Header Ads

मुक़म्मल

 

मुक़म्मल

संध्या की वर्षा , हमेशा मुझे असीम सुख देती है , मन करता है कांतामयी इस बुहार का आलिंगन अपनी बाँहों में भर लूँ ..समेट लूँ उस हर एक बूँद को अपने हृदय में , जो बूँद मुझे मेरी " वैशाली " सी प्रतीत होती है !

वैशाली नोहरा मेरी स्वर्गीय धर्म पत्नी , जिसके साथ व्यतीत प्रत्येक पल का स्मरण मात्र ही मुझे आज भी युवा बना देता है ।।

वैसे युवा होने या न होने के कोई वैज्ञानिक सिद्धान्त नही , लेकिन आयु 47 से जा लगी है मेरी ।।
और मेरे मन ने आखिर मान ही लिया है , कि मैं अब वो नही जो कभी पहले हुआ करता था ।।
वैसे भी लेखक हूँ मैं , लेखक कभी बूढ़ा नही होता लेकिन उसके चाहने वाले सदा उसे वृद्ध और गम्भीर ही समझते हैं ..

सही समझते हैं , समझने वाले क्यूँकि अब मन मे कोई फुलझड़ी नही जलती ..अब सिर्फ मेरे सीने में बगावत पलती है ..सिस्टम और समाज में पल रही बेईमानी मेरे खून में उबाल लाती है और उसी खून की स्याही में कलम डुबोकर मैं यलगार लिखता हूँ ।।

फैक्ट्रीयों के मिल मजदूरों की दयनीय दशाओं पर एक पुस्तक लिख रहा हूँ , इसी कारण वेणीपुर आया हूँ ...होटल के इस कमरे की खिड़की से नीचे सड़क दिखती है ...


और दिखता है एक मासूम 10 से 11 साल का बच्चा ! जो सरपट दौड़ लगाता है लोगों को चाय पिलाता है .... वाह रे सिस्टम वाह ! कागजों में कानून बना दिये और जमीन पर तेरे ही मुहाफिज उस मासूम से बीड़ी -सिगरेट भी मँगा रहें हैं ।

उसने तुरन्त एक पुलिस जीप के अंदर चाय की ट्रे दी और जेब से एक सिगरेट का डब्बा भी !
वो लगातार भीगता जा रहा था ..दौड़ लगाता जा रहा था ... उसकी जगह , उसकी उम्र का शहर का कोई आम बच्चा होता तो कब का चकरा के गिर जाता ... विराट ज्वर से ग्रस्त हो जाता ..लेकिन धन्य था वा अस्थिर धावक ..जिसकी रोग प्रतिरोधक क्षमता , उसकी आयु से भी कई गुना विशाल थी ।
अगली सुबह बारिश रुक चुकी थी , गुनगुनी धूप प्रत्येक ओर आच्छादित थी ...मैं होटल के कमरे से निकल कर मिल की ओर जाने लगा तभी रास्ते में चाय के एक खोंचे में मुझे वही बच्चा दिखाई दिया।


" साहब चाय पिओगे ..?"

" तेरा नाम क्या है रे ..?"

" छोटू ! चाय लाऊं साहब "

" हम्म ...मैं तेरे असली नाम की बात कर रहा हूँ ..तेरा असली नाम क्या है ..?"

" छोटू ही है साहब ..."

ये है इस भद्र और नीच समाज की उपाधि ...यहाँ धनवान के बच्चों के नाम बूझने हेतु शास्त्र खोलने पड़ते हैं .. और गरीब का हर बच्चा या तो यहाँ छोटू होता है या फिर बहादुर !

मैं चाय की चुस्की लेता रहा और उसे देखता रहा .. दामिनीपुत्र था वो ...इतनी चटकी ..इतनी ऊर्जा और इतना संवाद इस आयु में ..या यूँ कहूँ किसी भी आयु में नामुकिन था ..जब वो चाय का खाली प्याला लेने मेरी तरफ आया तो मैंने उससे पूछा -

" ये दुकान किसकी है रे ..तेरे कौन लगतें हैं ये ?"

" साहब काम करता हूँ इनके वहाँ , और कुछ पता नही "

और कुछ पता नही ...आहा ! कितनी हृदय विदारक पीड़ा थी इस वाक्य में ..मन ने जैसे धड़कनों के अश्व रोक दिये ..अश्रु आते-आते रह गये ! लेकिन मन ने एक रोष की टंकार भरी ! और मैं आगे बढ़ा-


" सुनिये भाईसाहब ! आपको कानून का कोई ज्ञान है ..कितना छोटा है ये बच्चा और आप इससे ये काम करवा रहें हैं!"

खोंचे वाले ने मुँह से गुटखा पीछे वाली नाली में थूका और बोला -

" साहब नये लग रहे हो वेणीपुर में ...इसी कनारे से सटी धाप में आगे बढ़ते रहियो ..ऐसे न जाने कितने कानून दिखते रहेंगे ... और फ़्री में नही कराता ...रोटी , कपड़ा , मकान और संरक्षण देता हूँ ..वरना किसी ओर के हाथ लगता तो हाथ -पैर काट के चौराहे पर भीख माँगने बैठा देता "

चायवाला मुखर था ..बदतमीज था ..लेकिन वो सच बोल रहा था ..इतने छोटे मासूम बच्चों के साथ तो कुछ भी किया जा सकता है ...मैं आगे बढ़ता रहा ..हर चौराहे पर पुलिस मिली ... कोर्ट भी मिला ..सिनेमाघर और अखबार भी लेकिन मुझे कई मासूम बच्चे भी मिले जो या तो कबाड़ बिन रहे थे ..या कहीं मूंगफली या पतंग बेच रहे थे ...

मैंने मन से ये भाव ही निकाल दिया कि मानवता कपड़े पहनती है ..ये नंगा होता समाज कभी सभ्य नही बन सकता ....

फैक्ट्री पहुँचा तो पता चला ..मजदूर लीडरशिप की हेरा-फेरी ने मजदूरों की दयनीय दशाओं को छुपाने की कसम ठान ली थी ...प्रत्येक फैक्ट्री के मजदूर की जुबान चुप थी ...! पैर पटक के लौट गया ...और श्राप दिया

" मरो सब के सब मरो , क्यूँकि तुम स्वयं के शत्रु हो "

प्रण कर लिया की आज रात की गाड़ी से अपने शहर लौट जाऊँगा ...लेकिन रास्ते में फिर छोटू दिखाई दिया ..

" अरे ..अरे ...कहाँ भागा जा रहा है रे ..?"

" साहब ! पकौड़ी का बेशन खत्म हो गया है ...वो लेने जा रहा हूँ "

" अरे रुक तो सही ये ले मूँगफली ..दौड़ते-दौड़ते खा लेना "

उसने मूँगफली अपने निक्कर की जेब मे डाली और वो दौड़ गया ..मेरे होंठों पर एक मुस्कुराहट तैर गई ...रास्ते में चाय पीने का मन किया तो वहीं बैठ गया ...कुछ देर में मैंने देखा छोटू दौड़ा चला आ रहा है ..


उसकी नजरें मुझसे मिली.. और वो क्या खूब मुस्कुराया ...आहा ! पउम का स्वर्ग वर्णन उसके चेहरे की मुस्कुराहट में दिखाई देने लगा ..लेकिन तभी उसे एक ठोकर लगी और वो मुँह के बल गिरा ...और मैं जड़ हो गया ...उसकी कुहनी से रक्त रिसाव होने लगा -

" हराम की औलाद मिट्टी में मिला दिया बेशन ..सुअर के बच्चे ..."

और उसके मालिक ने उसकी पीठ पर एक लात जड़ दी ...मेरे हाथों से काँच का गिलास छूट गया और मैंने सीधे उस चायवाले का गिरेबान पकड़ लिया !

" जाहिल ! आततायी ..दुष्ट ..एक मासूम से बच्चे के साथ कोई ऐसे बर्ताव करता है "

चायवाले का शरीर बलवान था , उसने मुझे एक तेज धक्का दिया और मैं लड़खड़ा कर जमीन पर गिर गया ..

" अबे ओ साहब ..ज्यादा हीरोपंथी मत दिखा ..रातों -रात किनारे लगा दूँगा ..दिखना मत मेरी दुकान के आस-पास भी "

छोटू मुझे देखने लगा और मैं उसकी आँखों से बहते आँसुओं को ...मैं खड़ा होता पुनः संघर्ष करता लेकिन छोटू की मासूम आँखों का निवेदन अत्यंत करुण था ...वो चाहता था मैं चला जाऊं..

मैं उठ गया ..चलने लगा ...लेकिन सीधे पुलिस - स्टेशन गया ...रिपोर्ट लिखवाने की बात कही तो मेरी ही तफ्तीश शुरू हो गई ..कि मैं कौन हूँ ..किस कारण से यहाँ आया हूँ ...यहाँ तक मेरे ऊपर बच्चा चोर होने का शक भी किया गया ...लेकिन उनके प्रत्येक जवाब के निदान के बाद पुलिस इंस्पेक्टर ने मुझसे कहा -

" देखो बाबूजी ! चलो कर देता हूँ चाय वाले को अंदर ..रपट भी लिख देता हूँ ..लेकिन ये बताओ फिर ये और बच्चों के साथ अन्याय नही होगा जिनको आप जैसा धर्मात्मा , समाज सुधारक नही मिला ...कितनों को अंदर करूंगा मैं..बताइये ..? शरीफ आदमी हो इन लफड़ों में न उलझो और सीधे शहर से हँसी-ख़ुशी लौट जाओ "

मैं इसलिए लौट गया , क्यूँकि निरीक्षक का मिजाज ही नही था रपट लिखने का ...लेकिन आगे कुछ कदम चलकर एक बैंच पर बैठ गया ...मेरी आँखों में बरसात के मोती उमड़ने लगे ...और फिर लगा जैसे कोई मेरे साथ बैठा है ।।

अंतर्ध्यान की अवस्था शास्त्रों , पुराणों में पढ़ी थी ...लेकिन वैशाली जीवंत मेरे सम्मुख थी और बोली -
" मान क्यूँ नही लेते ..तुम्हारा संतोष मुझ में निहित है ..तुम्हारा एकाकीपन तुम्हारा प्रबल शत्रु है दुर्गेश ... क्यों नह अपना अकेलापन दूर कर लेते ..फिर मैं भी रहूँगी और छोटू भी "

मैंने त्वरित आँख खोली ..वैशाली कहीं नही थी लेकिन मन ने अंतर्द्वंद करके वैशाली की बातों का सार चख लिया और मैं सीधे उस चायवाले के खोंचे की ओर बढ़ने लगा ...

बहुत भीड़ थी उसकी दुकान पर संध्या घिर रही थी रात्रि के आलिंगन में ...छोटू कहीं दिखाई नही दे रहा था ...मैं निश्चित दूरी से उसे तलाशने लगा ...काफी वक्त बीत गया तभी पीछे से आवाज सुनाई दी !

" साहब मैं यहाँ हूँ ..मुझे ही ढूँढ रहे थे न ..? साहब दुकान के करीब मत जाना ...उसने शराब पिलाकर दो आदमियों को रखा है कि वो आपकी पिटाई करें "

मैंने छोटू के चेहरे को अपनी अँगुली से चखा...और बोला -

" तू अब तक कहाँ था रे ..?"

साहब इस झोले में दारू की बोतल है मालिक ने मंगवाई थी ..नन्हे की दुकान से "

हाय रे दुनिया ..तुझे मौत क्यों नही आ जाती ...तू प्रलय क्यों नही देखती ...जिन हाथों में किताबें होनी चाहिए थी वो शराब पकड़े खड़ी हैं ...मैंनेइरादा कर लिया -

" देख बेटा ...विश्वास कर मुझपर..मेरा नाम दुर्गेश नोहरा है ..मैं रानीपुर मैं रहता हूँ ...तुझे अपनी औलाद की तरह रखूँगा मेरे बच्चे ...मेरे साथ चल ..तेरे हाथ जोड़ता हूँ "


" रिजवान नाम है मेरा साहब ..बस इतना याद है मुझे ...लेकिन याद नही यहाँ कैसे पहुँचा ..लेकिन मैं नही आ सकता साहब ..मुझे नही पता आप कौन हैं..लगते तो भले हैं ..लेकिन पहले मुझे अपना मालिक भी भला लगता था साहब ..."

वो जाने लगा ...मैंने उसका हाथ थाम लिया ..

" रिजवान ..मैं अब सीधे रेलवे स्टेशन जा रहा हूँ मेरे बच्चे ...1 घण्टा बाकि है मेरी गाड़ी के छूटने में ... लेकिन मैं फिर भी तेरी प्रतीक्षा करूँगा ....देखा तो है न तूने रेलवे स्टेशन ? "

उसने हाँ में सर हिलाया ..और एकटक मुझे देखता रहा ...और उसने एक बेरुखी से फिर मुझे देखकर उसने दुकान की तरफ दौड़ लगा दी !

मैं उसे दौड़ता हुआ देखता रहा ...और उसे खुद से दूर जाता हुआ ...तभी मेरे काँधे में किसी ने हाथ रखा !

" दुर्गेश बाबू मिल गया बच्चे का जवाब ...कसम भवानी की मैं भी चाहता था कि बच्चा आप के साथ जाने को राजी हो जाये और किसी को कोई खबर न हो "

इंस्पेक्टर साहब मेरे पीछे खड़े थे , मैं घबरा गया और बोला -

" आ..आप तो मुझे बच्चा चोर समझ रहे थे ...? "

" हाँ संदेह हो रहा था आपपर तभी आपका पीछा कर रहा था ..लेकिन फिर आपके बैग से ये
किताब गिरी और आपका पूरा परिचय मिल गया ...एक अच्छे लेखक हैं आप और एक अच्छे इंसान भी "

इंस्पेक्टर साहब मेरे काँधे में हाथ धरके चले गये ..और मैं धीमे कदमों से रेलवे स्टेशन की ओर बढ़ गया ...मैंने दो टिकट खरीदे ..मुझे कहीं न कहीं विश्वास था वो आएगा ...लेकिन अब सिर्फ 10 मिनट बचे थे ... और ट्रेन स्टार्ट हो चुकी थी ...मैं डब्बे में चढ़ने ही वाला था तभी किसी ने पीछे से मेरा कुर्ता खींचा ...मैंने झट से पीछे पलट कर देखा !

" साहब ! मेरे बिना चले जाओगे ?"

मैं छोटू को देखते ही खुशी से झूम उठा ...और उसे अपने गले लगा लिया ...इतना सुख मुझे तभी मिलता था जब मैं वैशाली को गले लगाता था ...मेरी आँखों से आँसू बहने लगे और छोटू भी रो पड़ा ..
पहले छोटू को डब्बे में चढ़ाया और फिर मैं चढ़ा .....रेल चल पड़ी थी ....और मेरी रुकी जिंदगी भी ..तभी खिड़की से नजर बाहर गई...इंस्पेक्टर साहब मुस्कुराहकर हम दोनों को हाथ हिला रहे थे !

" साहब ! इंसीपक्टर साहब ही मुझे यहाँ छोड़ने आये थे "

मैंने खड़े होकर साक्षात उन्हें नमन किया और गाड़ी बढ़ती रही ...इस घटना से कुछ हुआ या नही ..ज्ञात नही ! लेकिन मैं तो अब मुकम्मल हो चुका था ।।।

No comments