पुनर्जन्म
भोपाल की श्यामला हिल्स पहाड़ी और तात्याटोपेनगर एरिया के बीच गहराई में जो बरसाती नाला बहता है वही बाणगंगा है। अधिक बारिश हो जाए तो यही नाला विकराल रूप धर लेता है। इसी के किनारे दोनों ओर झुग्गियों की बिल्कुल अव्यवस्थित बस्ती है। झुग्गियों के बीच बीच से आने जाने के संकरे रास्ते हैं जिन की नालियों से गन्दा पानी बहता है।
इस बस्ती में रहने वाला मँगतराम गोदरेज कम्पनी के शो रूम पर चपरासी का काम करता है। दो बच्चे सीता और शंकर 18-20 वर्ष के हो चुके हैं। पत्नि का नाम गंगूबाई है। मँगतराम को शराब पीने की ऐसी लत है कि जितना कमाता है पी जाता है। इस पूरी बस्ती का यही हाल है। शाम को अधिकांश पुरुष नशे में धुत्त रहते है।
यहाँ रहने वालों का सर्वे हुआ। कुछ वास्तविक कुछ विशेष कृपा से रिकार्ड बना और सरकार ने ग़रीबों के लिए पट्टे बाँटे। पट्टे में महिला का नाम डाले जाने की अनिवार्यता होने से दो अलग अलग झुग्गियों के अस्थायी पट्टों में मँगतराम और उसके बेटे के साथ मँगतराम की माँ और पत्नि गंगू बाई के भी नाम लिखे गए। मँगतराम गँगूबाई के साथ उसके नाम के पट्टे पर बनी झोंपड़ी में रहता है। सीता और शंकर दादी के साथ दूसरी झोंपड़ी में रहते हैं।
मँगतराम घर में अपनी कमाई से बहुत ही कम देता है लेकिन कम्पनी में स्थाई रूप से काम करने के कारण स्वयं को दूसरों से बेहतर मानता है। उसकी तरह महाराष्ट्र से मज़दूरी के लिए भोपाल आए बहुत से परिवार यहाँ रहते हैं। सभी अधिकाँश दैनिक मज़दूर हैं, ड्राइवर हैं, कुछ होटलों, दुकानों आदि पर काम करते हैं, ठेलों आदि पर मण्डी से लाकर फल और सब्ज़ी आदि बेचते हैं। ये सभी सुबह दस बजे तक काम पर निकल जाते हैं।
दोपहर बारह एक बजे तक झुग्गियों के बीच में खाली जगहों पर चादरें बिछा कर, निकम्मों, शराबियों और मज़दूरी न मिलने से लौट आए मज़दूरों की जुए की महफ़िलें जम जाती हैं, सिर्फ़ जुआ नही देशी शराब के दौर भी चलते हैं। किशोर वय लड़कों को दस रूपए देकर कलारी से अद्धी और बाटल मँगाने का काम सौंपा जाता है।
शहर के बीचोंबीच होने से यहाँ की महिलाओं को यह सुविधा प्राप्त है कि उन्हें आसपास के घरों में झाड़ू बर्तन व अन्य घरेलू काम मिल जाते हैं। सुबह दस बजे तक प्राय: अधिकांश महिलाएँ घरेलू कामों पर और पुरुष मज़दूरी की तलाश में निकल जाते हैं। घरों पर बच्चे ही रह जाते हैं। बस्ती से निकल कर ऊपर सड़क के किनारे सरकारी स्कूल हैं लेकिन अनुशासन की कमी से बच्चे वहाँ कम ही ठहरते हैं।
गँगूबाई नियमित रूप से हल्के बुख़ार और खाँसी से पीड़ित रहती है इस कारण उसे कोई घरेलू काम पर न रखता । भूख जो न कराए कम है। वह जैसे तैसे मज़दूरी पर चली जाती और ईँटे, रेत आदि ढोने की मज़दूरी करती रही है। मँगतराम के पास अपना वेतन समाप्त होने पर वह गँगू से पैसों की माँग करता है और न देने पर मारपीट और हँगामा रोज़ की बात है।
दोनों बच्चों को कौन देखे, दादी का कोई कन्ट्रोल नहीं है, बस वे जैसे तैसे बड़े हो गए हैं। लड़की सीता अब घरों का काम करती है और शंकर उस परिवेश में एक नम्बर का जुआरी और शराबी हो चुका है। कभी मज़दूरी पर जाता है कभी अज्ञात स्रोतों से अपना और दादी का ख़र्च चलाता है।
एक दिन बरसात के मौसम में काम से लौटते हुए गँगूबाई बारिश में भीगी और तेज़ बुख़ार के कारण झुग्गी में पड़ी "हाय मर गई हाय हाय मर गई" चिल्लाती रही।
मँगतराम शाम को पीने के बाद सुरूर में था इस हाय हाय से नशे में व्यवधान आ रहा था, पहले तो डाँट कर चुप रहने को कहा फिर भी वह न चुपी तो बोला -"अरे तू ना मर सकती, मरेगी तो ज़िन्दा कर लूँगा"
गँगूबाई तड़प तो रही थी रोते हुए बोली-" अरे मैं सचमुच मर रही हूँ , बचा ले।"
"ना मरने की, मर गई तो पनर्जन्म करा लूँगा"
चार दिन ऐसे ही बुख़ार में तड़पते रहने के बाद आख़िर गँगू बाई दुनिया को छोड़ गई।
उसकी मौत ने मँगतराम को जैसे एक बीमार महिला की उपस्थिति से भी मुक्ति दे दी। लेकिन नशे की झोंक में अब भी वह अक्सर कहता -" करना पड़ेगा, गँगूबाई तेरा पनर्जन्म करना पड़ेगा नहीं तो पट्टा खतम हो जाएगा, नाम तो तेरा ही पड़ा है उसमें।"
अब वह निरन्तर माँ पर अपने विवाह के लिए दबाव बनाने लगा। सबसे बड़ी चिन्ता गँगूबाई के नाम के पट्टे वाली झुग्गी की भी थी, जिसका पट्टा अहस्तान्तरणीय है।
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भोपाल शहर से दूर महाराष्ट्र के एक सुदूर गाँव में चैत की कटाई मड़ाई चल रही है। अधिकांश किसानों की फ़सलों की कटाई निपट गई है। अब गर्मी उफ़ान पर आ रही है। देर हो जाने के बाद धूप की तपिश काम करना मुश्किल कर देती है इसलिए सुबह सूरज निकलने से पहले सुनीता और उसकी सहेली राधा, पंडित जी के खेत में गेहूँ काटने के काम पर पहुँच जाती हैं। सोलह पूली पर एक पूली उनकी होती है। खेत पर रखवाली करने वाला हरि उपस्थित था, पड़ौस की पार्बती मौसी भी काम पर आ गई थीं। दोनों लड़कियाँ हँसिया लेकर हल्के अन्धेरे उजाले के बीच काम पर लग गईँ। इस बार की फ़सल ठीक हुई है और खेतों में मज़दूरी का काम करने वाली इन दोनों लड़कियों को कई खेतों में कटाई का अच्छा काम मिल सका है। दोनों की माएँ और पिता कुछ दूर के खेतों पर काम करने निकल गए है।
महाराष्ट्र के इन छोटे-छोटे गाँवों में लड़कियों का होना किसी विपदा से कम नहीं माना जाता और विपदाओं की आयु भी कोई याद रखने की चीज़ है। इन्हें तो जितनी जल्द द्वार से विदा कर दें, वही अच्छा है। अन्दाज़ से दोनों सखियों की आयु चौदह पन्द्रह वर्ष की होगी। वे मुख्य बस्ती से ज़रा हट कर बनी झोंपड़ियों में आसपास रहती हैं। दोनों के परिवार भी खेतीहर मज़दूर है। राधा के घर की स्थिति बेहतर है क्योंकि उसका पिता रामचन्द गृहस्थी का ध्यान रखता है जबकि सुनीता का बापू शराब पीता है और काम के प्रति लापरवाह है। उसके घर में खाने भर की व्यवस्था बनी रहना भी बड़ी बात है।
राधा का विवाह हो चुका है और अब फ़सल कटाई के बाद गौना तय हुआ है। सुनीता की माँ भी दो तीन वर्ष से बेटी के रिश्ते के लिए चिन्तित है, लेकिन घर की दयनीय स्थिति के कारण सफलता नहीं मिल सकी। इस सबके होते भी दोनों बचपन की सखियों के लिए यह जीवन का सबसे सुखद समय है क्योंकि उन्होंने जन्म से यही पाया और देखा है, उनके लिए यही सामान्य है। कड़ी मेहनत और अभाव आँखों में आ बसने वाले सपनों को कहाँ रोक सकते हैं।
सुनीता और राधा कमर में अपनी मराठी धोती का पल्लू खोंसे दिन चढ़े तक काम करते पसीने से लथ पथ हो गईं। भूख भी ज़ोर से लग आई थी।
नीम के पेड़ की छाया में बैठ कर अचार से रात की रोटी खाते हुए सुनीता ने कहा-
"अब तेरा तो गौना आ रहा है। लगता है हम दोनों का ये साथ अन्तिम है अगली फ़सल पे मैं अकेली हो जाऊँगी, तू तो वहाँ आनन्द में होगी।"
"कौन जाने, सोच कर मेरा तो कभी मन घबराता है कभी अच्छा भी लगता है।" राधा ने कहा।
"ओए होए राधा बात करते तेरे मुखड़े पर आते रंग तो कुछ और कहानी कह रहे हैं ।" सुनीता ने उसे छेड़ा।
राधा शर्माई सी हँसी हँस दी- "नहीं रे बात समझ, घबराहट यह है कि पता नहीं कैसे बीतेगी, बम्बई में काम करता है वह, लेकिन मुझे तो अभी उसके गाँव में ही रहना होगा"
खाने के बाद दोनों ने हरि के सामने गिनती कराके अपने हिस्से की पूलियाँ चादर में बाँधी और सिर पर रख कर घर की ओर चल दीं।
राधा के घर के आगे क़नात बँधीं। छोटा सा शामियाना बँधा। तीन दिन हल्दी, मेंहदी आदि रीति रिवाज हुए और अन्तिम दिन बारात में आए 15-20 लोगों की चहल पहल सुबह से शाम तक रहने के बाद राधा की विदाई हो गई।
गौना कराने बारात में आई इसी गाँव की लछमी बुआ से सुनीता की माँ ने उसके रिश्ते की और घर की दयनीय स्थिति की बात बताई तो बुआ ने भोपाल वाले उसके ससुराली सम्बन्धियों से बात करने के लिए आश्वस्त किया।
राधा पगफेरे के लिए आकर वापिस चली गई लेकिन जाने से पहले उससे हुई अंतरंग बातचीत ने सुनीता को नई नई जानकारियाँ दीं। पन्द्रह वर्ष की सुकोमल आयु में सूखी रोटी खाते हुए भी कड़ी मेहनत और गाँव के साफ़ सुथरी हवा- पानी से काया स्वस्थ थी और कुछ साँवले रंग में लुनाई और गुलाबीपन घुलता जाता था। एक तो बचपन की सखी के बिछुड़ने से अकेली रह जाना, उसकी बताई पति और पत्नि के बीच की बातें, फिर घर में निरन्तर उसके विवाह बाबत चर्चाएँ और चिन्ताएँ थीं।
सुबह से मज़दूरी के काम पर निकल जाती, लेकिन काम करते हुए भी पूरे समय जैसे किसी और ही दुनिया में खोई रहती। रात को बिस्तर पर लेटती तब सपनों का एक राजकुमार उसे लिवाने आ जाता और वह जागती आँखों आने वाले समय की सुखद कल्पनाओं में विचरती रहती। साल बीतने आ गया था।
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फिर एक दिन भोपाल से उसके रिश्ते के लिए दो महिलाएँ और एक पुरुष आए जिन्हें लछमी बुआ ने भिजवाया था। दोनों महिलाओं के गले, हाथ और कानों में सोने के ज़ेवर थे। साफ़ सुथरे कपड़ों में 40-45 वर्षीय पुरुष के गले में भी सोने की ज़ंजीर थी।
ये मँगतराम, उसकी माँ और एक विवाहित बहिन थे, जो माँगे के कपड़े, साड़ियों और नक़ली ज़ेवर पहिन कर सुनीता से रिश्ता जोड़ने आए थे।
बात चीत में उन्होंने बताया कि मंगतराम की पत्नि की मृत्यु हो चुकी है, बच्चे कोई नहीं हैं और वह किसी भी तरह के लेनदेन के बिना पनर्विवाह करना चाहता है और वह कम्पनी में नियमित नौकरी पर है।
सुनीता के माता पिता को जैसे वरदान मिल गया। मेहमानों के पहनावे से वे अच्छे खाते पीते घर के लग रहे थे और दहेज या रक़म की कोई बात ही नहीं थी। बस वर की आयु अधिक लग रही थी। दिन में सोच विचार होता रहा।
सुनीता के इंकार करने पर हज़ार तरह मनाया गया, शहर और सम्पन्न घर के स्वप्न दिखाए गए, धमकाया गया। वह रोती रही लेकिन शाम तक स्वीकृति दे दी गई और अगले दिन मन्दिर में विवाह सम्पन्न हो गया और सुनीता अपनी नई दुनिया के लिए विदा कर दी गई।
बूढ़ी महिला ने सबके पहने ज़ेवर उतरवा कर एक कपड़े में बाँध कर अपने पास सुरक्षित रख लिए।
ट्रेन में जनरल डिब्बे में दो सीटों के बीच ज़मीन पर नीचे चादर बिछाकर बैठे चारों यात्रियों नें जागते, ऊँघते और कभी एक दूसरे पर या साथ लाए सामान की गठरियों पर नींद में लदते लुढ़कते-रात बिताई। सुबह भोपाल स्टेशन आ गया था।
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सुनीता थकी थी, सपनों का राजकुमार कहीं नहीं था, अपने परिवेश से छूट जाने की टीस थी, लेकिन शहर देखने की उत्सुकता, और एक सम्पन्न गृहस्थी में जीने का आस बाक़ी थी। आटो से आते हुए उसके गाँव से बिल्कुल अलग चौड़ी सड़कों और गाड़ियों वाला शहर सुन्दर लगा। मन में ख़ुशी की हल्की सी लहर आई।
आटो से उतर कर काफ़ी दूर तक गलियों व पगडन्डियों से चलते हुए ये चारों मँगतराम की झुग्गी तक पहुँचे।
सुबह के लगभग आठ बजे थे। धूप फैलने लगी थी।
महिलाएँ और पुरुष अपने-अपने काम पर रवाना होते, उससे पहिले बस्ती में मँगतराम के नई बहू लाने की सूचना फैल गई, जैसे-तैसे मुँह धोते, कंघा करते, बहू का मुँह देखने वालियों की भीड़ जुट गई। साँझ तक महिलाओं का आना जाना लगा रहा और सुनीता पसीने और गरमी से बेहाल होती रही। बीच में उसे खाना और पानी दिया गया जो उसने कठिनाई से खाया।
शाम ढले मँगतराम जब शादी की ख़ुशी में कलारी पर दोस्तों के साथ जश्न मना कर, देसी शराब पी कर नशे में धुत्त लौटा तब उसे देखकर महिलाएँ वहाँ से हट गईं।
वह रात सुनीता के लिए शारीरिक और मानसिक यातनाओं की सीमा से पार गुज़र जाने की रात थी।
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निढाल होने पर भी सुनीता सुबह जल्दी उठ बैठी, जीवन ऐसा होगा यह उसने कब सोचा था। नितान्त अजनबी जगह और कोई भी अपना नहीं था। उसने अपने इस नए ठिकाने को देखा। यह एक छोटी सी 10×12 की झुग्गी थी जिसमें दरवाज़े की जगह टाट का परदा लटका था। परदा हटा कर बाहर झाँका तब वहीं दीवारों से घेरकर शौचालय जैसी जगह बनी थी। वह नित्य कर्म से निपट कर झुग्गी में ज़मीन पर आकर बैठ गई बल्कि लुढ़क गई।
सामने बिछी चारपाई पर मँगतराम बेसुध पड़ा हुआ था। एक झिलंगा चारपाई दीवाल से लगी खड़ी थी। सामने मिट्टी का चूल्हा और एल्यूमीनियम के कुछ खाना बनाने के बर्तन थे। दोनों ओर दीवारों में लगी मोटी कीलों से एक प्लास्टिक की रस्सी बँधी हुई थी जिस पर मैले कुचैले कपड़े टंगे थे। सुनीता ने आश्चर्य से चारों ओर नज़र दौड़ाई, उस के गाँव का घर भी इस से कहीं बेहतर था।
आठ बजे मँगतराम उठ गया। चारपाई पर पैर लटकाए हुई कुछ देर ज़मीन पर बैठी हुई उसे देखता रहा, फिर ये कहकर वह बाहर निकल गया-
"गँगू, चूल्हा जला ले, चा बना, मैं दूध सब्ज़ी लाता हूँ, फिर रोटी वोटी बनाना, काम पे जाऊँगा"
वह गँगू पुकारे जाने पर हैरान होती जैसे-तैसे उठी और पास पड़ी लकड़ियों को चूल्हे में रख कर आग जलाने लगी। हर चीज़ अस्त व्यस्त पड़ी थी। कुछ धुँए और मिट्टी से चिपके प्लास्टिक डिब्बों में मसाले आदि थे, एल्यूमूनियम के भगोने काले और बहुत ही गन्दे थे, बाल्टी में पानी रखा था। एक भगोना धोकर उसने चाय बनाने रख दी और एक भगोना दूध के लिए धो कर रख लिया।
मँगतराम दूध, सब्ज़ी, दाल आदि लेकर लौटा और बाल्टी उठा कर बाहर लगे सार्वजनिक नल पर पानी भरने चला गया जहाँ पानी के लिए लाइन लगी हुई थी, माँ लाइन में लगी थी इसलिए अपनी बाल्टी भी उसे सौंप कर वापिस आ गया।
चाय बन गई थी गिलास से उसे पीते हुए उसने कहा- "सुबह पाँच बजे और फिर नौ बजे नल आता है, वहाँ से पानी भर कर रखना होता है, कल से भर लेना और हाँ अब तेरा नाम गँगूबाई है भूल से भी किसी को सुनीता नाम मत बताना, जल्दी रोटी बनाले मुझे जाना है कल से रोटी पानी की सवेरे से चिन्ता कर लिया करना, मेरा मुँह क्या देख रही है, जो कह दिया पत्थर की लकीर समझ।"
इस बस्ती में जीवन अपनी पूरी ढिटाई के साथ चलता है। जिजीविषा विचित्र होती है, हर हाल में जीना सिखा देती है। नियति जो न कराए कम है।
कुछ ही समय में गँगूबाई के पहने हुए कपड़े पहनते, उसकी ओढ़ी गोदड़ी ओढ़ते, उसके मर्द को भुगतते और उसके नाम से पुकारे जाते हुए सुनीता जैसे कहीं थी ही नहीं। अब माँग में ढेर सारा सिन्दूर भरे, हाथों में चूड़ियाँ और गले में काले मोतियों की माला पहने, व्रत उपवास करती, घूँघट निकाले सार्वजनिक नल पर पानी के लिए लड़ती, गीली सीली लकड़ी पर कभी रोटियाँ सेंकती, कभी भूखी रहती और अन्तत: घरों में झाड़ू पोंछे और बर्तन के घरेलू काम के लिए जाती, नशे में धुत्त मँगतराम से बहाने-बहाने से पिटती गँगूबाई पुनर्जन्म ले रही थी।
लेकिन लाख भुला देने पर कल्पना में अब भी उसका मन चैत की हवा संग गाँव के खेत खलिहानों में भटकने पहुँच जाता है और पेड़ की छाँव में खाई सूखी रोटी और ठन्डा पानी अमृत तुल्य याद आते हैं, सपनों का राजकुमार अब भी सपनों में दस्तक दे जाता है और दुनिया में किसी को कोई अन्तर नहीं पड़ता।
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समाप्त
Writte By: Shameem Zahra
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