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दो बूँद पानी

 


रास्ते में खड़े उन मवालियों को देख लक्ष्मी का कलेजा धक् से रह गया। उसने रास्ता बदलने के बारे में सोचा लेकिन तब तक गज्जू की नजर उस पर पड़ चुकी थी। उसने पानी की बोतल आंचल में छुपाने की नाकाम कोशिश की और वहीं थमक कर बेबसी से उन चारों को देखने लगी।

शाम घिर रही थी और रोशनी लगातार कम हो रही थी। घर पर कल से प्यासा पड़ा बेटा उसके लौटने के इंतजार में होगा और यहां वह उन चारों मवालियों की नजर में आ गई थी।

वे उसकी ओर बढ़ने लगे और उसकी धड़कनें अस्त-व्यस्त हो गईं। वह मन ही मन भगवान से प्रार्थना करने लगी कि किसी तरह वह इस विपत्ति से बच जाये। भले चारों उसका तन लूट लें— लेकिन उसका पानी छोड़ दें। आंचल के पीछे छुपी बोतल पर उसकी उंगलियां और सख्त हो गयीं।

"क्या रे लक्ष्मी— इतना डर क्यों गई हमें देख कर?" बिरजू ने उसे पास से घूरते हुए पूछा।

उसके होंठ हिल के रह गये, लेकिन मुंह से बोल न फूटा।

"और यह छुपा क्या रही है?" गज्जू ने संशक स्वर में कहा।

"कक— कुछ नहीं।" उसके शब्द हलक में फंसते हुए निकले।

"कुछ तो।" गज्जू ने देखने की कोशिश की।

उसे पता था कि वह यही करेंगे... उसने एकदम से पलट कर भागने की कोशिश की, लेकिन उन्होंने लपक कर उसे पकड़ लिया और उसका हाथ आंचल से बाहर निकालने की कोशिश करने लगे। उसने भरसक प्रतिरोध किया लेकिन चार हटे-कट्टे मर्दों के आगे उसकी पेश कहां चलती।

"ओह— पानी!" पानी की बोतल देखते ही उनकी आंखों में भेड़ियों सी चमक आ गई।

"मेरा बच्चा कल से प्यासा है... जाने दो हमें।" वह तड़प उठी।


लेकिन उन्हें क्या मतलब उससे— उसके बच्चे से। पानी ने उनकी प्यास भी हिंसक रूप से जगा दी थी और वे उसे छीनने की कोशिश करने लगे और वह बचाने के लिये अपनी तरफ से लड़ पड़ी। साथ ही मदद की गुहार भी लगाये जा रही थी... ऐसा नहीं था कि वहां देखने वाले नहीं थे लेकिन अब गुंडों के मुंह कौन लगे। लक्ष्मी भी ऐसे कैसे उस पानी को जाने देती... उसे पता था कि वह पानी उसके लिये कितना कीमती था।

वह, उसका पति श्यामू और उनका इकलौता बेटा निक्कू कल रात का पानी पिये थे और अब तक फिर पानी मिलने की नौबत नहीं आई थी। श्यामू ने दिन भर कमाने के साथ ही यह भी कोशिश कर ली थी लेकिन आज पानी ही नहीं मिला था। वह बड़े थे, मजबूत थे तो झेल सकते थे लेकिन बच्चा कैसे झेलता— वह शाम तक बेहाल हो गया था।

बच्चे की तड़प उससे देखी न गई थी तो निकल पड़ी थी। रामधारी पानी का स्मगलर था और अक्सर ब्लैक में पानी बेचता था, लेकिन आज आया ही नहीं था तो उसके पास भी नहीं था... पर हां— पैसे तो नहीं, उसके तन के बदले एक बोतल पानी देने को तैयार हो गया था। अब तन बेटे की प्यास से बड़ा थोड़े न था।

वह लेट गई थी रामधारी के नीचे और एक बोतल पानी के बदले मनमाने तरीके से उसे नोच कर रामधारी ने तृप्ति पा ली थी— इतना कीमती था उसके लिये वह पानी... ऐसे कैसे लुट जाने देती।

लेकिन वह चार हटे-कट्टे मर्द थे और वह अकेली कमजोर औरत... कब तक मुकाबला करती। जल्दी ही हार गई और बोतल मवालियों के हाथ में पहुंच गई। वे बोतल उठाये उसे देख कर ऐसे विजेता भाव से हंसने लगे जैसे वर्ल्ड कप ट्रॉफी ही जीत ली हो... हालांकि पानी इस से कम भी न था और वह हारी हुई, हांफती हुई, नम आंखों से पूरी बेबसी के साथ उन्हें देख रही थी।

"पानी दे दो वापस... जो चाहो कर लो मेरे साथ... पर पानी दे दो।" वह हताश-निराश रुआंसी सी बोली।

यही आखरी विकल्प था उसके पास... शायद उनके लिये योनि की वैल्यू पानी से ज्यादा हो, लेकिन नहीं... इस कसौटी पर भी पानी का ही पलड़ा भारी था। वह एक हिकारत भरी नजर उस पर डाल कर वापस बढ़ गये और वह पराजित भाव से उन्हें देखने के सिवा कुछ न कर सकी।

पानी लुट चुका था— वापस रामधारी के पास जाती भी तो नहीं मिलने वाला था। उठी और लड़खड़ाते कदमों से घर चल पड़ी।

घर... जहां बेहाल पड़े बेटे को संभाले श्यामू उसकी वापसी की राह तक रहा था। उसे देखते ही श्यामू की आंखों में चमक आ गई थी लेकिन उसकी हारी हुई दशा देख कर उसके अरमानों पर भी ओस पड़ गई।

"क्या हुआ— रामधारी से पानी मिला नहीं?" उसने बेचैनी से पूछा।

और उसके सब्र का बांध टूट गया। वह एकदम श्यामू से लिपट कर रो पड़ी। श्यामू ने उसे संभालने की कोशिश की और जोर दे कर पूछा कि हुआ क्या था, तो उसने रोते-रोते पूरा किस्सा कह सुनाया और फिर रोने लगी। अब अपनी हालत और बेबसी पर श्यामू की भी रुलाई फूट पड़ी... उन दोनों को रोते देख कर बेहाल पड़ा बेटा भी रोने लगा।

पूरा परिवार रो रहा था और रात गहराने लगी थी। उसने रोटी और चटनी बना ली थी लेकिन उसे गले में उतारने के लिये गला गीला होना भी तो जरूरी था... जिसका कोई इंतजाम ही नहीं था।

रो कर थक गये तो अपनी जगह शांत पड़ गये... दिमाग अतीत के गलियारों में भटकने लगा।

हमेशा से ऐसे ही दिन तो नहीं थे— कभी खुशहाली के दिन भी थे, जब उनके पास भरपूर पानी हुआ करता था और आज वह दो बूंद पानी के लिये भी तरस रहे हैं। कभी पानी था तो उसे बेइफरादी से बहाते भी थे।

हमारी समस्या ही यही है कि हमें ठीक से जीना नहीं आया। न हमें ठीक से नागरिक बनना आया और न ही ठीक से इंसान बनना। प्रकृति ने हमें जो सहज उपलब्ध कराया था, उसे हमने अपनी बपौती मान लिया और प्रकृति हमें क्या जिम्मेदारी दे रही है, उसकी तरफ से एकदम पल्ला झाड़ लिया।

और ऐसा भी नहीं कि इसका जिम्मेदार पिछड़ापन, अशिक्षा या गरीबी हो— बल्कि प्रबुद्ध, बुद्धिजीवी, पढ़े-लिखे जागरूक, सभी इस बर्बादी में शामिल रहे हैं। न हमें एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में अपनी जिम्मेदारी निभाना आया और न ही कुदरत द्वारा प्रदत संसाधनों के उपभोग और संचयन की समझ हमने कभी दिखाई।

व्यवस्था में नीतियां शासक वर्ग बनाता है, जिसके दो हिस्से होते हैं— शासन और प्रशासन। प्रशासन में गैर जिम्मेदार, भ्रष्ट, स्वार्थी और अयोग्य लोगों को घुसाने में भी हमने ही पूरी जिम्मेदारी निभाई और जिन्हें नीतियां बनानी थीं, वहां भी हमने पैसा, शराब, जाति, धर्म, राष्ट्रवाद जैसे फालतू मुद्दों पर अयोग्य लोग पहुंचाये... जिन्होंने संसाधनों की खुली लूट में सक्रिय भागीदारी निभाई अपने पूंजीपति प्रायोजकों के साथ।

इसके परिणाम तो भुगतने ही थे। आज की तारीख में पानी का हाल यह था कि इसके पीछे देश की सभी सीमाओं पर भी वैसी ही जंग छिड़ी हुई थी, जिसकी जड़ में नदियों का वह पानी था जो कहां तो कभी बाढ़ लाता था और आज उसके लिये जंग हो रही थी।

कहने को वह बस एक शहर ही था... लेकिन पूरे भारत का प्रतीक था। पूरे भारत का आईना था— अपने आप में एक भारत था।

कभी वहां पानी की बहुतायत थी... कुंए थे, तालाब थे, झील थी, शहर के बीच से साफ सुथरी नदी बहती थी। जमीन के नीचे चालीस फुट पर ही ग्राउंड वाटर था। हर तरफ पानी की इफरादी थी... लेकिन वही इंसानी फितरत कि जो चीज सहज उपलब्ध हो, उसकी कद्र ही कहां होती है। कद्र उसी की होगी जिसे संघर्ष से हासिल करना पड़े... जिसके लिये सब कुछ दांव पर लगाना पड़े।

लाख बुद्धिजीवी चिल्लाते रहे कि पानी बचाइये— पानी बचाइये, लेकिन उनकी आवाज नक्कारखाने में तूती की आवाज ही साबित हुई।

तब पीने के पानी के लिये कुएं थे, हैंड पंप थे, नगर पालिका की तरफ से बनवाई टंकियां थी, जो बड़े-बड़े इलाकों को पानी की सप्लाई करती थीं लेकिन तब लोग गरीब थे, उतने तरक्की शुदा न हुए थे और आबादी में भी कम थे।

आबादी बढ़ती गई और पैसा आता गया— लोगों के हालात बदले तो वह सुविधा भोगी होते गये। उन्होंने पहले जेट पंप और फिर सबमर्सिबल पंप से जमीन का सीना छेदना शुरू किया। कुवें पहले सूखे, फिर उन्हें बढ़ती आबादी ने तालाबों के साथ दफन कर दिया। हैंडपंप भी नकारा हो गये... समर्थ तो दिन-रात जमीन से पानी खींच कर बहा रहे थे— जरूरत एक जग भर पानी की होती थी लेकिन बहाया चार बाल्टी जाता था। छतों पर रखी टंकियां घंटों बहती थीं।

और असमर्थ को झील से पानी की सप्लाई शुरू कर दी गई... मिनी ट्यूबवेल मोहल्ले-मोहल्ले लगवा दिये गये... लेकिन पानी बहाने मे वे भी कम न थे। उन्होंने भी कोई रहम न किया।


शहर में पानी का अंधाधुंध दोहन करने वाली बिल्डिंगें खड़ी होती गईं। बंगले बनते गये। पैसा आया तो गाड़ियां आईं— जिन्हें रोज धुलना भी फैशन हुआ करता था। पैसे ने प्यूरीफायर, वाशिंग मशीन, रेडीमेड प्लास्टिक बाथटब जैसी पानी की बर्बादी करने वाली चीजें घर-घर पहुंचा दीं। वाटर रिचार्ज सिस्टम जैसी जरूरी चीज सिर्फ कागजों, नारों और बुद्धिजीवियों के चिंतन तक सीमित हो गईं।

कभी बारिश के मौसम में भरने वाली जिस झील का पानी साल भर के लिए पर्याप्त होता था, वह अब छः महीने में खत्म होने लगा— ऊपर से प्रदूषित भी होने लगा।

अब नदी से पानी की सप्लाई की जाने लगी लेकिन यह बढ़ी हुई संपन्नता उन फैक्ट्रियों के भरोसे भी थी, जो दिन-रात नदी के पानी में कचरा घोलती थीं। वह समर्थ लोगों की थीं जो शासन-प्रशासन में सीधा दखल रखते थे और लोगों का लाख विरोध भी उनका कुछ बिगाड़ पाता था। फिर सारे शहर की गंदगी भी तो उसी नदी में मिलती थी।

देखते-देखते नदी नाला बन गई थी... लेकिन जो भी थी, वही उन लोगों का आसरा थी। वहां सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट लगाया गया था लेकिन उसमें काफी खर्च आता था और पानी बहुत कम मिल पाता था तो धीरे-धीरे वह लगातार कीमती ही होता गया था और उसकी बिलिंग होने लगी थी। घरों में मोटर लग गये थे और एक लिमिट तक ही पानी मिलता था।

साल के छः महीने... बारिश के मौसम में और उसके बाद के तीन महीने तक उन्हें इतना पानी मिल जाता था कि वह इंसानों की तरह जी लेते थे। बाद के तीन महीने उन्हें बड़ी किफायत और तंगहाली से काम चलाना पड़ता था, लेकिन बारिश के पहले के तीन महीने उनके लिये कयामत होती थी, जब पानी की एक-एक बूंद कीमती हो जाया करती थी।

इसी दौरान वे जीवन के सबसे कठिन पलों को जीते थे... पानी की कालाबाजारी होती थी, उसकी लूट और उसके पीछे कत्ल तक होते थे। झील सूख चुकी होती थी, नदी के पानी को ही प्रसाद की तरह बांटा जाता था— मोहल्ले-मोहल्ले टैंकर ले जा कर। यहां भी अमीर गरीब का फर्क बरकरार रहता था... सरकार की तरफ से गरीबों के लिये सब्सिडी युक्त और अमीरों के लिये गैर सब्सिडी वाला पानी दिया जाता था, जो काफी महंगा पड़ता था लेकिन पैसे वालों के लिये यही तो आराम था कि वह पेट्रोल के भाव में भी पानी खरीद सकते थे, जबकि गरीब और आम लोग लड़ झगड़ कर भी एक हंडा पानी हासिल कर पाते थे और उसके भी पैसे देते थे।

टैंकर भी सुरक्षित नहीं थे और उनके पीछे भी गोलियां चल जाती थीं। नतीजे में पुलिस को पानी के टैंकर को भी ऐसी सुरक्षा देनी पड़ती थी, जैसे किसी नेता को जेड सिक्योरिटी की सुविधा दी जा रही हो।

समर्थ तो ज्यादा पैसा चुका कर खाने-पकाने, पीने लायक पानी के साथ हगने-नहाने का भी पानी जैसे तैसे पा लेते थे— भले हफ्ते में एक बार नहाते हों, लेकिन आम आदमी का हाल यह था कि शौच में पानी का इस्तेमाल करने की भी सोच नहीं पाता था और अखबार को ही टॉयलेट पेपर की तरह इस्तेमाल कर लेता था— चाहे घर के बाहर मुंह अंधेरे कहीं जाना पड़े। नहाना बारिश होने पर ही हो पाता था, बीच में जरूरत लगी तो नाले जैसी नदी में डुबकी लगा आते थे और वहीं कपड़े धो आते थे। नदी किनारे दिन भर मेला रहता था— गनीमत यह थी की एसटीपी शहर के शुरुआती छोर पर थी, वरना आगे तो पानी भी कीचड़ जैसा हो जाता था।

बाकी जो थोड़े काहिल प्रवृत्ति के थे— संघर्ष की क्षमता भी कम थी, वह कागज, बोरे, पन्नी के अजीब वस्त्र पहन कर ही खुद को आधा अधूरा ढक लेते थे कि फिर उन्हें फेंक सकें। जो थोड़ा पानी खरीद के नसीब होता था वह पानी खाने और थोड़ा बर्तन साफ करने में खर्च हो जाता था।

रहे वे लोग जो पैसा ही खर्च करने में सक्षम नहीं थे, यानी व्यवस्था के एकदम अंतिम पायदान पर मौजूद लोग... उनके लिये अब कोई जगह न बची थी। वह आये दिन मारे जाते थे।

और यह हाल किसी एक शहर का नहीं, बल्कि पूरी दुनिया का था जो जल संकट से जूझ रही थी और भारत का हाल सबसे भयावह इसलिये था क्योंकि इसकी भयंकर आबादी ही इसके लिए मौत बन गई थी। बारिश से पहले के तीन महीने पूरे देश के लिये कयामत होते थे और हर रोज प्यास बेशुमार जानें लीलती थी।


जिन शहरों आबादियों में नदी, झील जैसे पानी के स्रोत नहीं थे वह खत्म हो चुके थे। उनकी आबादियां छोड़ गई थी उन्हें वीरान और जहां यह साधन थे वहां भी छः महीने ही ढंग से गुजरते थे और अंतिम तीन महीने कयामत होती थी। ज्यादातर लोग समुद्री किनारों की तरफ भागने लगे थे और अमीर, समर्थ लोग पहाड़ों के निचले इलाकों में— जहां ग्लेशियरों की लगातार पिघलती बर्फ के कारण नदियों में साल भर जरूरत भर पानी बना रहता था।

लेकिन बाकी देश के तो हाल खराब ही थे फिर गरीबों और आम लोगों के लिये तो जीते जी नर्क था। एक तो दिनों दिन बढ़ती गर्मी— बिजली भी ठीक से हासिल नहीं, फिर पानी की लड़ाई और ऊपर से कमाई की भी जद्दोजहद।

अब तो कमबख्त बारिश भी इतना तरसा के आती थी कि जाने कितने तो इसकी उम्मीद में ही बदन छोड़ जाते थे।

अपने पुराने दिन याद कर रही थी वह छत को तकते हुए... भारतीयों के पुराने दिन... इंसानों के पुराने दिन... कम पानी नहीं बख्शा था कुदरत ने हमें— हमीं ने कद्र न की।

अचानक हुई कड़कड़ाहट ने उसकी विचार निमग्नता तोड़ दी।

उसने चौंक कर श्यामू की तरफ देखा— वह भी उसे देखने लगा था। अपनी सोचों में दोनों इतना गुम थे कि बाहरी खिड़की की जाली में फंसी पन्नी अचानक से फड़फड़ाने लगी थी और उन्हें अहसास ही न हुआ था। उनकी आंखें चमक उठीं... मुर्दा सी, निढाल पड़ी देह में अचानक से स्फूर्ति आ गई। वे उठ बैठे और एक दूसरे की आंखों में देखने लगे।

वे एक दूसरे से पूछ रहे थे खामोश निगाहों से— वह एक दूसरे को जवाब दे रहे थे और दिल खुशी और आशंका से फिर तेजी से धड़कने लगे थे। वे उठ कर बाहर खुले आंगन में आ गये।

हां... उसके आने का सिग्नल हो गया था। हवा में नमी थी, पानी की महक थी और वह खुशी का पैगाम देती इठलाती तेजी से बही जा रही थी। आकाश पर बादलों का नृत्य शुरू हो गया था। दूर बिजली चमकने लगी थी, जिसकी कड़क के साथ फैलती रोशनी सूखी प्यासी धरती को तृप्त करने का मधुर संदेश दे रही थी।


दोनों ने घर के सारे बर्तन आंगन में ला सजाये कि वह दो चार दिनों का पानी एक बारिश में संजो लेंगे। बेटे को भी वे आंगन में उठा लाये और उसे आंगन में कच्ची जमीन पर लिटा दिया... और दोनों मुंह उठाये उम्मीद भरी निगाहों से आसमान को ताकने लगे। साथ ही मन ही मन भगवान से प्रार्थना करने लगे कि उनकी उम्मीद न टूटे।

और वह टूटी भी नहीं... अचानक तेज शोर के साथ आसमान ने बंद दरवाजे खोल दिये और अमृत बरस पड़ा। चारों ओर से हर्षोल्लास में डूबा शोर उस बारिश के सुर के साथ ताल मिलाने लगा। वे खुशी से झूम उठे... उनके घर से अर्थी उठते-उठते बची थी, बेटे के रूप में। उनकी उम्मीदों ने एक साल और पा लिया था... वह नाच उठे।

अब झमाझम पानी बरस रहा था और वे दोनों पागलों की तरह नाच रहे थे। बेटे ने मुंह खोल दिया था और पानी की बूंदे उसकी हलक में उतरतीं, उसमें ऊर्जा का संचार कर रही थीं।

(मेरी किताब गिद्धभोज से ली हुई एक कहानी)


Written by Ashfaq Ahmad

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