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इद्दत एक व्यथा

 


दरवाजे पर हुई दस्तक ने रफिया को चौंका दिया। इस वक्त कौन हो सकता था— उसने सामने पढ़ते राशिद और ज़ारिया को देखा। वह भी उसे सवालिया निगाहों से देखने लगे थे। आरिफ के आने का तो अभी वक्त न हुआ था या वही जल्दी आ गये थे।

पशोपेश में पड़े-पड़े वह उठी और दरवाजा खोला।

सामने गांव के ही दो लड़के खड़े थे— जिन्हें वह शक्ल से तो पहचानती थी लेकिन नाम से वाकिफ नहीं थी। वे उसे तंज भरी नजरों से देख रहे थे जो उसे चुभ गयीं।

"क्या है?" उसने बेरुखी भरे लहजे में पूछा।

"कल सुबह दस बजे पंचायत है और आपको और आरिफ भाई को पेश होना है।" उनमें से एक ने ऐसे अंदाज में कहा जैसे हुक्म दे रहा हो।

एक ठंडी सांस लेकर रह गई... पता था कि यह नौबत तो आनी ही थी लेकिन दो दिन में आ जायेगी, यह अंदाजा नहीं था। कोई जवाब देने की जरूरत नहीं थी, उसने उनके मुंह पर भड़ाक से दरवाजा बंद कर लिया और दरवाजे से ही टिक कर खड़ी हो गई।

किसी का बिगड़ा हो तो लोग जल्दी बनाने नहीं आते लेकिन बन रहा हो तो बिगाड़ने बड़ी जल्दी दौड़ पड़ते हैं। अफजाल के तलाक देने के बाद जब वह दो छोटे बच्चों के साथ भटक रही थी तब तो किसी को ख्याल न आया कि उसे सहारे की कितनी सख्त जरूरत है, लेकिन उसने आरिफ से निकाह क्या किया कि सबके पेट में खलबली मच गयी।


आखिर उसने एक धार्मिक रवायत तोड़ दी थी... कि इद्दत न निभाई थी और तलाक होने के महीना भर के अंदर ही दूसरी शादी कर ली थी। जिससे मर्दो का और मर्दों के लिये बनाया मजहब खतरे में आ गया था।

एक औरत की आखिर इतनी हिम्मत कैसे हो गई... मर्दों के प्रभुत्व वाले समाज में ऐसी औरतों के लिये जगह कहां? फिर यह नौबत तो आनी ही थी... इस मरहले का सामना तो उसे करना ही था— चाहे जैसे भी।

अपने वक्त पर आरिफ आये तो उसने उन्हें यह बात बताई और वह भी परेशान हो गये। खदशा तो इस बात का था ही और इसीलिये उन्होंने पहले ही कहा था कि शहर चले चलते हैं, यहां लोगों को समझाना मुश्किल है। लोग परेशानी समझना ही नहीं चाहते— वह सदियों पुरानी मान्यताओं के साथ जड़ हैं और उन्हीं को हमेशा ढोते चले जाना चाहते हैं। वह इस बात को मानने को ही तैयार नहीं कि बदलते दौर के साथ चीजें बदलती भी हैं और बहुत सारे ऐसे नियम कायदे, जो उस वक्त और दौर में तर्कसंगत रहे होंगे, वे नये दौर में बेमानी हो चुके हैं। शहर में फिर भी उम्मीद है कि शायद कुछ पढ़े-लिखे लोग इन बातों को समझें लेकिन गांव के जड़ बुद्धि धार्मिकों को कौन समझायेगा।

पर वह ही अड़ गई थी कि धार्मिक जड़ता गांव हो या शहर, हर जगह है— तो अगर हमें सामना करना ही है तो वहां क्यों— यहां क्यों नहीं?

और अब दो-तीन दिन में ही आखिरकार यह नौबत आ गई थी।

रात वह दोनों लेटे तो दोनों की आंखों की नींद गायब थी और दोनों ही अपनी-अपनी सोच में गुम थे।

वह अपने अतीत में विचर रही थी... वह उन औरतों से अलग थोड़े थी जिनकी जवानी उन पर थोपे गये इम्तहानो की भेंट चढ़ जाती है।

घर वालों ने जवान हुई बेटी को इस लालच में एक सऊदी वाले को ब्याह दिया कि खुशहाल रहेगी लेकिन एक जवान हुई लड़की के लिये पैसा ही अकेला सुख होता है क्या? उसके अपने सपने थे, अपनी उम्मीदें थीं, जिन्हें चार दिन तो पंख लग गये शौहर के साथ और फिर वह धड़ाम से जमीन पर आ गिरी थी।


यह बड़ी समस्या है मुस्लिम मआशरे में... बहुतेरे लड़के अच्छे पैसे कमाने सऊदी दुबई वगैरह चले जाते हैं लेकिन फिर वहीं के होकर रह जाते हैं। उनके घर वालों को सिर्फ इसलिये बहू चाहिए कि लड़का अब कमाने लगा है और उन्हें भी सहारे के लिये बहू चाहिये— बिना यह सोचे समझे कि बहू के भी तो कुछ अरमान होंगे... और सोच के करें भी तो क्या, उनके पास विकल्प ही क्या होता है।

और लड़की वाले यह सोच कर लड़की परोह देते हैं कि लड़का सऊदी में है तो अच्छा खाता कमाता होगा। बिटिया सुख से रहेगी लेकिन बिटिया को बस खाना कपड़ा ही तो नहीं चाहिये— शौहर का साथ भी चाहिये होता है। जवानी का क्या— चार दिनों में चली जायेगी और पीछे रह जायेंगी तो सिर्फ जिम्मेदारियां।

सऊदी वाले मियां चार महीने को आते हैं और वह भी दो साल बाद और चार दिन पति होने का सुख देकर चले जाते हैं। बीवी के हिस्से फिर वही तन्हाई बचती है— रोज फोन या सोशल मीडिया के जरिये हो सकने वाली बातें कुछ वक्त तो मन बहला सकती हैं लेकिन बिस्तर पर सुलगते एकाकीपन की साझीदार तो नहीं हो सकतीं। मर्द तो जहां है वहां खूंटा गाड़ने के लिये कोई जमीन तलाश ही लेता है लेकिन औरत... उसके लिये तो पचास नियम हैं, पचास पहरेदारी करती निगाहें हैं और हैं पाक़ीज़ा बनी रहने की आकांक्षाओं का बोझ, जिन्हें अकेले ही ढोना है।

जब उसे अफजाल के साथ ब्याहा गया था, तब वह खुश थी लेकिन चंद दिन की खुशी देखते-देखते गुजर गई थी और जब तनहाई ने उसे जलाना शुरू किया था, तब अहसास हुआ था कि पति का साथ क्या होता है।

धीरे-धीरे इसी तरह तरस-तरस के मिले प्यार और साथ को झेलते दस साल गुजर गये और ज़ारिया और राशिद भी दुनिया में आ गये लेकिन उसकी जिंदगी में कोई बदलाव न आया। वह लाख कहती रही— लड़ी झगड़ी, रिश्तेदारों से अफजाल पर दबाव डलवाया कि वह सऊदी छोड़कर यही कुछ काम धंधा कर ले लेकिन अफजाल को यह मंजूर ही नहीं था। उसका कहना था कि क्या करना है— उसे बढ़िया खाना कपड़ा तो मिल रहा है, भविष्य के लिये दो बच्चे भी दे दे दिये। इतना काफी है उसके लिये लेकिन यह उसका ख्याल था— रफिया के लिये यह काफी नहीं था।

वह मुस्तकिल तरसते-झुलसते अब चिड़चिड़ी हो चली थी और ऊपर से उसके कान तक यह बात भी पहुंच गई थी कि अफज़ाल के पास वहां कोई ऐसा परमानेंट जुगाड़ था जिसकी वजह से वह यहां शिफ्ट नहीं होना चाहता था और न ही रफिया और बच्चों को वहां अपने साथ रखना चाहता था।


इस बात ने उसे और जला दिया था।

पहले तो खूब रोई थी और फिर खूब लड़ी थी और फिर तो यह हाल हो गया था कि उनके बीच बात कम, बहस बाजी और लड़ाई ज्यादा होती थी। उसके ससुराल वाले भी हर हाल में बेटे का ही फेवर लेते थे और खुद उसके मायके में, जहां अब सारे अधिकार भाइयों तक सीमित हो गये थे— यही नसीहतें मिलती थीं कि बिटिया, वह शौहर है। जैसे रखे खुश रहो और उसका अहसान मानो। समझो यही खुदा ने तुम्हारी किस्मत में लिखा है इसका अज़र तुम्हें जरूर मिलेगा।

मरने के बाद क्या मिलेगा क्या नहीं— यह तो पता नहीं, लेकिन जीते जी जो मिल रहा था वह इंसाफ नहीं था। वह जुल्म था, जो उसे बर्दाश्त नहीं हो पा रहा था। जिंदगी के दस सुनहरे साल किसी को अर्पण कर देने का हासिल क्या रहा था।

बहरहाल— बात इतनी बढ़ी कि सऊदी में बैठे-बैठे अफजाल ने उसे व्हाट्सएप पर तलाक लिख कर भेज दिया था और अपने घर वालों से कह दिया था कि उसे इसी वक्त रुखसत कर दें। बच्चे चाहे तो यहीं छोड़ दे या साथ ले जाना चाहे तो साथ ले जाये।

एक झटके से उस पर पहाड़ टूट पड़ा था— लड़ाई झगड़े के बावजूद उसे उम्मीद नहीं थी कि यह नौबत आ जायेगी और एकदम से उसकी जिंदगी इस तरह बदल जायेगी। उस पर गशी तारी हो गई थी। बड़ी मुश्किल से वह खुद को संभाल पाई थी, लेकिन मजाल है कि ससुराल वालों ने बेटे की हरकत के खिलाफ जाकर उसके साथ थोड़ी सी भी हमदर्दी दिखाई हो। उन्होंने पड़ोस के गांव से उसी वक्त उसके घर वालों को बुला लिया था।

उसे ससुराल छोड़नी पड़ी थी।

उसके भाई जरा भी इच्छुक न थे उसे ले जाने के... लेकिन मजबूरी थी और बच्चों को छोड़ना उसने गवारा न किया— आखिर मां थी।

लेकिन मायका भी अब वह मायका कहां था— जिसके आंगन में वह खेल कूद कर बड़ी हुई थी। अब तो वहां भी सब पराया-पराया सा था। वहां अब मां की नहीं भाभियों की चलती थी जिनके अपने बच्चे थे और ऊपर से इद्दत का बोझ!

तीन हफ्तों में ही वह उनके मिजाज से इतना तंग आ गई कि एक सुबह दोनों बच्चों को लेकर चल पड़ी थी। वह खुद पर सख्तियां झेल सकती थी लेकिन मासूम बच्चों पर सख्तियां उसे बर्दाश्त न थीं। हां, उसके सामने बड़ी परेशानी थी कि जाये तो कहां जाये। अगले हफ्ते भर उसने उन सब रिश्तेदारों के घर चक्कर लगाये, जिन्हें वह अपना समझती थी। उन्होंने भी दिखावे की हमदर्दी तो जताई लेकिन एक रात से ज्यादा शरण देने में नाकाम रहे।

और बिना छत के दो छोटे बच्चों को लिये कहां भटकती फिरती।


वह तो गनीमत हुई कि ऐसे ही बेउम्मीद भटकते हुए वह आरिफ से टकरा गई, जो अफजाल के ही दूर के रिश्तेदार ही थे और इसी वजह से वह उन्हें जानती थी। उसकी रूदाद सुन के उन्हें भी बहुत अफसोस हुआ और वह उन लोगों को अपने घर ले आये।

उनकी भी अलग कहानी थी— बरसों पहले बीवी छोड़ कर भाग गई थी और फिर उनकी शादी करने की हिम्मत ही न पड़ी थी, तो अकेले ही रहते थे और खुद ही खाते पकाते थे। प्राइमरी टीचर थे पास के एक गांव में— तो उनकी जीविका की कोई समस्या न थी। घरवाले कहीं पटना में रहते थे और यहां वे किराये के मकान में अकेले ही रहते थे।

लेकिन यूं अकेले मर्द के घर औरत का बिना रिश्ते के रहना लोगों को पचता कहां... तो सबसे पहली शिकायत तो मकान मालिक ही लेकर आ धमका। कहने को वे उसे बहन कह सकते थे लेकिन क्या इस रिश्ते पर कोई यकीन करता? जाहिर है कि नहीं तो उन्होंने दूसरा रास्ता चुना— निकाह का! रफिया के पास इन्कार का विकल्प था लेकिन क्या सहारे की तलाश में भटकती और दो छोटे बच्चों की सुरक्षा और भविष्य को लेकर फिक्रमंद मां इस विकल्प के साथ जा सकती थी?

उसने हां कर दी... अपने दो चार दोस्तों के साथ आरिफ ने उससे निकाह कर लिया। हां, यह भी अपनी जगह सच था कि निकाह में शामिल साथी और निकाह कराने वाले मौलाना इस बात से लाइल्म थे कि अभी वह इद्दत से बरी नहीं हुई थी। आरिफ का गांव अफजाल के गांव से दस कोस दूर था और जरूरी नहीं कि सबको सभी बातें पता हों।

लेकिन पता तो देर सवेर चलती ही हैं और शायद पता चल भी गई थीं। तभी सुबह पंचायत का फरमान हुआ था... पता चलेंगी, यह उसे अंदाजा था लेकिन इतनी जल्दी पता चल जायेंगी यह अंदाजा उसे न था।

बहरहाल सुबह हुई... जल्दी-जल्दी जरूरी काम निपटाये गये और दस बजे पंचायत बैठी।

मुस्लिम बहुल गांव था— सभी पंच मुस्लिम ही थे। साथ ही विशेष आमंत्रित सदस्य के तौर पर देवबंदी-बरेलवी दोनों मस्लकों के दो आलिम भी बिठाये गये थे। वहां गांव के काफी लोग जमा थे— जिनमें बूढ़े, अधेड़, जवान और महिलायें भी थीं। वह दोनों, जो बच्चों को घर ही छोड़ कर आये थे— पंचायत के सामने मुजरिम की तरह पेश हुए।

"रफिया बानो बिनते मोहम्मद अकील— तुम पर यह इल्जाम है कि तुमने हमारी मजहबी रवायत तोड़ी है। पंचायत जानना चाहती है कि तुमने ऐसा क्यों किया?" एक पंच ने पंचायत की शुरुआत की।

"क्या रवायत तोड़ी है?" रफिया ने थोड़े सख्त लहजे में पूछा?

एक पल को वे सकपकाये— एक दूसरे को देखा, फिर एक पंच ने खंखारते हुए बात आगे बढ़ाई— "तुम्हारा निकाह अफजाल अंसारी वल्द सुलेमान अंसारी के साथ था, जिसने तुम्हें ठीक एक महीने पहले बाईस सितंबर बरोज इतवार तलाक दे दी, जिसकी वजह से तुम्हें शरीयतन तीन महीने या तीन हैज (माहवारी) तक की इद्दत गुजारनी थी— लेकिन तुमने घर से बाहर निकल कर न सिर्फ इद्दत का पहला नियम तोड़ा बल्कि एक महीने के अंदर ही दूसरा निकाह करके और बड़ा गुनाह किया है।"

"गुनाह ही किया है न— तो वह मेरे और खुदा के बीच का मसला है। वह मेरे लिये बेहतर फैसला करेगा। पंचायत को क्यों तकलीफ है मेरे गुनाह से?"

"क्योंकि हमारे बड़े-बूढ़ों ने जो नियम-कायदे बनाये थे, उन्हें बनाये रखने की जिम्मेदारी हमारी है। अगर हम अपनी जिम्मेदारियां न निभायेंगे तो हर कोई इसी तरह हर नियम से खिलवाड़ करता फिरेगा।" जवाब एक पंच ने थोड़ा सकपकाते हुए दिया।

"शरई नियम बड़े-बूढ़ों ने बनाए हैं या खुदा ने?"

"कुरान और शरीयत की रोशनी में बड़े-बूढ़ों ने। उन आलिमो ने जिन्हें नियम बनाने का हक है।"

"कुरान इद्दत के बारे में क्या कहती है? जरा मैं भी तो सुनूं।"


अब जवाब के लिये सबकी निगाहें उन दोनों आलिमों की तरफ दौड़ीं, जिन्हें इसी मौके के लिये बिठाया गया था। एक आलिम ने खंखार कर गला साफ किया और कहना शुरू किया—

"सूरह तलाक में अल्लाह ताला कहता है कि तलाक और बेवगी, दोनों सूरत में औरत अगर हमल (गर्भ) से है तो उसकी इद्दत बच्चे के जन्म तक रहेगी। यह मियाद एक दिन से लेकर नौ महीने तक भी हो सकती है। तलाक की सूरत में उन लड़कियों औरतों की इद्दत जो हैज (माहवारी) से फारिग हो चुकी हों, या हैज शुरू न हुआ हो तो भी उनकी इद्दत तीन महीने की रहेगी। सूरह बकरा बताती है कि अगर शौहर की मौत हो जाती है तो इद्दत हर हाल में चार महीने दस दिन की रहेगी और अगर तलाक होती है और हमल न हो तो भी मुद्दत तीन माहवारियों की है। सूरह अहज़ाब में है कि अगर मर्द निकाह के बाद बिना सोहबत किये तलाक दे देता है तो मुताल्लका औरत पे कोई इद्दत नहीं लेकिन अगर इसी हालत में मर जाता है तो इद्दत चार महीने दस दिन की ही रहेगी और यही नियम शरीयत में हैं।"

"मुझे हैरानी है मौलाना साहब कि हमें कुरान शरीयत में लिखा तो सब पता रहता है लेकिन मनवाने का जोर सिर्फ औरतों पर रहता है। खैर... क्या कहीं कुरान में यह भी लिखा है कि फोन पर, व्हाट्सएप पर बीवी को तलाक दी जा सकती है?" इस बार उसने मौलाना से निगाह मिला कर सवाल पूछा।

"नहीं।" जवाब देते वक्त मौलाना थोड़े नर्वस हो गये— "यह सही है कि यह तरीका सही नहीं है और गलत है।"

"तो मतलब मेरी तलाक नहीं हुई?"

दोनों आलिम एक दूसरे की सूरते देखने लगे। फिर इस बार दूसरे मौलाना ने जवाब दिया— "देखो बेटा, हम मानते हैं कि यह तरीका गलत है और ऐसा नहीं होना चाहिये लेकिन फिर भी तलाक तो हो ही गई।"

"क्या आपके यह कह देने भर से कि यह तरीका गलत है, मेरी जिंदगी में कुछ बदल जायेगा— कुछ भी?" इस बार उसका सवाल मौलानाओं के साथ पंचों से भी था।

किसी को जवाब ना सूझा।

"मैं कुरान से अनजान नहीं हूं मौलाना साहब— जो आपने बताया वह मुझे पता है लेकिन आप ने यह नहीं बताया कि कुरान में तलाक के बाद इद्दत का एक मकसद यह भी है कि वहां तलाक ए अहसन दर्ज है जहां कोई शौहर एक बार तलाक बोले या पचास बार, वह एक ही तलाक मानी जाती है और इद्दत इसलिये कि उनके बीच रुजू की गुंजाइश बनी रहे और रुजू होते ही तलाक अपने आप खारिज हो जाती है, लेकिन तलाके बिदत में वापसी की कोई गुंजाइश नहीं तो फिर यह इद्दत किस लिये?"

"क्योंकि यह अल्लाह की रजा के लिये है और अल्लाह का हुक्म है। उसके हुक्म की तामील करना भी खुदा की इबादत है और इबादत से खुदा का कुर्ब हासिल होता है।"

"तो इस इबादत का सारा दारोमदार अकेली औरत पर क्यों? जो मजबूर है बेसहारा है और जिसके लिये यह एक सजा सरीखी हो जाती है। मर्द पर खुदा की रजामंदी या इस इबादत का बोझ क्यों नहीं, जो अगले ही पल निकाह के लिये तैयार रहता है?"

"इद्दत को वाजिब करार देने की अहम वजह इस बात का यकीन हासिल करना है कि पिछले शौहर का कोई भी असर औरत की बच्चेदानी में न रहे।" इस बार पहले वाले मौलाना ने जवाब दिया।

"असर रहे भी जाये तो क्या फर्क पड़ता है?"

"बच्चे की पहचान पर पड़ता है।"

"वह किसके लिये जरूरी है? जमाने में इंसान खुद अपनी जिंदगी जीता है और जो उसे पालता है वही उसका बाप है। मेरे इन शौहर को मेरे पिछले शौहर से पैदा दोनों बच्चों का बाप बनने में कोई परेशानी नहीं। अगर मेरे पेट में बच्चा होता तो भी उसे यह अपना नाम देने को खुद से तैयार हैं। तो किसी दूसरे को क्यों परेशानी है कि उनका बाप कौन है? रही बात खुदा की तो वह तो सब जानने वाला है, वह तो यह भी जानता है कि कितनी औरतें अपनी अजदवाजी जिंदगी में शौहर के रहते भी दूसरे मर्दों से बच्चा पैदा कर लेती हैं और बच्चे के बाप उनके शौहर ही माने जाते हैं।"

"कहना क्या चाहती हो?" इस बार एक पंच ने थोड़ा गरजते हुए कहा।

"यही कि नियम-कायदे इंसान के लिये बनाये जाते हैं— इंसान नियम-कायदे के लिये नहीं बनता। इद्दत का मकसद किसी जमाने में भले यही रहा हो क्योंकि तब औरत का हमल जानने का कोई तरीका नहीं था। खुदा की रजामंदी या इबादत के लिये इद्दत है, यह कहना खुद को बहलाने जैसा है क्योंकि खुदा इतना भेदभाव नहीं कर सकता कि औरत से सजा जैसी इबादत करवाये और वह भी बिना गुनाह के... और करने वाला मर्द इस इबादत की जिम्मेदारी से आजाद रहे। हां, बच्चे की वल्दियत की पहचान शायद तब बहुत जरूरी होती हो और उसके लिये यह तरीका उस दौर में कारगर रहा हो— लेकिन क्या आज है?

खुद से सोचिये— कि आज ऐसी-ऐसी मशीनें और टेक्नोलॉजी मौजूद है कि औरत के गर्भ में मौजूद अंडे भी दिखा दे, तो हमल जानना कौन सा मुश्किल है। आधे घंटे में पता चल जायेगा। फिर तीन या चार महीने रुकने की क्या जरूरत है और फिर यही नहीं, कई और भी वजूहात हैं जिनके पीछे इद्दत का यह मकसद ही बेमानी है। मसलन जिन औरतों की माहवारी खत्म हो चुकी हो या वे बुढ़ा कर अब उस दौर में पहुंच चुकी हों, जहां न अब वह बच्चा पैदा कर सकती हैं और न ही अब शादी करने की हालत में हैं तो उनके लिये यह इद्दत भला किस लिये?

बहुत सी औरतों के शौहर कमाई के लिये दिल्ली मुंबई जैसे शहरों को जाते हैं और सालों वहीं रहते हुए, बीच में किसी बात से खफा होकर तलाक दे देते हैं या मर जाते हैं तो उनकी बीवियों को भला इद्दत की क्या जरूरत या मेरे जैसी वह औरतें जिनके शौहर देश से ही बाहर हैं और वही बैठे-बैठे तलाक दे देते हैं तो उन्हें इद्दत की क्या जरूरत? आखिर मकसद तो हमल है न और वह तब होगा जब मियां बीवी पास आयेंगे और पास कैसे आयेंगे, जब मियां महीनों या सालों से दूर हैं।

किसी बड़ी बीमारी से महीनों जूझता आदमी अस्पताल की खटिया पर पड़ा-पड़ा मर जाता है या फौज में शामिल होकर सरहद पर महीनों अपनी ड्यूटी भुगतते हुए जंग में शहीद हो जाता है तो उनकी बीवियों के लिये इद्दत की जरूरत क्यों है, जबकि उनका महीनों से एक दूसरे को छूना भी न हुआ? एक आदमी अपनी बीवी को बिना तलाक दिये दूसरी औरत से शादी करके उसी के साथ रहने लग जाता है। महीनों पहली बीवी की शक्ल तक नहीं देखता और मर जाता है तो फिर पहली बीवी किस बात के लिये इद्दत की सजा भुगते? बहुत सी औरतें मेरे जैसी हालात की मारी होती हैं, जिनका कोई सहारा नहीं होता और उन्हें तलाक देकर छोड़ दिया जाता है और ऐसे में कोई दूसरा मर्द सहारा देना भी चाहे तो नहीं दे सकता क्योंकि औरत को इद्दत निभानी है— भले वह मर्द उस औरत के पैदा, बिन पैदा बच्चे को भी बाप की तरह अपनाने को तैयार हो तो भी। क्या यह उस औरत के साथ ज्यादती नहीं जिसे बराबरी के हक देने की बात हमेशा कही जाती है?"

उसके तेवरों पर पंच तो हत्प्रभ रह गये लेकिन दोनों मौलाना खड़े होकर आवेश में कांपने लगे।


"गुस्ताख औरत— तू खुदा के कहे को गलत ठहरा रही है!"

"नहीं मौलाना साहब— मैं कौन होती हूं खुदा को गलत ठहराने वाली, लेकिन जिस खुदा ने यह सब कहा है— उसी ने इंसानों को अक्ल भी दी है और उसका इस्तेमाल करने की सलाह भी दी है।"

"कुछ भी हो लेकिन इद्दत का हुक्म कुरान से है और कुरान का कहा खारिज नहीं किया जा सकता।"

"अच्छा मौलाना साहब, फिर मुझे कुरान का वह पन्ना ला दो जहां पर लिखा हो इस तरह भी तलाक दी जा सकती है जैसे मुझे दी गई— तो मैं अपने इस निकाह को अपना गुनाह तस्लीम कर लूंगी और हर सजा के लिये खुद को पेश कर दूंगी।"

"यह हजरत उमर से चली रवायत है।"

"पहली बात कि हजरत उमर को किसने हक दिया कि वह कुरान का लिखा बदल दें और दूसरी बात कि खुद हजरत उमर ने भी ऐसा करने वाले को न सिर्फ गलत ठहराया था बल्कि कोड़ों की सजा भी दी थी। आप लोग बतायें कि अब तक समाज ने ऐसा करने वाले कितने लोगों को और क्या-क्या सजा दी है? फिर मेरे पुराने शहर को भी बुलवाइये और उसे भी वही सजा दीजिये।"

इस बार किसी के मुंह से बोल न फूटा। सभी कसमसाते हुए एक दूसरे को देखने लगे।

"फिर जिस दीन शरीयत की बात लेकर आप लोगों ने यह मजमा लगाया है— उसमें यह भी कहा गया था कि तस्वीरें हराम हैं। आज भी कोई हुजूर सल्लल्लाहो अलैवसल्लम की तस्वीर बना दे तो उसकी गर्दन काट देंगे। कहते हैं कि जिस घर में इंसानी तस्वीर होगी वहां फरिश्ते नहीं आते और अब तो कहाँ नहीं है तस्वीरें? टीवी पर घर में और मोबाइल पर हाथ में! मौलाना साहब आपके भी बड़े-बड़े फोटो चौराहे पर लगे होर्डिंग में मौजूद हैं, जहां आप किसी नेता के यहां आने पर बधाई दे रहे हो। इसे तो हज़रत उमर ने भी नहीं बदला था— फिर?"

"जमाने के साथ अगर कुछ बदलाव जरूरी हों तो किये जा सकते हैं। आज के दौर में बिना तस्वीर के नहीं चला जा सकता।" इस बार मौलाना थोड़ा दबे स्वर में बोले।

"हां, आज की तारीख में तस्वीरें जरूरी हैं लेकिन सरकारी कागजों के लिये— नेताओं को बधाई देने और फेसबुक पर अकाउंट बनाने के लिये नहीं। कितने लोग इस नियम का पालन करते हैं? पहले टीवी, मोबाइल, प्रिंटिंग प्रेस, हवाई जहाज से हज जैसी चीजें हराम ठहराते हैं फिर खुद का हाथ फंसता देख जमाने की जरूरत का हवाला देकर हलाल कर लेते हैं, लेकिन सिर्फ वहां— जहां खुद मर्दों का हाथ फंस रहा हो, वरना जहां औरतों के लिये कोई बदलाव करने की बात आई नहीं कि मजहब की दीवारें हिलने लगती हैं।"

"जो भी हो लेकिन तुमने गलत किया है।" मौलानाओं की हठ अपनी जगह कायम थी।

"मान लूंगी कि गलत किया है, और पंचायत जो सजा भी देगी वह भी बे चूं चरां मान लूंगी लेकिन पहले यह तय हो की जिस शरीयत का हवाला देकर मुझसे मेरी जरूरत को भी गुनाह ठहरवाया जा रहा है— उस शरीयत के आप सब भी पाबंद हैं या नहीं और हैं तो कितने हैं? आप में से कोई भी झूठ बोलने वाला, गीबत करने वाला, धोखेबाजी, फरेब करने वाला न होना चाहिये। कोई किसी के मकान-दुकान खेत-जमीन पर जबरन काबिज न होना चाहिये। किसी के घर में चोरी की बिजली न होनी चाहिये। किसी की भी रिज्क किसी भी हराम जरिये से न होनी चाहिये। हर किसी की जिंदगी शरई एतबार पर खरी उतरनी चाहिये। न सिर्फ आप सबको अपने घर मकान में, जमीन जायदाद में अपनी बहन बेटी को शरई एतबार से उसका हक और हिस्सा देना चाहिये, बल्कि मेरे साथ मेरे घर चल कर, मेरे भाइयों से लड़ कर ही सही, लेकिन मुझे मेरा हक और हिस्सा दिलाया जाना चाहिये। साथ ही यह भी तय होना चाहिये कि इद्दत अगर हमल की निशान देही के लिये है तो मुझे तलाक देने वाला शौहर तो डेढ़ साल से सऊदी में है— जब वह यहां है ही नहीं तो मेरे पेट में उसका अंश कहां से होने की गुंजाइश है? ऐसी सूरत में मुझे इद्दत क्यों निभानी चाहिये?" कह कर वह चुप हो गई और एक-एक की सूरतें निहारने लगी।

बोलती औरत भला किसे बर्दाश्त होती है— वहां मौजूद मर्दों की भीड़ को भी उसका वजूद बर्दाश्त नहीं हो रहा था। उनकी रगों में लहू खौलने लगा था। मर्दवादी संक्रमण उनके दिमाग में चिंगारियां उड़ाये दे रहा था। उनकी निगाहें सुलग रही थीं... मुट्ठियाँ भिंची हुई थीं और वे उसे ताकत से हर किस्म का जवाब दे सकते थे— लेकिन खुद को लफ्जों से जवाब देने में बेबस पा रहे थे।

और वहां मौजूद औरतें हैरानी से उसे देख रही थीं। कुछ वे थीं, जिनकी मेंटल कंडीशनिंग ही ऐसी थी कि वह मर्दों की तरफ थीं— शायद अपने ही वजूद के खिलाफ... लेकिन कुछ वे भी थीं जो खुश थीं और तालियां बजाना चाहती थीं लेकिन खुद को मजबूर पा रही थीं।

पंचायत में एक खलने वाला सन्नाटा पसर गया था।


(मेरी किताब गिद्धभोज से ली हुई एक कहानी)


Written by Ashfaq Ahmad

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