दूर के ढोल सुहाने
बब्बू वाल्मीकि काॅलर खड़ा किये हुए तहसील पहुंचा था। लंबी-लंबी चार लाईनें लगी हुई थीं। यह लाईनें एरियावाईज थीं.. मुल्लों की लाईन अलग थी उनके घेट्टो के हिसाब से और उसके अपने इलाके की लाईन अलग लगी थी जहाँ सब 'अपने' थे।
दिख तो सभी रहे थे परेशान हाल, अपने भविष्य को लेकर चिंतित, कशमकश में जूझते.. लेकिन उसे मुल्लों की परेशानी में अपार सुख की अनुभूति हुई। उसे पता था कि 'उसके लोगों' की परेशानी तो अस्थाई है लेकिन इन मुल्लों का दुख तो बढ़ना ही है। यह एनआरसी के पीछे लगी लाईन थी जहाँ सभी को अपनी नागरिकता साबित करनी थी। नोटबंदी के बाद एक बार फिर पूरा देश लाईन में लगा था।
वह 'सेफ जोन' में था तो सरकार के इस फैसले के साथ मजबूती से खड़ा था.. उसकी बीवी सरकारी सफाई कर्मचारी थी तो पैसे की चिंता नहीं थी। खुद की कभी रेडीमेड कपड़ों की छोटी सी दुकान थी लेकिन अर्थव्यवस्था का भट्ठा बैठने के बाद ठिकाने लग चुकी थी, मगर कोई बात नहीं.. राष्ट्रहित में इतना बलिदान तो चलता है। उसके पास उसका फोन था, फोन में व्हाट्सएप था तो भला किस बात की चिंता? हर दिन एक नया गौरव उसे अभिभूत कर देता था। ढहती इकाॅनामी, बिकते पब्लिक सेक्टर, जाती हुई नौकरियां, बंद होते कारोबार, कंगाल होते बैंक, बढ़ती बेरोजगारी और महंगी होती हर चीज.. कुछ भी उसे परेशान न करता था। बीवी तो ला ही रही थी सरकारी पैसा.. जहाँ चार पैसे खर्च होते थे, वहां अब आठ खर्च हो रहे थे लेकिन चार तो फिर भी बच रहे थे तो क्या चिंता थी। हालांकि तीन महीने से बीवी की सेलरी भी रुकी हुई थी लेकिन देर सवेर मिल ही जानी थी।
जिस दिन से एनआरसी की घोषणा हुई थी, उसकी खुशी का ठिकाना न रहा था। अब सारे मुल्लों को भगाया जायेगा। अपनी सारी परेशानियों को भूल कर थम चुका देश रोज लाईनों में लग रहा था। हफ्ता भर इन परेशान हाल लोगों की तकलीफ से आनंदित होने के बाद आज वह आया था खुद के सब कागज ले कर। तहसील में ही कैंप लगाये गये थे।
दिन बीत गया टांगे तोड़ते.. बीच में कुछ दाढ़ी टोपी वाले भी आये थे लाईन में लगे लोगों से खाना पानी पूछने, सिख बिरादरी भी और भगवा टोली भी.. लेकिन उसने सिर्फ 'अपनों' से खाना पानी लिया था। रात वहीं टिकासन डाले गुजरी और अगले दिन शाम होते-होते नंबर आ ही गया।
अंदर केबिन में मिसिर जी यह मोटा रजिस्टर लिये बैठे थे। उन्होंने चश्मा सरका कर उसे देखा लेकिन आंखों में पहचान के भाव न उभरे जबकि वह पड़ोस के मुहल्ले के ही थे और वह उन्हें अच्छे से जानता था। फौरन "राम राम मिसिर बाबू" की हांक लगाई थी लेकिन मिसिर जी के ठंडे रिस्पांस ने उसका उत्साह हल्का कर दिया।
"कागज लाये हो?" उन्होंने बड़े रूखे से अंदाज में पूछा।
"जी मिसिर बाबू.. यह लीजिये, हमारा वोटर कार्ड, आधार कार्ड, पासपोर्ट, घर की रजिस्ट्री, बैंक पासबुक.. सबकुछ लाये हैं।" उसने हाथ में थमी झिल्ली से सब चीजें निकाल कर टेबल पर रखते हुए कहा।
"हम्म.. मगर यह सब तो पिछले चार पांच साल का है। बर्थडेट भी तुम्हारी सत्तासी की है। कुछ ऐसा लाओ जिससे यह साबित हो कि तुम 1971 से पहले से भारत में रहते हो।"
"अरे कैसी बात करते हैं मिसिर जी, हम पैदा ही सत्तासी में हुए तो इकहत्तर से पहले कैसे रहेंगे भारत में?"
"अरे मूर्ख.. आस्मान से तो नहीं टपका होगा सत्तासी में। मां बाप ने पैदा किया होगा तो वे तो रहते होंगे न। उनका ही दो। कटऑफ का मतलब नहीं समझते का बुढ़बक। अगर आज की तारीख से ही नागरिकता साबित हो सकती तो फिर 1971 का कटऑफ क्यों दिया जाता? साबित ही यह करना है कि तुम या तुम्हारा परिवार 1971 के पहले से यहाँ रहते हो।"
"जी मिसिर जी.. नाराज न होइये, यह लीजिये.. अम्मा के तो कोई कागज हैं नहीं लेकिन बप्पा की डाकखाने की पासबुक है।"
"लेकिन यह तो जमना लाल की पासबुक है और तुम्हारे कागजों में तो जमुनालाल लिखा है पिता का नाम।"
"हाँ तो एक ही बात तो है।" बब्बू दबे स्वर में बोला।
"एक कैसे.. पूरी की पूरी "उ" की मात्रा का फर्क है।" मिसिर जी भड़क गये।
"अरे आप तो जानते हैं मिसिर जी कि अपने यहाँ यह सब लिखापढ़ी के काम ठेके पे नौसिखिये लौंडों से कराये जाते हैं। बप्पा का नाम तो जमना ही था लेकिन हमारे कागज में जमुना चढ़ा तो वही चढ़ता चला गया।"
"तो पिताजी का एक ही कागज था क्या.. कोई और कागज ले आओ जिसमें उनका नाम जमुना हो या अपना कोई कागज ले आओ जिसमें पिता का नाम जमना हो या उन्हें ही ले आओ कि सामने आ के कह दें कि तुम उनके बेटे हो।"
"अरे कमाल करते हैं मिसिर जी। पड़ोस के मुहल्ले के हो कर भी ऐसी बात कर रहे हैं। पिताजी को मरे दस साल हो गये। उनके कागज पत्तर की जरूरत ही कहाँ थी, जो थे सब खो बिसर गये.. हमारा भी जो है बस यही है।"
"देखो भय्या.. जो नियम है वह सरकार ने बनाये हैं और सबके लिये हैं। तुम्हें यह साबित नहीं करना कि तुम आज भारत के नागरिक हो, तुम्हें यह साबित करना है कि तुम फलानी डेट से पहले भारतीय थे या नहीं। उसके लिये या तो बाप दादा को लाओ उनके कागज समेत या जमीन जायदाद के पेपर लाओ जिससे पता चले कि यहाँ पहले से रहते हो।"
"ऐसा तो कुछ नहीं है हमारे पास।" बब्बू एकदम रुआंसा हो गया, "हमेशा गरीबी में जिंदगी कटी है। कहाँ कभी कागज पत्तुर में पड़े हैं। वो तो बीवी की नौकरी लग गयी नगर पालिका में तो गुजर बसर हो रही है।"
"तो हम क्या करें..?"
"देख लीजिये कुछ खर्चा पानी.."
"चुप-चुप.. हमें पैसे से खरीदने की कोशिश करता है। कोई वैलिड कागज हो तो दिखा वर्ना भाग यहाँ से।"
"अच्छा.. मिसिर जी खफा न होइये। अगर हमारे कागज से हम भारतीय नहीं बन पा रहे तो ऐसा कीजिये कि हमको पाकिस्तानी, बांग्लादेशी, अफगानिस्तानी मान के ही रजिस्टर कर दीजिये।"
"हाँ यह हो सकता है.. लाओ कोई ऐसा सबूत दो जिससे पता चले कि तुम पाकिस्तान, बांग्लादेश या अफगानिस्तान के रहने वाले हो?"
"हें.. अब यह सबूत कहाँ से लायें जब हम वहां के हइये नहीं। शाह जी तो बोले थे कि 'हमारे' अगर कागज नहीं भी होंगे तो सरकार प्रबंध करेगी।"
"अबे सरकार चूतिया है क्या कि कोई भी सामने आ कर खड़ा हो जाये कि वह पाकिस्तान, बांग्लादेश या अफगानिस्तान से आया शरणार्थी है और सरकार उसके कागज बनाती फिरे। ऐसे तो दुनिया भर के शरणार्थियों का ठिकाना बन जायेगा देश। या तो उन देशों में से किसी के होने का सबूत दो या 71 से पहले के भारतीय होने का। इसके सिवा कुछ भी एक्सेप्टेबल नहीं।"
"हमारे पास तो कुछ नहीं मिसिर जी.. कोई उपाय बताओ आप ही।" बब्बू लगभग रो पड़ा।
"जा के कागज में पिता का नाम सही करवा ले और कोई रास्ता नहीं।"
"अरे मिसिर जी वहां भी तो कोई तिवारी, शुक्ला, पांडे, दूबे ही बैठा होगा.. सारी लिखापढ़ी तो आप ही लोगों ने ले रखी है। आप एक "उ" के पीछे काम चलाने को तैयार नहीं तो वह भी कोई "इ-ए" निकाल लेगा। हम खूब समझ रहे हैं.. यह आप लोगों की साजिश हमें सिस्टम से निकाल बाहर फेंकने की।" झुंझलाहट में वह आक्रोशित हो गया।
"अबे भग यहाँ से पाजी.. हमको इल्जाम लगाता है.. दुष्ट।" मिसिर जी हत्थे से उखड़ गये।
"ऐसा मत करो मिसिर जी.. आपके पड़ोस के मुहल्ले के हैं। आप तो जानते हैं हमको।"
"भाग यहाँ से कमबखत।" मिसिर जी ने नफरत से मुंह सिकोड़ते हुए कहा।
वह पिटा सा मुंह लिये बाहर निकला। भीतर गया था तो छाती चौड़ी कर के, निकला तो किसी से आंख मिलाते नहीं बन रहा था।
बड़ी मुश्किल से वह रात गुजरी। अगली सुबह मन मसोस कर वहां पहुंचा जहाँ कागजों में त्रुटि सुधार के लिये कैंप लगे थे लेकिन चार किलोमीटर लंबी लाईनें देख कर पसीने छूट गये। इतना अंदाजा तो उसे भी था कि भारत में जैसी कागजी लिखा पढ़ी होती है, उसमें इतनी त्रुटियाँ होती हैं कि यह लाईनें तो लगनी ही थीं। मरता क्या न करता.. मन मसोस कर लाईन में लग गया। सोचा था कल परसों तक नम्बर आ ही जायेगा लेकिन पता चला कि वर्क लोड के चलते सर्वर ही डाऊन था.. थोड़ा चलता था फिर बैठ जाता था।
सात दिन हो गये लाईन लगे.. वहीं खाना पीना, लाईन छोड़ कर हगना मूतना, रात को नंबर ले कर घर जा कर सोना और सुबह फिर लाईन लग जाना। सात दिन बाद नंबर आ पाया.. सामने टेबल पर बैठे बाबू के ललाट पर यह लंबा सा तिलक देख कर उसका कलेजा पहले ही बैठ गया। खिसियाये अंदाज में उसने नमस्ते की पर कोई जवाब न मिला।
"बाबूजी.. हमारे कागजों में पिता का नाम जमुनालाल चढ़ गया है जबकि उनका नाम जमनालाल था.. वो सही कर दीजिये तो बड़ी किरपा होगी।"
"इस बात का कोई सबूत कि तुम्हारे पिता जमनालाल थे?" बाबू ने एकदम सपाट लहजे में कहा।
"जी अब वो कहाँ से लायें.. माहतारी बप्पा तो चल बसे और अम्मा का तो कोई कागज था भी नहीं। बप्पा की डाकखाने की पासबुक है बस।"
"यह पासबुक किसी जमनालाल की है, यह जमनालाल तुम्हारे पिता थे यह कैसे साबित हो?"
"कहिये तो हम किसी रिश्तेदार या जानने वाले को ले आयें.. वो बता देगा कि हम जमनालाल के बिटवा हैं।"
"रिश्तेदार यह बताने के लिये कैसे एलिजिबल हुआ कि यह पासबुक उसी जमनालाल की है जिसके तुम बिटवा हो?"
उसे जवाब न सूझा।
"या तो पोस्ट ऑफिस से समबन्धित कोई आदमी ले आओ जो कह दे कि यह पासबुक तुम्हारे पिताजी की है.. या फिर कोई ऐसा कागज ले आओ जिसमें तुम्हारा भी नाम हो और जमनालाल का भी। तो उसी बेस पर तुम्हारे आधार में नाम संशोधन कर दें।"
"नहीं है साहब.. होता तो यहाँ न आते, उसी से काम चल जाता लेकिन मानवीय आधार पर आप इतना समझ तो सकते हैं कि जमनालाल और जमुनालाल एक ही होता है।"
"एक कैसे होता है भई, पूरी की पूरी 'उ' की मात्रा गायब है।"
"समझ सकते हैं साहब.. कोई आपकी बिरादरी वाले होते तो चमनलाल को भी जमनालाल मान लेते लेकिन हम हैं तो 'उ' की मात्रा भी परबत हो गयी। एक बात पूछे साहब.. हम तो इतने कागज होते हुए भी अनागरिक हो गये लेकिन उनका क्या जो दसियों साल से शहरों में जा बसे मजूरी को, या बाढ़ सुखाड़, भूकम्प में सबकुछ लुटा पिटा के इधर उधर हुए या सदियों से पहाड़ों-जंगलों में रहते आदिवासी। वे तो यह भी नहीं रखते।"
"हम्म.. सवाल तब पूछने थे जब पूछने का टाईम था। अब बस जवाब देने हैं तुम्हें। कोई सबूत हो तो पेश करो, वर्ना घर जाओ।"
वह मायूस हताश लौट आया.. रात की नींद उड़ गयी, दिन का चैन उड़ गया। एक हफ्ता भी न गुजरा होगा कि चौकी से हाजिरी का आदेश आया और वहां पहुंचा तो पता चला कि मिसिर जी को उसने जो फार्म दिया था वह उन्होंने अधूरा ही आगे सरका दिया था और उसकी नागरिकता खारिज हो गयी थी। अब उसे डिटेंशन कैम्प जाना पड़ेगा।
वह भागने लगा लेकिन कुछ मजबूत हाथों ने पकड़ लिया उसे और उसके चारों हाथ-पांव से खींच कर हवा में टांग लिया गया.. और उसी बेरहमी से ले जाया जाने लगा किसी काल कोठरी की तरफ। वह बुरी तरह तड़पने लगा और तड़पते हुए बिस्तर से नीचे आ गिरा।
गिरा तो नींद टूट गयी। दिन चढ़ आया था और शरीर पसीने से लथपथ था। बीवी उसे सोता छोड़ कर काम पर जा चुकी थी। बाहर कोई जुलूस निकल रहा था जिसका शोर उसके कानों में पड़ रहा था। उसने बाहर निकल कर देखा.. वही एनआरसी के खिलाफ नारे लगाता जुलूस था जिसे देख के उसे नफरत होती थी.. लेकिन आज न हो पाई। उसने एक ठंडी सांस ली और खुद भी उस जुलूस में शामिल हो गया।
किसी की निगाहें चुभती महसूस हुईं तो उसने चेहरा मोड़ कर देखा। मुहल्ले के ही नरायन तिवारी उसे देख रहे थे, यह वही थे जो अक्सर सरकार के फैसलों के खिलाफ, सरकार की नाकामियों पर लोगों को उकसाते रहते थे और अपनी मंडली के बीच वह उन्हें सेकुलर कुत्ते के रूप में सम्बोधित करता था। आज नजर मिलाने की हिम्मत न हुई तो उसने चेहरा मोड़ लिया।
नरायन बाबू भी कुछ नहीं बोले, बस मुस्करा कर रह गये।
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