दा थीं, लेकिन उनमें अथाह नफरत हिलोरें मार रही थी। हालांकि वह मुझसे या मेरी उपस्थिति से अंजान था। मैं उस जगह से भागा, और काउंट के कमरे की खिड़की से निकल कर महल की दीवार पर रेंगते हुए ऊपर आ गया। अपने कमरे में पहुँच कर मैं बिस्तर पर गिर कर हाँफने लगा और सोचने की कोशिश करने लगा।

29 जून

आज मेरे आखिरी खत की तारीख है, और काउंट ने यह साबित करने के लिये कदम उठाये हैं, कि वह असली है— क्योंकि मैं ने उसे फिर उसी खिड़की से निकल कर महल से बाहर जाते देखा, वह मेरे कपड़े पहने था। जब वह अपने छिपकली वाले ढंग से दीवार से नीचे उतर रहा था, मेरा मन हुआ कि काश, मेरे पास कोई बंदूक या जानलेवा हथियार होता, कि मैं उसे खत्म कर पाता।

लेकिन आदमी के हाथ से बना हुआ कोई भी हथियार उस पर क्या असर करेगा। मैंने उसके लौटने का इंतज़ार नहीं किया, क्योंकि मुझे डर था कि मुझे फिर वही तीनों बहनें न मिल जायें। मैं वापस लाइब्रेरी में आ गया, और तब तक पढ़ता रहा, जब तक मुझे नींद नहीं आ गई।

मुझे काउंट ने जगाया, उसने बेहद गंभीरता से मुझे देखते हुए कहा— “कल मेरे दोस्त, हम अलग हो जायेंगे। आप अपने खूबसूरत इंग्लैंड को लौट जायेंगे, मैं एक काम पर लग जाऊंगा, जो शायद इस तरह खत्म हो कि हम फिर कभी न मिल पायें। आपका पत्र भेज दिया गया है। कल मैं यहाँ नहीं होऊंगा— लेकिन आपके सफ़र का सारा इंतजाम कर दिया जायेगा। सुबह सिज़्गानी आयेगा, जिसके यहाँ कुछ मजदूर हैं, और कुछ स्लोवाक भी आयेंगे। जब वे चले जायेंगे, तब मेरी गाड़ी आयेगी, जो आपको बोर्गो दर्रे तक पहुंचा देगी, जहां आपको वह काफिला मिल जायेगा जो बुकोविना से ब्रिस्टीज़ को जा रहा होगा… लेकिन मेरी इच्छा थी कि आप ड्राक्युला के महल में कुछ दिन और रुकते।”

मुझे उस पर विश्वास नहीं था, तो मैंने उसकी गंभीरता की परीक्षा लेने की ठान ली। गंभीरता! इसस्के जैसे शैतान को इस शब्द से जोड़ना भी इस शब्द का अपमान है, तो मैं ने उससे सीधे पूछ लिया, “मैं आज रात क्यों नहीं जा सकता?”

“क्योंकि जनाब, मेरा कोचवान और घोड़े अभी किसी मुहिम पर गये हैं।”

“लेकिन मैं मज़े से पैदल जा सकता हूँ। मैं इसी वक़्त जाना चाहता हूँ।”

वह मुस्कुराया— कितनी मुलायम, सहज, पैशाचिक मुस्कुराहट कि मुझे पता था कि इस सहजता के पीछे ज़रूर कोई चाल होगी। उसने कहा— “और आपका सामान?”

“मुझे उसकी परवाह नहीं, मैं उसे फिर कभी मंगा लूँगा।”

काउंट उठ खड़ा हुआ, और इतने मीठे शिष्ट स्वर में बोला कि मैं अपनी आँखें मलने लगा, वह कितना सच्चा लग रहा था, “आप अंग्रेजों के यहाँ एक कहावत काही जाती है, जो मेरे दिल के बहुत करीब है, क्योंकि हम बोयार लोगों के भी यही जज़्बात होते हैं, “आने वाले का स्वागत करो, जाने वाले मेहमानों को जल्दी भेजो”, आइये मेरे साथ, मेरे प्यारे जवान दोस्त, आप अपनी इच्छा के बिना मेरे घर में एक घंटा भी नहीं रुकेंगे, हालांकि मुझे आपके जाने का दुख होगा, और इस बात का भी कि आपने अचानक से ऐसी इच्छा ज़ाहिर की है। आइये!”

शानदार गंभीरता से वह हाथ में दिया ले कर मुझे सीढ़ियों से नीचे हाल के पार तक ले आया। अचानक वह रुक गया— “सुनो।”

बहुत नजदीक ही कई भेड़ियों के हुआने की आवाज़ आने लगी। ऐसा लगा जैसे उसके हाथ उठाने से आवाज़ आने लगी है, जैसे किसी महान ऑर्केस्ट्रा का संगीत संचालक की छड़ी के नीचे हिलोरें लेता है। पल भर रुक कर वह उसी आलीशान ढंग से आगे बढ़ा— दरवाजे के पास पहुंचा, भारी बोल्टों को पीछे खींचा, भारी जंजीरों को खोला और दरवाजा खोलने लगा। मुझे बेहद तअज्जुब हुआ, इस पर ताला नहीं लगा था। शक्की नज़रों से मैंने सब ओर देखा— लेकिन मुझे कैसी भी, कोई चाबी नहीं दिखी।

क्रमशः

1 comment:

  1. बहुत सुन्दर व प्रेरणास्पद

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