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ऑनलाइन इश्क

ऑनलाइन इश्क


वह आज आज स ऑनलाइन थी।


करीब दो साल बाद.. यह मेरे लिये बहुत बड़ा आश्चर्य था। सुखद कहूँ या दुखद कहूँ, यह खुद मेरे लिये समझना मुश्किल था।

यह ठीक है कि मैं उसे भूल नहीं पाया था लेकिन अब उससे कोय मैं मममई उम्मीद भी नहीं बची थी, इसलिये मेरे लिये समझ पाना मुश्किल हो रहा था कि उससे कुछ बोलूं या न बोलूं।

एकदम से उससे जुड़ा हर लम्हा मेरी आंखों के आगे तैर गया। उसका नाम मरियम था और उससे मेरी मुलाकात आर्कुट पर हुई थी, जहां धीरे-धीरे हमारे बीच अच्छी ट्यूनिंग बन गयी थी। लगभग हर शाम हममें चैटिंग की आदत सी बन गयी थी।

वह अपने अतीत से जुड़े किस्से बताना, वह पर्सनल अनुभव शेयर करना, वो अपनी फोटोज पर दूसरे से तारीफी कमेंट्स लेना, वह जोक्स शायरियां और वह हंसी। धीरे-धीरे हमें एक दूसरे की आदत पड़ने लगी थी।

सुबह शुरू बाद में होती थी, हमारा इंतजार पहले शुरू हो जाता था कि आज क्या-क्या बातें करनी हैं.. आज क्या-क्या एक्सचेंज करना है। शाम होते-होते फिर मन में ढेरों बातें इकट्ठा हो जातीं और फिर ऑनलाइन मिलते ही बातों का सिलसिला चल पड़ता।

न बातों का स्टॉक उधर खत्म होता न इधर.. आज तो चार पैरा लिखना भी अखरता है लेकिन उन दिनों तीन-तीन घंटे लिख-लिख के बातें कर लेता था। उंगलियां स जाती थीं लेकिन मन नहीं थकता था।

यह इश्क की अलामतें थीं.. कब तक इनकार करता, कब तक स्वीकारने से खुद को रोक पाता। एक दिन उसके सामने मान लिया कि मुझे उससे मुहब्बत है। पता नहीं यह खुद की भावनाओं के स्वीकरण में आयेगा या उसे प्रपोज करने की कैटेगरी में.. पर उस दिन हिम्मत करके कह दिया था।

वह उस वक्त तो सुन कर ही खामोश हो गयी थी.. लेकिन वह बेचैनी भरी रात और अगला दिन मेरे लिये अब तक की जिंदगी का सबसे लंबा वक्फा हो गया था। हर पल में एक ऊहापोह, कशमकश.. खुद की उलझन। कभी खुश हो जाता और किसी पल में मायूस हो जाता।

लेकिन शाम को उसने सकारात्मक प्रतिक्रिया दी और मुझे जैसे मुंह मांगी मुराद मिल गयी। फिर अगली रात और अगला दिन तो झम से गुजर गया। खुशियों को पंख लग गये।

अब उसने अपना नंबर दे दिया और मैं अपना सारा पैसा एसटीडी कॉल्स पे उड़ाने लगा।

वह भोपाल से थी और इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रही थी। फाईनल ईयर में थी.. पढ़ाई पूरी करके नौकरी करने का ख्याल रखती थी और तब शादी का। मैं दिल्ली से था.. सो यहां सेटल होने में उसे कोई प्राब्लम नहीं थी।

दिनों को पंख लग गये।

अगले दो महीने कैसे गुजर गये पता ही न चला.. इश्क में यही तो होता है। गुजरते वक्त का अहसास ही बाकी नहीं रह जाता।

फिर जाने क्या हुआ कि उसका मिजाज़ बदलने लगा। मेरी बातों के जवाब थोड़ी चिड़चिड़ाहट से देने लगी। धीरे-धीरे फोन उठाना बंद कर दिया। कॉल्स मिस्ड होने लगीं.. चैट में पूछे गये सवाल उनुत्तरित रहने लगे।

मेरे लिये वह वक्त बेहद तकलीफदेह था जहां मैं चिड़चिड़ाहट से भरा जा रहा था.. मरियम मेरी जिंदगी का पहला प्यार थी और उसे यूँ खोने का अहसास मुझे पागल किये दे रहा था। क्या अब उसे कोई और पसंद आ गया था जो वह मुझे इग्नोर करने लगी थी.. यह ख्याल ही मेरे तन-मन में आग लगा देता था।

इस बीच वह आर्कुट से फेसबुक पर भी आ गयी थी.. मैंने दोनों जगह उसकी प्रोफाईल और एक्टीविटीज की जासूसी करनी शुरू की। क्या कहीं उसकी कंटीन्यूटी किसी और से बढ़ रही थी? प्रत्यक्षतः तो ऐसा कुछ भी मेरी पकड़ में न आया।

लेकिन यह अपनी जगह सच था कि उसकी हरकतें मुझसे पीछा छुड़ाने की गवाही दे रही थीं।

फिर उसने जवाब देना एकदम बंद कर दिया। आर्कुट फेसबुक दोनों ही जगह रिस्पांस देना सिरे से बंद कर दिया और पीछे जीमेल पर मैंने पचास मैसेज छोड़े.. उन पर भी कोई जवाब देना मुनासिब न समझा।

फोन नंबर आउट ऑफ सर्विस बताने लगा.. बमुश्किल उसकी आईडी निकलवाई तो किसी हिंदू परिवार की निकली। मतलब नंबर भी फर्जी आईडी से लिया गया था।

अब मैंने गौर किया कि हजारों या शायद लाखों बातों के बावजूद उसने कभी ऐसी कोई चीज मुझे नहीं बताई थी जो उसकी पहचान की शिनाख्त कर सकती। न कभी अपनी रिहाइश के बारे में बताया और न ही यह कि वह किस कालेज से इंजीनियरिंग कर रही थी। यानि धोखा देने की मंशा शुरू से उसके मन में थी। वह अपना मनोरंजन करके निकल गयी थी और मैं लुटा पिटा खाली हाथ खड़ा रह गया था।

गुस्से और गम से जैसे मैं पागल हो गया।

मेरी कैफियत मेरी माँ से छुपी न रह सकी। वे खुद एक स्कूल की प्रिंसिपल थीं.. उन्होंने खुद से मेरी काउंसिलिंग शुरू की और बमुश्किल जैसे-तैसे मुझे जिंदगी में वापस ला पाईं। पहले प्यार में खाई चोट कितनी घातक होती है, यह अंदाजा मुझे तब हुआ।

छः महीने लगे मुझे इस इश्क से उबरने में।

और उबारने के लिये न सिर्फ मेरे पैरेंट्स ने मेरे लिये एक टेंपरेरी नौकरी की व्यवस्था की ताकि किसी तरह मेरा मन बहल सके.. साथ ही मुझे शादी करने के लिये भी राजी कर लिया।

पहले मैं इतनी जल्दी शादी करने का कोई इरादा नहीं रखता था लेकिन फिर राजी होते वक्त ऐसा लगा जैसे मैं मरियम से बदला लेना चाहता होऊं.. जैसे वह मेरे आसपास कहीं न कहीं मौजूद हो और मुझे देख रही हो और मैं उसे दिखाना चाहता होऊं कि देखो, तुम्हारे बगैर मर नहीं गया मैं.. तुम्हारे बगैर भी खुश हूँ।

और उस सिलसिले के ठीक एक साल बाद मेरी शादी हो गयी। लड़की माँ की रिश्तेदारी की ही थी, पढ़ी लिखी थी पर घरेलू स्वभाव की थी। जल्दी ही एक आदर्श बहू के रूप में रम गयी।

मेरे दिल में जगह बनाते उसे काफी टाईम लगा लेकिन अंत पंत वह कामयाब रही और मरियम का नाम भी मेरे दिमाग से निकल गया।

और अब तो एक खूबसूरत सी बेटी का बाप भी हो गया था, जिसने उसे भुलाने में रही सही कसर भी पूरी कर दी थी।

मगर आज वह ऑनलाइन थी।

न चाहते हुए भी सबकुछ जैसे फ्लैशबैक की तरह मानस पटल पर नाचता चला गया था। वह खुशी, वह दर्द, वह तड़प, वह गुस्सा.. किस अहसास से शनासाई न हुई थी उसके चलते।

उसे फेसबुक पे एक्टिव और ऑनलाइन देख के मैंने जीमेल खोली.. यह देखने के लिये कि क्या उसने उधर मेरे लावारिस पड़े मैसेजेस का कोई जवाब दिया था।

लेकिन उधर पूर्ववत् सन्नाटा था।

'इम्मू..' सहसा उसकी तरफ से मैसेज आया।

मैं नहीं चाहता था कि मैं रिप्लाई करूँ लेकिन उंगलियों को जैसे कोई अदृश्य शक्ति कीबोर्ड तक खींच ले गयी।

'क्या है?' मैंने जानबूझकर वह शब्द लिखे जो मेरी नाराजगी और बेरुखी को प्रदर्शित कर सकें, लेकिन मैं खुद अपने अन्तर्मन को उस घड़ी न समझ पाया कि मैं क्यों चाहता था कि वह मेरी नाराजगी को समझे।

किन्तु प्रत्युत्तर में किसी और भावयुक्त सेंटेंस की जगह सिर्फ मोबाइल नंबर मांगा गया।

कुछ पल सोचने के बाद और दिमाग के पुरजोर विरोध के बावजूद, अनमने ढंग से ही सही लेकिन मैंने अपना नंबर लिख दिया।

तत्काल फोन की घंटी बजी.. मैंने मोबाइल की ओर देखा। कोई नया नंबर था।

'हलो।' मैंने फोन रिसीव करते हुए कहा।

'बेटे, मैं मरियम का पापा बोल रहा हूँ। वह तुमसे मिलना चाहती है.. एड्रेस मैं फेसबुक पे लिखे दे रहा हूं। जितनी जल्दी हो सके, आ जाओ। इट्स एन एमर्जेंसी।' बस इतनी सी बात के बाद फोन कट हो गया।

मैंने मॉनिटर की ओर देखा.. चैट बॉक्स में उसकी तरफ से एक एड्रेस लिख दिया गया था, जो कि भोपाल का ही था।

मैं सोच में पड़ गया.. ऐसी कौन सी एमर्जेंसी पड़ गयी दो साल बाद.. और उसे आखिर मुझसे मिलना ही क्यों था। क्या वह किसी मुसीबत में है जो अब उसे मेरी जरूरत पड़ गयी।

मैं समझता था कि वह मेरे सीने में मर चुकी है लेकिन आज टटोलने पर पता चला कि वह अभी भी जिंदा थी। दिमाग लाख जिद कर रहा था कि उस कॉल या मैसेज को इग्नोर कर जाऊँ, जैसे उसने मेरे पचासों मैसेज किये थे.. लेकिन दिल था कि रह-रह कर बस एक इसी ओर खिंच रहा था कि क्या वह किसी मुसीबत, किसी परेशानी में है? क्या उसे मेरी जरूरत है?

बड़ी देर दिमाग और दिल के बीच चलते द्वंद में फंसा इस कशमकश में उलझा रहा कि जाऊँ या न जाऊँ।
एक घंटे बाद अंततः इस नतीजे पर पंहुचा कि मुझे जाना चाहिये। सामना होगा तो एक मौका तो मिलेगा मुझे उसे जलील करने का.. अपनी तड़प और गम का बदला शाब्दिक तीर चला कर लेने का। बाद में भले उसके काम आ जाऊँ।

घर यही बताया कि एक दोस्त परेशानी में है, उसके पास इमर्जेंसी में भोपाल जा रहा हूँ। कल तक लौट आऊँगा और एक जोड़ी कपड़े में ही नई दिल्ली रेलवे स्टेशन की ओर रवाना हो गया।

भोपाल के लिये जो उपलब्ध ट्रेन मिली उसी पर जनरल टिकट के सहारे सवार हो गया।

अगली सुबह जैसे तैसे भोपाल पंहुच गया। एड्रेस हबीबगंज रेलवे स्टेशन से ज्यादा दूर का नहीं था तो कोई बहुत वक्त नहीं लगा उसके घर तक पंहुचने में।

वहां काफी लोग जमा थे, लेकिन मेरे नाम बताने पर मुझे ऐसे अंदर पंहुचा दिया गया जैसे मेरा ही इंतजार हो रहा हो।

जिस कमरे में वह थी, वहां और भी लोग थे जो मुझे देखते ही बाहर निकल गये, सिवा एक बड़ी उम्र के शख्स के, जो शायद उसके पापा थे।

और वह बिस्तर पर पड़ी थी.. मैंने गौर से उसे देखा। नहीं, यह वह मरियम तो नहीं थी जिसे मैं जानता था। जिसके पचासों फोटो देखे थे मैंने.. वह तो गोरी चिट्टी, तगड़ी तंदरुस्त लड़की थी और यह... हड्डियों का ढांचा... रंगत डल थी, गाल धंस गये थे, हड्डियां उभर आई थीं, सर के बाल भवें सब गायब थे और चेहरा ही डरावना हो रहा था।

मुझसे नजर मिलते ही उसकी बेजान आंखें चमकी थीं और एक लहर सी चेहरे पर गुजर गयी थी। कौन थी यह? मैंने उन हजरत की तरफ सवालिया निगाहों से देखा।

'मरियम को कैंसर था। दो साल पहले हमें यह बात पता चली.. दिल्ली बम्बई तक दौड़े हम। जितना कर सकते थे हमने किया.. लेकिन शायद खुदा को यही मंजूर था.. यह कल से तुम्हारा ही इंतजार कर रही थी।' कहते हुए उनकी आवाज रूंध गयी और आंखें भीग गयीं।

दो साल पहले.. दो साल पहले.. मेरे दिमाग में हथौड़े बजने लगे।

मैंने उसकी तरफ देखा.. जो एकटक मुझे देख रही थी। स्वचलित मशीन की तरह मैं आगे बढ़ा और उसके सरहाने बैठ गया। उसका एकदम ठंडा, बेजान हाथ उठा कर अपने हाथ में ले लिया और अपनी हथेलियों से मसलते हुए उसमें गर्माहट भरने लगा।

'मैं बेवफा नहीं थी..' उसके होंठ हिले लेकिन आवाज न निकल सकी, बस ऐसा लगा जैसे पूरी ताकत से अपनी उखड़ती सांसों पर लिखने की कोशिश कर रही हो, 'नहीं चाहती थी कि तुम्हें कुछ पता चले.. तुम मुझे इस हाल में देखो.. पर आखिरी वक्त में तुम्हें एक बार देखने की ख्वाहिश न मार सकी।'

आखिरी शब्द बोलते हुए उसकी आँखों से दो बूँद आँसू कोरों से निकल कर गाल पर बह गये। उसने अपना कमजोर सा दूसरा हाथ उठा कर मेरे हाथ पर रख दिया और हम खामोशी से एक दूसरे को देखने लगे। अब कुछ बोलने की जरूरत नहीं थी।

उस घड़ी कुछ नहीं बचा था मेरे मन में.. बस संज्ञाशून्य हो गया था और होश में तब आया जब पीछे से रूंदन शुरू हुआ।

मैंने गौर किया कि उसकी मुझे देखती आंखें अब पथरा गयी थीं।
Written by Ashfaq Ahmad

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