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अपनी ही छाँव में

 


अपनी ही छाँव में 

ट्रेन अपनी रफ़्तार से भागी चली जा रही है। कटनी जंक्शन कुछ देर पहले गुज़रा है। रात के ग्यारह बजे के आसपास का समय होगा। द्वितीय श्रेणी स्लीपर डिब्बे में अधिकांश यात्री अपनी अपनी सीट पर ओढ़ने बिछाने की व्यवस्था करके लेट गए हैं। जो कटनी स्टेशन से सवार हुए हैं वे सामान सीटों के नीचे खिसका कर लेटने की तैयारी में हैं। वह अभी तक सिकुड़ी सिमटी खिड़की से टिकी बैठी रही है। खिड़की का काँच बन्द होने पर भी झिरी से आने वाले हवा के झोंके शरीर में सिहरन पैदा करने लगे तब उसने सीट के नीचे से अपना बैग खींच कर स्वेटर निकाल कर पहना और फिर उसी तरह गुमसुम बैठ गई।

अभी सर्द मौसम ने पूरी तरह विदाई नहीं ली है। जब भी लगा कि ठन्ड बीत गई तभी तेज़ हवाओं और आसमान पर घिरते बादलों ने फिर मोटे कपड़ों में लिपट जाने को मजबूर कर दिया। अच्छा हुआ था घर से चलते वक़्त उसने स्वेटर और कम्बल जैसे तैसे बैग में रख लिया था जिसमें दो जोड़ी कपड़े और उसके सर्टिफ़िकेट पहले से रखे हुए थे। जल्द बाज़ी में एक बैग में किताबें भर कर दोनों बैग लेकर वो ख़ामोशी से आटो करके रेलवे स्टेशन रवाना हो गई थी।

माता पिता के घर से निकलते हुए वह यह जान चुकी थी कि यह घर भी सदा के लिए छूट गया है क्योंकि लोगों के लिए तो मन्दिर के पुजारी पंडित गीता प्रसाद मिश्रा की बेटी और उन्हीं के समान कुलीन हरीश तिवारी की पत्नि सुरेखा एक नीची जाति के लड़के बाबूलाल रजक के साथ भाग रही थी। जबकि वास्तव में उस लड़के से उसका ऐसा कोई सम्बन्ध नहीं था। उसका दिल अचानक ही एक अनजाने भय से भर उठा था, लेकिन पीछे लौटने के सारे रास्ते बन्द थे और वह लड़का बाबूलाल रजक इस समय ट्रेन के इस सेकेन्ड स्लीपर कोच में उसी की सीट पर पास ही सकुचाया हुआ सा बैठा था। नीचे की बर्थ और मिडिल बर्थ उन दोनों के नाम से रिज़र्व थीं।

किसी स्टेशन पर ट्रेन कुछ पल रुक कर चली। यात्रियों के उतरने से कुछ हलचल हुई तो बाबूलाल ही उठा और अपने बैग से एक डिब्बा निकाल कर सीट पर रख कर खोला जिसमें पूड़ी, अचार और सब्ज़ी थी जो उसकी माँ ने उसके साथ दी थी।


"सुरेखा कुछ खा लो, भूखे रह कर कुछ नहीं होगा, अब बहुत हिम्मत करनी होगी"


सुरेखा शून्य नज़रों से उसे देखती रही, तब वह फिर खिसियानी हँसी हँस कर बोला- "पंडिताइन को हमारे डिब्बे से ले कर खाने में संकोच हो रहा है शायद ? "


सुरेखा सोच में पड़ गई कि ये सामने बैठा पच्चीस छब्बीस वर्षीय पढ़ा लिखा युवक जो उसके साथ ही सब इंस्पेक्टर पुलिस चयनित हुआ है, ये ही है जो इस इतनी बड़ी और बेरहम दुनिया में इस समय उसका सहारा है और कहीं कोई नहीं है और अनायास ही उसने हाथ बढ़ा कर कहा-" लाओ खाते हैं"


उसने सुबह से कुछ नहीं खाया था।

खाना खाने के बाद मिडिल सीट खोल कर बाबूलाल अपनी हल्की रज़ाई ओढ़ कर उस पर लेट गया और सुरेखा नीचे की सीट पर कम्बल ओढ़ कर लेट तो गई, लेकिन सोचों के सिलसिले थे और नींद आँखों से कोसों दूर थी।

एक वर्ष पूर्व जब वह ससुराल से पिता के घर आई थी तब पति हरीश तिवारी ने उसे पीट कर घर से निकाला था क्योंकि उसने स्वयं पर लगाए जा रहे आरोपों का प्रतिवाद किया था। इस बार पिटते हुए वह यह फ़ैसला कर चुकी थी कि अब उसे कभी ससुराल नहीं लौटना है, बल्कि काफ़ी समय से ही उसे लगने लगा था कि वह पूरा जीवन इस घर व इन लोगों में नहीं बिता सकेगी। इसलिए अपना फ़ोन और पर्स किसी तरह उठाकर और एक छोटे से बैग मे रखे गए सर्टिफ़िकेट्स साथ लेकर उसने वह घर छोड़ दिया था, जहाँ पिछले तीन साल से वह दिन रात ताने सुनते हुए एक यातनापूर्ण क़ैद काट रही थी।

उस घर की वह चौथी और सबसे छोटी बहू थी। बड़ी तीनों बहुएँ पर्याप्त दहेज और नगद पैसा लाई थीं। पढ़ी लिखी बेशक नहीं थीं, लेकिन सास की मर्ज़ी अनुसार चेहरे तक घूँघट डाले गृह कार्यों में लगी रहती थीं । खेती किसानी वाला संयुक्त परिवार था। तीनों जेठ पढ़े लिखे नहीं थे लेकिन उसका पति बी ए पास था इसीलिए उसके पिता ने अपनी बी ए पास बेटी के लिए उसे चुना था। लेकिन शहर जाकर कोई कार्य करने की उसकी इच्छा न होने से वह भी गाँव में ही रहकर ज़मीन आदि के कार्य सम्भालने लगा था।

एक तो वह छोटी बहू फिर ग़रीब घर से बिना दहेज आई हुई होने से सेवा कार्य की अपेक्षा उस से कुछ अधिक थी। अब उसे भी अन्य बहुओं की तरह घर में खप जाना चाहिए था। ऐसा नहीं कि उसने प्रयास नहीं किया लेकिन साड़ी पहनना व जेठ और ससुर के कारण हर पल घूँघट निकाल कर काम करना उसके बस से बाहर था। जब तब सिर से पल्लू हट जाता और सास ही नहीं जेठानियाँ तक इस बात पर बुरा भला कहतीं। उसे यह समझ में आ गया था कि उसकी शिक्षा से भी अधिक उसकी सुन्दरता जिठानियों को आतंकित करती है और वे बिल्कुल नहीं चाहतीं कि उनके पतियों से उसका सामना होता रहे।


रोज़ उस पर नए आरोप लगते और किसी न किसी ग़ल्ती की शिकायत उसके पति से होती। प्रताड़ना लगभग हर दिन की बात हो गई। मायके जाने के नाम पर कहा जाता कि जब जाना तो सदा के लिए जाना और यदि वापिस आना हो तो बड़ी बहुओं की तरह नगद राशि सहित आना। धीरे धीरे चिल्लाने और आरोप लगाने के अतिरिक्त पति हरीश तिवारी उस पर हाथ भी उठाने लगाथा। कभी उसके हाथ में जो कुछ होता वही फेंक कर मार देता। यह स्थिति तब और गम्भीर हो जाती जब वह दोस्तों के साथ शराब पी कर घर आता और कोई न कोई सुरेखा की शिकायत उस से कर देता।

अन्तत: लगभग एक वर्ष पूर्व उस दिन पिटने और धक्के देकर निकाले जाने के बाद वह अकेली एक छोटा सा बैग लिए गाँव से कानपुर और वहाँ से रीवा के लिए निकल पड़ी थी।

बीच में ट्रेन किसी स्टेशन पर रुकती तो किसी यात्री के उतरने या चढ़ने की हलचल होती। वह चौंक उठती, फिर आँख बन्द कर लेती और गुज़रे समय के दृश्य निगाहों से गुज़रने लगते।

रीवा क़स्बे की बाहरी सीमा पर बसे उस छोटे से टोले के मन्दिर के पुजारी पंडित गीताप्रसाद मिश्रा के कुछ पक्के कुछ कच्चे जिस घर में चौबीस साल पहले वह पैदा हुई थी और इक्कीस साल पली थी, वह भी जैसे अब उसके लिए बिल्कुल अजनबी हो चुका था।

जहाँ एक बेटी भी बोझ हो वहाँ तीसरी बेटी के रूप में उसके जन्म पर कैसा स्वागत हुआ होगा उसे पता नहीं लेकिन उस घुटे माहौल में सरकारी स्कूल में पढ़ने जाना उसे याद है जो किसी चमत्कार से कम न था। परिवार में दादी, माँ, दो बड़ी बहिनें और एक छोटा भाई थे। देखते देखते उसका हायर सेकेन्ड्री हो गया। तब तक दोनों बहिनों के विवाह इलाहाबाद उत्तर प्रदेश के आसपास ग्रामीण इलाक़ों में खेती किसानी वाले घरों में हो गए थे और अब पिता उसके रिश्ते की तलाश में लगे हुए थे। लड़की देखने वाले जब तब आते और उसके विरोध करने के बावजूद उनके सामने पारम्परिक रूप से चाय नाश्ते की ट्रे ले कर जाना होता और बाद में दहेज की राशि के ऊपर बात टूट जाती। इस बीच दादी बेटियों के जन्म को कोसते और उनके कारण बेटे की परेशानी का बखान करते करते स्वर्गवासी हो गईं।

हायर सेकेन्ड्री रिज़ल्ट के बाद जब उसकी सहेलियों ने कालिज में एडमीशन लिया तब वह ज़िद पर अड़ गई कि वह भी शिक्षा जारी रखेगी और अन्तत: उसका एडमीशन कालिज में इस शर्त के साथ हो गया कि रिश्ता देखने वालों के आने पर वह सहयोग करेगी, यदि ठीक ठाक घर मिल गया तब रिश्ता तय हो जाएगा और स्नातक होते ही उसका विवाह कर दिया जाएगा। और यही हुआ पूर्व से ही क़र्ज़ से घिरे पंडित जी की यह तीसरी बेटी नाम मात्र के दहेज के साथ कानपुर के ग्रामीण इलाक़े के संयुक्त परिवार के स्नातक वर के साथ विवाह करके विदा कर दी गई थी।


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एक वर्ष पूर्व पति के घर से निकल कर पिता के घर भूखी प्यासी और निढाल पहुँचने पर पहले तो उसके माँ, पिता और भाई तीनों आश्चर्यचकित और चिन्तित हुए फिर दो चार दिन उसे वापिस लौट जाने के लिए समझाया गया और उसके वापिस न जाने के निश्चय ने सब की निगाहों में अवहेलना व तिरस्कार भर दिया जो जब तब व्यंग्य बाणों से भी व्यक्त होने लगा, लेकिन किसी के भी समझाने पर वह वापिस जाने को तैयार नहीं हुई।

वह प्राय: सोचती "मैं ऐसी ज़िन्दगी जीने के लिए पैदा नहीं हुई थी। मैं ख़ुद को इस तरह बर्बाद नहीं कर सकती।"

रोज़गार समाचार पेपर में पुलिस सब इंस्पेक्टर की पोस्ट निकलीं तो उसने फ़ार्म भर दिया। चार महीने पढ़ाई करके परीक्षा भी दे दी। मध्य प्रदेश लोक सेवा आयोग राज्य सेवा परीक्षा का फ़ार्म भी उसने भर दिया।

घर में उसकी कोई इज़्ज़त नहीं बची थी। माता पिता और भाई की निगाहें हर पल जैसे उसे धिक्कार रही थी। बहिनों की ससुराल तक बात पहुँच जाने से उनके मायके आने तक पर लगभग पाबन्दी लग गई थी। एक बहिन केवल उसे ससुराल जाने की समझाइश देने के लिए आ कर चली गई थी। बचपन की सहेलियाँ शादी हो कर कहीं और जा चुकी थीं, जो थीं उनके अभिभावक उसका उनसे मिलना पसन्द नहीं करते थे।

एक वर्ष का यह संघर्ष हर दिन उसे पहले से अधिक अकेला और तोड़ देने वाला हो गया था। तभी सब इंस्पेक्टर की लिखित परीक्षा में उसके पास हो जाने का पत्र आ गया । अब उसे फ़िज़िकल व साक्षात्कार की तैयारी करनी थी। बात उसके सम्मान की थी जो कभी सवेरे न उठ पाने पर रोज़ डाँट खाती थी अब सर्दी के मौसम में पाँच बजे सुबह पुलिस लाइन के मैदान में दौड़ रही होती थी। जहाँ आते जाते हुए लोगों की निगाहें और जुमले उसे बेधते रहते थे। वह जानती थी कि लोग उसे ढीठ और बेशर्म समझते थे।

बाबूलाल रजक नाम का एक साँवला और सामान्य सा लड़का भी पुलिस लाइन में दौड़ने और शारीरिक परीक्षा की तैयारी के लिए प्रतिदिन आता था। धीरे धीरे उनमें आपस में बातचीत का सिलसिला हुआ। इन्टरव्यू के लिए क्या क्या पढ़ना है वे दोनों वहीं बेंच पर बैठ कर इसकी चर्चा करते रहते। लोक सेवा आयोग की पूर्व परीक्षा भी उन दोनों ने पास कर ली थी अब मुख्य परीक्षा की पढ़ाई की भी बातें होती रहतीं और वे किताबें और नोट्स लिए वहाँ बेंच पर घन्टों बैठ कर किसी की परवाह न कर चर्चा करते रहते।


लोगों को बातें बनाने का मौक़ा मिल गया, देखते ही देखते हर गली मौहल्ले में पंडित जी की ससुराल से झगड़ कर आई बेटी सुरेखा मिश्रा और निचली मानी जाने वाली जाति के बाबूलाल रजक का नाम चर्चा का विषय हो गया। उसका बाहर निकलना ही नहीं, घर में रहना भी मुश्किल हो गया। साक्षात्कार और शारीरिक परीक्षा के बाद उसका और बाबूलाल रजक दोनों का चयन पुलिस उपनिरीक्षक के पद पर हो जाने की सूचना ने घर में तनाव को और बढ़ा दिया। पिता ने उसको तत्काल ससुराल लौट जाने का आदेश दे दिया।

उधर अचानक एक दिन उसकी ससुराल से उसका पति उसे लिवा लाने आ गया। माँ पिता के तो जैसे मन की मुराद मिल गई । जी जान से दामाद की सेवा में लग गए। जबकि उसने अपने पति से न मिलने की अपनी मर्ज़ी और किसी भी हालत में वापिस न जाने की बात पहले ही स्पष्ट कर दी थी। बात बढ़ती चली गई, बहुत हँगामा हुआ। पति की धमकियाँ थीं, माथे पर नीच ज़ात लड़के से सम्बन्धों का आरोप था, माँ बाप का क्रोध था अन्तत: पति तो वापिस चला गया और पिता ने साफ़ शब्दों में उसे घर से निकल जाने को कह दिया कि बहुत बदनामी हो चुकी थी।

उसके पास कोई रास्ता नहीं था। उसने बाबूलाल को फ़ोन लगाया तो पता चला वह मध्य प्रदेश लोक सेवा आयोग की मुख्य परीक्षा की तैयारी के लिए शाम की ट्रेन से भोपाल जा रहा था। उसे आरक्षित वर्ग का होने से शासकीय संस्था में फ़्री कोचिंग की सुविधा मिल गई थी। पुलिस उपनिरीक्षक पद ज्वाइन करने के आदेश के आने में अभी समय था।


बाबूलाल से उसने अपना टिकिट लेने का भी अनुरोध किया और शाम को बिना किसी से कुछ कहे सुने दो बैग उठा कर स्टेशन आ गई।

नींद न आनी थी न आई और सुबह साढ़े पाँच बजे हल्के अँधेरे उजाले में ट्रेन भोपाल के हबीब गंज (अब रानी कमलापति) स्टेशन पहुँच गई है। दोनों को ही आगे की योजना के लिए बात करनी थी, दिन निकलने का इन्तेज़ार भी करना था। इसके लिए प्रतीक्षालय से बेहतर कुछ नहीं था।


दोनों ने हाथ मुँह धोया और प्लेटफ़ार्म पर चाय पीते हुए बाबूलाल ने कहा-" मेरा शासकीय परीक्षा पूर्व प्रशिक्षण केन्द्र में चयन हो चुका है वहाँ जगह मिल जाएगी, रू.12500/- प्रतिमाह राशि भी प्राप्त होने लगेगी, लेकिन तुम्हारे रहने की व्यवस्था तो किसी गर्ल्स हास्टल में करनी ठीक रहेगी।"


सुरेखा ने कहा-" हास्टल नेट पर देख लेते हैं, मेरे पास खाते में कुल पाँच हज़ार रुपए हैं, जो कबसे छिपा रखे हैं। दो हज़ार नगद हैं। सस्ता हास्टल ही देखना होगा। उम्मीद है दो महीने में अपाइन्टमेन्ट लैटर आ जाएगा और सब इंस्पेक्टर ट्रेनिंग ज्वाइन करने पर रहने की समस्या समाप्त हो जाएगी।"


" हम्म, चलो नेट पर देखो" बाबूलाल ने सहमति दी।


नेट पर ढूँढने पर शासकीय परीक्षा पूर्व प्रशिक्षण केन्द्र के सबसे समीप गर्ल्स हास्टल का पता व फ़ोन नम्बर मिला, जहाँ बात की गई।

दस बजे के लगभग वे गर्ल्स हास्टल के काउन्टर पर थे, जहाँ फ़ीस जमा करने के साथ ही फ़ार्म भी भरना था । फ़ार्म में सुरेखा ने अपने विवाहित होने की बात इसलिए छिपा ली कि पति के नाम के साथ पता भी देना होता जो वह नहीं चाहती है। उसने पिता का नाम और पता फ़ार्म में भर दिया । इस तरह गर्ल्स हास्टल में एक थ्री सीटर रूम में उसको जगह मिल गई है।


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गर्ल्स हास्टल में एक सप्ताह बीतते उसके विरुद्ध कई शिकायतें हो गईं और उसे हास्टल संचालिका के समक्ष पेश होना पड़ा।


"सुरेखा तुम्हारी रूम मेट्स शिकायत कर रही हैं कि तुम कमरे की लाइट रात भर जलाती हो वे सो नहीं पाती हैं"


" सही है मैम, मुझे पी एस सी देना है, पढ़ाई करती हूँ, मैं यहाँ इसीलिए आई हूँ। कमरे के अलावा कोई जगह हो तो रात में मैं वहाँ पढ़ लूँगी।"


"कामन रूम में बैठ कर पढ़िए"


"ओ के मैम"


और वह रात रात भर कामन रूम में बैठ कर पढ़ती। दिन में लायब्रेरी जाती, वहाँ पढ़ती। पास ही चलने वाली प्राइवेट सिविल सर्विस की कोचिंग कक्षा के सर से उसने रिक्वेस्ट की तो उसे कभी कभी समस्याओं के समाधान के लिए उनका फ़्री मार्गदर्शन भी मिलने लगा।


कुछ दिन बाद अगली शिकायत के चलते वह फिर हास्टल संचालिका के सामने बैठी थी।


"सुरेखा, हास्टल के गेट पर कौन लड़का रोज़ तुम्हें लेने और छोड़ने आता है? लड़कों के साथ घूमना नहीं चलेगा मुझे तुम्हारे पिता को बताना होगा।"


"मैम मैं लायब्रेरी जाती हूँ वह मेरा दोस्त है वह भी पी एस सी की तैयार कर रहा है। वह किसी की स्कूटर ले कर आता है जिससे हम दोनों को जाने आने में सुविधा हो जाती है। पिता को न कहें वे ग़लत समझेंगे।"


"फिर तो तुम्हें उसके साथ जाना छोड़ना होगा"


"ठीक है मैम"


और अब बाबूलाल हास्टल से काफ़ी दूर ख़ड़ा होता जहाँ तक वह पैदल जाती, फिर स्कूटर से दोनों लायब्रेरी जाते।

साथ की लड़कियों से न वह दोस्ती करती न बात करती, लेकिन अपनी पढ़ाई के प्रति गम्भीरता के चलते वह हास्टल संचालिका की प्रिय हो गई। मेहनत, सुरक्षा की आश्वस्ति, स्वास्थ्य, और सौन्दर्य के मेल से बनी उसकी गम्भीर छवि से प्राय: अन्य लड़कियों को ईर्ष्या होती। उन्होंने जल्द ही खोजबीन कर यह बात संचालिका तक पहुँचा दी कि वह शादीशुदा है और उसने यह तथ्य हास्टल फ़ार्म में नहीं लिखा है और उसका उसके पति से झगड़ा चल रहा है, जिन्हें बिना बताए वह यहाँ रह रही है।


यह एक गम्भीर बात थी और वह फिर जवाब देने के लिए संचालिका के सामने बैठी थी, जिन्हें उसने बहुत धैर्य से अपनी पूरी जीवन यात्रा बिना कुछ छिपाए सुना दी और पी एस सी परीक्षा होने तक केवल एक माह उसे यहाँ रहने की अनुमति देने की अनुनय की। उसकी पढ़ाई के प्रति लगन से प्रभावित संचालिका ने उसे अनुमति दे दी। दूसरे और तीसरे महीने की हास्टल फ़ीस बाबूलाल के सौजन्य से जमा कर दी गई थी। बाबूलाल से तो किताबों, मैग्ज़ीन्स और अन्य छोटे मोटे ख़र्चों के लिए भी वह उधार लेती रही थी।


पी एस सी परीक्षा समाप्त होने के कुछ दिन बाद पुलिस उपनिरीक्षक के पद पर ज्वाइनिंग के लिए आदेश आ गया और तीन महीने हास्टल में रहने के बाद वह हास्टल छोड़ कर ट्रेनिंग के लिए पुलिस प्रशिक्षण केन्द्र आ गई, जहाँ बाबूलाल ने भी ज्वाइन कर लिया था।


अन्तत: वह जीत गई है। छब्बीस साल की उम्र में उसके पास एक ठीक ठाक नौकरी है और जिसके कारण आत्मविश्वास भी है।


पति से तलाक़ लेने के लिए उसने तलाक़ का आवेदन लगा दिया था। तलाक़ मिल गई और उसने सुना कि शीघ्र ही उसके पति ने दूसरी शादी भी कर ली है।


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24 घन्टे का बहुत ही व्यस्त शैड्यूल होते हुए भी सुरेखा ख़ुश है। सुबह पाँच बजे से पीटी, परेड, विभिन्न व्यायाम और शारीरिक गतिविधियों को नियमित करते हुए वह फूल की तरह खिल उठी है।


नाश्ते आदि से निपट कर दस बजे से कक्षा में लेक्चर्स होते।


बाबूलाल रजक और सुरेखा मिश्रा की दोस्ती साथी प्रशिक्षुओं के बीच भी जानी हुई बात है, जो प्राय: शादी के बारे में प्रश्न करते और सुरेखा सोच में डूब जाती। तभी एक दिन बाबूलाल ने सीधे उससे प्रश्न कर लिया-" सुरेखा यदि मैं चाहूँ तो क्या तुम मुझसे शादी कर सकती हो? "


सुरेखा चुप रह गई और इस प्रश्न का उत्तर सोच कर देने पर बात टल गई।


सुरेखा की तलाक़ का मामला निपट जाने के बाद से बाबूलाल के बर्ताव में भी अन्तर आ चुका है। वह अब अधिकारपूर्वक उससे बात करता है।


सुरेखा को सोचते कई दिन निकल गए। बाबूलाल में शारीरिक आकर्षण जैसा तो कुछ न था वह सांवले रंग का दुबला पतला शान्त प्रवृत्ति का युवक था जो बहुत कम बोलता था। पढ़ाई लिखाई में मेहनती था लेकिन बौद्धिक स्तर सामान्य था। उसकी सबसे बड़ी अच्छाई यह थी कि उसने बहुत ही कठिन समय में सुरेखा को सहायता और संरक्षण दिया था और इस पूरी अवधि में किसी भी प्रकार की कोई चारित्रिक दुर्बलता उसमें देखने में नहीं आई थी। कभी वह उसके शब्दों को सोचती कि उसने खुलकर क्यों नहीं कहा कि वह उससे प्रेम करता है, यह क्या बात हुई कि यदि मैं चाहूँ तब क्या तुम मुझसे शादी करोगी? उसने स्वयं से पूछा कि क्या वह उस से प्रेम करती है तब लगा कि वह उसे केवल दोस्त समझती रही है, प्रेम तो शायद यह नहीं है। इस जान पहचान को और दोनों के नाम एक दूसरे के साथ लोगों की ज़ुबान पर आते लगभग एक वर्ष हो रहा है और उसे कुछ न कुछ निर्णय तो अब लेना है।


आख़िर उसने सहमति दे दी और शादी के रजिस्ट्रेशन का आवेदन ज़िला मजिस्ट्रेट के यहाँ लगा दिया गया।


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शादी के कुछ दिन बाद मध्य प्रदेश लोक सेवा आयोग की मुख्य परीक्षा का परिणााम आ गया जिसमें सुरेखा पास हो गई परन्तु बाबूलाल पास नहीं हो सका। इन्टरव्यू हुआ और सुरेखा का चयन उप पुलिस अधीक्षक पद के लिए हो गया। परिणाम आने के दो महीने बाद उसने प्रशासन अकादमी भोपाल में मूलभूत प्रशिक्षण के लिए ज्वाइन कर लिया।


बाबूलाल के लिए फ़ेल हो जाना एक बड़ा झटका हो गया । यद्यपि उसने पुन: परीक्षा के लिए फ़ार्म भर दिया था और प्रशिक्षण से जितना समय बचता वह पढ़ने में लगाने की कोशिश करता फिर भी एक चिडचिड़ापन उसका स्वभाव बनता जा रहा था।

दोनों के प्रशिक्षण केन्द्र अब अलग अलग थे और प्रशासन अकादमी भोपाल के बाद सुरेखा जवाहरलाल नहरू पुलिस अकादमी सागर में प्रशिक्षण रत थी।

छ: वर्ष बीत गए। पुलिस हेड क्वार्टर्स भोपाल और सेक्रेट्रिएट में कुछ शासकीय कार्यों से वह एक सप्ताह के लिए भोपाल आई है। पुलिस मैस होते हुए भी उसका मन अपने पुराने हास्टल में ठहरने का है। उसने रास्ते से ही अपने आने की सूचना गर्ल्स हास्टल संचालिका को दे दी थी। जगह मिल गई है। हास्टल पहुँच कर नहा धो कर तैयार हो कर वह पी एच क्यू निकल गई ।


शाम को लौट कर उसने हास्टल के तीनों फ़लोर्स पर चक्कर लगाया। मैस में खाना खाने के बाद वह छत पर आ गई। यहाँ लगे झूले पर अब भी लड़कियाँ झूल रही हैं । तीसरी मंज़िल तक आने वाले पेड़ कुछ और घने और लम्बे हो गए हैं। कुछ नई सुविधाएँ हो जाने से हास्टल पहले से और बेहतर हो गया है। यही वह जगह है जहाँ से उसने सफलता की यात्रा शुरू की थी।

कुछ देर में वहाँ बिछी दो कुर्सियाँ पर वह और हास्टल संचालिका बैठी हैं। संचालिका ने पूछा है-
"बाबूलाल रजक कैसे हैं? "


"पता नहीं मैम"


"क्यों? "


"मैम हमारी शादी ट्रेनिंग के बाद साथ रहने पर दो साल भी नहीं चल सकी।"


"ऐसा क्यों हुआ? "


"मैम ये जो पुरुष का अहम् होता है न, इसने हमारे रिश्ते को चलने ही नहीं दिया। मेरा डी एस पी हो जाना, मेरा अपने नाम सुरेखा मिश्रा के साथ रजक सरनेम न लगाना, एक साल साथ साथ पोस्टिंग होने पर मेरा बड़े अफ़सरों के साथ टूर गश्त आदि पर जाना, मीटिंग्स आदि में प्रोटोकाल अनुसार बैठक व्यवस्था आदि हर बात उन्हें व्यथित करती थी। जाति और रूप रंग का ताना तो वे शुरू से देते रहे थे कि मुझे इसका घमन्ड है, जबकि मैंने ऐसा कभी नहीं सोचा और उन्हें सामान्य रखने की बहुत कोशिश की पर अन्तत: आपसी सहमति से हमने तलाक़ ले लिया या ये कहें कि मैंने उन्हें उस घुटन से आज़ाद कर दिया जो उन्हें सहज नहीं रहने दे रही थी। बाद में उनका उन्हीं की जाति में उनके माता पिता की पसन्द से विवाह हो गया और सुना है अब एक बेटा भी है।"


संचालिका ने पूछा-"अब तुम्हारा क्या इरादा है?


सुरेखा हँस दी-" मेरा? नहीं मैम कोई इरादा नहीं है। औरतों के लिए माफ़ी नहीं होती, ये दुनिया ऐसी ही है। माता पिता तो रहे ही नहीं। जब तक रहे तब तक भी फिर मुझसे कभी नहीं मिले और बहिन भाई अपनी अपनी दुनिया में खो गए।आपके सिवा दुनिया में मेरा कोई नहीं है और नौकरी को देखूँ तो इसके होते लगता है सारी दुनिया मेरी है। मेरी पोस्टिंग के ज़िले में एक सुन्दर सरकारी मकान मुझे एलाट है सरकारी जीप है, एक सब डिवीज़न की इंचार्ज हूँ, बहुत मन से ड्यूटी करती हूँ, आत्मसम्मान से जीती हूँ और कुछ नहीं चाहिए। बस कभी भोपाल आने पर आपके पास आने की अनुमति चाहती हूँ। "


हास्टल संचालिका ने दोनों हाथ बढ़ा कर उसके हाथ अपने हाथों में थाम लिए हैं और अपनत्व की यह हरारत दोनों ने महसूस की है।

समाप्त

Writte By: Shameem Zahra

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