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अपराधबोध

 



रात की स्याही गहराती चली जा रही थी और जमीन पर शांत लेती पटरियों पर ट्रेन धड़धड़ाती हुई भागती चली जा रही थी— जमीन के सीने पर कंपकंपाहट के निशान छोड़ते।

बाहर जो भी था— सब अंधकार से आत्मसात साये थे, जो तेजी से पीछे गुजरते चले जा रहे थे और वह घुटनों को मोड़े खिड़की के पास बैठा पीछे छूटते सायों को देख रहा था। ट्रेन के ज्यादातर मुसाफिर या सो रहे थे या ऊंघ रहे थे और जो जाग रहे थे वह मोबाइल की रोशन स्क्रीन में आंखें फोड़ने में लगे हुए थे।

लेकिन वह सबसे बेपरवाह था— सबसे अलग, अपने ही ख्यालों में गुम। नींद से उसकी आंखों की कुछ खास बनती न थी। जब कई दिनों की नींद बाकी हो जाती थी और बेहोशी जैसे हालात हो जाते थे तब सो पाता था लेकिन नींद में भी वही चेहरे उसके मानस पटल पर किसी चलचित्र की तरह नृत्य करते रहते थे, जिनसे बचने की चाह में उसने जिंदगी जहन्नुम बना ली थी।

उसकी काया पलट गई थी... कभी अच्छा खासा हृष्ट पुष्ट इंसान हुआ करता था लेकिन अब तो आधा रह गया था। जहां-तहां हड्डियां चमकती थीं। सर के बाल झाड़-झंखाड़, दाढ़ी बेतरतीब बढ़ी— गाल पिचक गये थे। आंखें गंदी पीली सी, शरीर पर एक गंदा सा कुर्ता और लुंगी। ऐसा लगता था जैसे काफी बीमार रहा हो और यह गलत भी नहीं था— उसकी बीमारी थी अपराध बोध की, जो उसे लगातार खाये जा रही थी।

उसने बचने की हर मुमकिन कोशिश कर ली थी लेकिन नाकाम रहा था। न खाने को होता था न सोने को और न ही किसी काम में मन लगता था। जिस अपराध बोध की आग में झुलस रहा था, उससे किसी पल मुक्ति न मिलती थी और इसी चीज ने जैसे कभी के उस हटे-कट्टे इंसान को आधा खत्म कर डाला था।

उसका जाहिरी रूप ऐसा था कि कोई भी देखता तो कोई बाबा, साधु-फकीर, नीम पागल, या दीवाना समझता... लेकिन यह पूरा सच नहीं था।

वह जब यूं खाली होता, उसके जहन के घोड़े अतीत की तरफ दौड़ने लगते थे। एक-एक दृश्य उसकी आंखों के सामने कौंधने लगता था।


और आज तो वह वापस जा रहा था... पूरे दो साल बाद। उसी शहर में, जहां से वह कभी ऐसा भागा था जैसे सैकड़ों भूत चीखते हुए उसके पीछे पड़ गये हों। लगा था कि वह जमीन के उस हिस्से से भाग जायेगा तो वह भूत उसका पीछा छोड़ देंगे, लेकिन जमीर की कोई जमीन नहीं होती और वे भूत तो उसके मन से जुड़े थे— जो कभी उससे दूर न हुए और हमेशा ही उसके सर में चीखते रहे।

वापस लौट रहा था तो मन में अनेकों सवाल थे, अनेकों शंकाएं थीं। इन दो सालों में उसने किसी से भी, कैसा भी कोई संपर्क न रखा था और उसे नहीं पता था कि उसके पीछे क्या हुआ था। पता नहीं वह लोग उसे देख कर कैसा रियेक्ट करेंगे। अच्छा ही होगा कि उसे मार डालें— उसे भी इस देह से मुक्ति मिल जायेगी। अब उससे और नहीं भागा जाता।

फिर उसकी आंखों के आगे आदिल नाच गया... अधमरा सा, कपड़े फटे, पेशाब से भीगी पैंट, मौत के खौफ से सहमी निगाहें और कांपती लड़खड़ाती जुबान से गिड़गिड़ाता हुआ... उसने जोर से झुरझुरी ली। पूरी काया कांप कर रह गई। उसने सर झटक कर आदिल को दिमाग से झटकने की कोशिश की... लेकिन वह न गया। वैसे ही बेशर्म की तरह डटा रहा और गिड़गिड़ाता रहा... उसके शब्द तेजाब की बूंदों की तरह उसके कानों में टपकते रहे।

"भैया... मत मारो मुझे... आप लोग तो भाई हो हमारे... हमने कोई चोरी नहीं की... सच कह रहे हैं भय्या... जो चाहे कसम खिलवा लो... जो बोलने को कहो... बोल दूंगा... हमको मत मारो भैया..."
वे शब्द जो डर, आतंक और डरी सहमी उम्मीद के साथ जिंदगी की भीख मांग रहे थे— चीखों में ढलते गये और वह घबरा कर सर झटकते हुए, पांव खोलते सीधा हो गया... और आसपास देखने लगा। बाकी किसी का ध्यान तो उसकी तरफ नहीं था लेकिन सामने बैठा एक बच्चा उसे गौर से देखने लगा था।

उसे पता ही न चला, वह बच्चा कब आकर वहां परिवार समेत बैठा था लेकिन अब देखा तो उसकी चेतना पर चाबुक सा प्रहार हुआ। उस बच्चे में उसे आदिल के बच्चे की झलक मिली। उसकी आंखों में वह चेहरा घूम गया जो डर, नफरत और नाउम्मीदी के मिले-जुले भाव से उसे देख रहा था और आज तक उसे कचोटता आ रहा था। उसकी सांसों की गति तेज हो गई। उसने घबरा कर चेहरा घुमा लिया और बाहर देखने लगा, जहां साये तेजी से पीछे की तरफ दौड़ लगा रहे थे।

उसने बहुत कोशिश की इधर-उधर ध्यान लगाने की लेकिन अब यह उसे मुमकिन न लगा। आखिर वह वापस उसी शहर को जा रहा था जहां से किसी हादसे के बाद भाग निकला था, तो सब कुछ याद आना अवश्यंभावी था— सब कुछ याद कर लेना ही ठीक था, फिर वह कितना ही तकलीफदेह क्यों न हो।


वह आज की युवा पीढ़ी का एक अंश था जिसका जमीनी सच्चाईयों से वास्ता कम ही रहा था। किताबें पढ़ कर ज्ञान हासिल करने का शौक न था... बाप ने स्मार्टफोन दिला दिया था वही काफी था ज्ञान हासिल करने के लिये। यह ज्ञान कितना सही था, कितना गलत... न उसे जानने की इच्छा थी न ही परवाह। बस जो बताया दिखाया गया, वही उसके लिये अंतिम सत्य था।

इस ज्ञान के जरिये ही उसे एक खास समुदाय से बेइंतहा नफरत हो गई थी, जबकि उसका एक भी निजी बुरा तजुर्बा नहीं था उनके साथ— लेकिन पिता एक राजनैतिक संगठन का हिस्सा थे तो उस टाइप के लोगों से संपर्क बना रहता था और उन्हीं से संबंधित एक दल से वह खुद भी जुड़ गया था, जिसका फैब्रिकेटेड ज्ञान उसे अपने व्हाट्सएप पर मिलता रहता था और धर्म और राष्ट्रवाद के चरम में उसे भी बाकियों की तरह बस एक ही टार्गेट दिखाई देता था।

यह वह पीढ़ी थी जिसने न तो देशव्यापी दंगों की त्रासदी झेली थी, जहां सामान्य जनजीवन बंधक बन कर रह जाता था और न ही किसी भी युद्ध की विभीषिका झेली थी कि मौत और बर्बादी को नजदीक से महसूस किया हो। यह वह पीढ़ी थी जिसे मतलब भर पढ़ने को मिल गया, मतलब भर खाने या कमाने को मिल रहा और यह सुरक्षित जिंदगी जीते हुए हाथों में मोबाइल थामे सोशल मीडिया पर क्रांति करती रहती। इसे पता ही क्या था कि एक अस्थिर, असुरक्षित और अनिश्चित जिंदगी नजदीक से दिखती कैसी है।

उसकी अपने जैसे लोगों की पूरी एक गैंग थी— वे सोशल मीडिया पर लोगों को ट्रोल करते थे, उन्हें सबक सिखाते थे और निकृष्टतम गाली गलौज के सहारे धर्म और राष्ट्र की रक्षा करते थे... लेकिन यह काफी नहीं था। आभासी दुनिया की क्रांति भी भला कोई क्रांति हुई। वह बाहर भी उसी समुदाय के लोगों को इधर-उधर पकड़ पाते तो न सिर्फ मारते-पीटते, बल्कि अपने मनपसंद नारे भी लगवाते थे। इससे कुछ और होता हो न होता हो, लेकिन उन्हें एक अलग ही किस्म के गौरव की अनुभूति होती थी— यह अजीब किस्म का नशा था।

या शायद अंदर भरी कुंठा थी... अच्छी शिक्षा इतनी महंगी थी कि हासिल करना दुश्वार था और सामान्य शिक्षा के सहारे नौकरी क्या मिलती, जब चपरासी की पोस्ट के लिये भी एमबीए/बीटेक डिग्री धारियों के आवेदन आते हों। राजनीतिक चेतना गिरवी रख चुकी पीढ़ी जीवन की मूलभूत सुविधाओं पर सवाल उठाने का नैतिक बल खो चुकी थी, तो कहीं तो अंदर भरा आक्रोश निकलना ही था... धर्म और राष्ट्रवाद के नाम पर ही सही।

उस दिन भी कुछ ऐसा ही हुआ था, जब वह अपने गिरोह के साथ एक जगह मौजूद था तो पास ही एक शोर उठा था। पूछने पर पता चला कि एक आदमी को पकड़ा गया था जो बच्चा चोरी करने की कोशिश कर रहा था, जबकि वह आदमी रोते गिड़गिड़ाते बार-बार दुहाई दे रहा था कि उसने ऐसा कुछ नहीं किया था और उन्हें गलतफहमी हुई थी... लेकिन उसकी कोई सुन न रहा था और इधर-उधर से लगातार उसे घूंसे-लात पड़े जा रहे थे। हां, कुछ लोग जरूर थे जो पीटने के बजाय उसे पुलिस में देने की तरफदारी कर रहे थे।

उन्हीं लोगों ने बीच-बचाव किया।


"क्यों बे— बच्चे चुराता है।" खुद उसने तमांचा जड़ते हुए पूछा था।

"नहीं भाई साहब... गलतफहमी हुई है इनको। आप चाहो तो उस बच्चे से पूछ लो।" वह आदमी हाथ जोड़े गिड़गिड़ाता हुआ बोला।

"अरे बच्चे से क्या पूछें— हमने खुद देखा था।" भीड़ में से कोई चिल्लाया।

"नाम क्या है बे तेरा?" उसके गिरोह के एक बंदे ने पूछा।

"आदिल... आदिल नाम है मेरा...।"

"कटुआ है साले।" एकदम से उन सब की भृकुटियां चढ़ गईं।

उसे जवाब देते न बना... देता भी क्या, उससे पहले ही वह लोग हाथ पांव खोल चुके थे।

वह आदमी रोता गिड़गिड़ाता रहा लेकिन किसी पर कोई फर्क नहीं पड़ा। कुछ लोग वीडियो बनाने लगे, जो इस दौर में किसी सांस के मरीज को ऑक्सीजन उपलब्ध कराने जितना जरूरी काम है। जो पहले उसे पुलिस में देने की वकालत कर रहे थे, वे भी उसका धर्म जानते ही किनारे हो गये।

आदिल नाम के उस शख्स को खींच-खींच कर इस तरह पीटा गया कि उसके कपड़े फट गये, जगह-जगह से खून रिसने लगा, बाल बिखर गये... और हां उन पीटने वालों में वही तो अग्रणी था।
आसपास गोश्त-पोश्त की मशीनें खड़ी इस नजारे को एंजाय करती रहीं और कुछ रोबोट्स वीडियो बनाते रहे। जब तक वह आदमी अधमरा न हो गया— पीटने वाले भी थक गये तो रुक गये।

फिर उसी आदमी की शर्ट फाड़ कर वहीं मौजूद हैंडपंप से बिठा कर बांध दिया गया। ऊपरी तन पर बची बनियान भी शरीर पर चिथड़े की शक्ल में झूल रही थी और पतलून उसके पेशाब से गीली हो गई थी। वह बस गिड़गिड़ाये जा रहा था— खुद को बख्श देने की गुहार लगा रहा था, लेकिन मजाल है कि किसी भी कान पर जूं तक रेंगी हो।

अब उससे अपने मनपसंद नारे लगाने को बोला गया... मरता क्या न करता... जो कहा गया, वह मशीन की तरह बोलता रहा लेकिन इस पर भी बीच-बीच में कोई थप्पड़ मार देता तो कोई घूंसा, कोई लात तो कोई डंडा जड़ देता था और वह बिलबिला कर रह जाता।

यह तमाशा खत्म तब हुआ जब पुलिस आ पहुंची।

थोड़ी बहुत बहस बाजी के बाद पुलिस उसे अपने साथ ले जाने में कामयाब रही। यह तो उन लोगों को सुबह पता चला था कि पिटाई ज्यादा हो गई थी और अस्पताल पहुंचते-पहुंचते वह मर गया था।
उसे यह खबर सुन कर थोड़ा झटका जरूर लगा था लेकिन फिर मन में भरी नफरत उस अहसास पर भारी पड़ गई थी। पता चला कि घटना के वीडियो सोशल मीडिया और मीडिया पर वायरल हो गये थे और जैसा दस्तूर था कि देश के लिबरल्स और सेकुलर्स ने हल्ला काट दिया था कि शाम तक मजबूरी में ही सही पुलिस को वीडियो के आधार पर आरोपियों को पहचान कर उन्हें गिरफ्तार करना पड़ा।

और यूं पहली बार उसे हवालात की शक्ल देखनी पड़ी।

उसकी नफरत कुछ और भड़क गई।

रात को उसके बाप और संगठन की पेश न चली लेकिन सुबह होते ही उसकी जमानत का इंतजाम हो गया था और उसके समर्थन में थाने के बाहर भारी भीड़ मौजूद थी। उन सब को मजबूरन छोड़ना पड़ा।

और जब वह बाहर निकले तो बाहर इंसाफ की गुहार लगाने मृतक आदिल का परिवार भी मौजूद था, जिसके बारे में उसे लेने आये एक साथी ने बताया।

उसकी निगाहें उनसे मिलीं... हल्का झुर्रीदार चेहरा और बुझी-बुझी आंखें लिये आदिल की मां... एकदम बेजान सी मुर्दा चेहरा लिये खड़ी उसकी बीवी... डर, नफरत, बेबसी, हताशा और नाउम्मीदी के मिले-जुले भावों से उसे देखता आदिल का बड़ा बेटा, जो बारह-तेरह साल का रहा होगा... किसी चिड़िया की तरह सहमी निगाहों से उसे देखती आदिल की बेटी जो सात-आठ साल की रही होगी... पत्नी की गोद में एकदम शांत टुकुर-टुकुर उन्हें देखता बच्चा, जो शायद एक डेढ़ साल का रहा हो।

उनके सामने से गुजरते हुए उसने जब उन्हें नजदीक से देखना शुरू किया था तब उसके होठों पर एक नफरत और गर्व से भरी मुस्कान थी... जो उनमें सबसे आखिर में खड़ी बच्ची तक पहुंचते-पहुंचते सिमटती चली गई थी और उनके गुजरते ही लुप्त हो गई थी। उसे देखती वह निगाहें उसके सीने में कांटे की तरह चुभती चली गई थीं।

बाहर आये तो हीरो की तरह शानदार स्वागत हुआ गोया वे कोई किला फतह करके लौटे हों। अब ऐसे शौर्य के उपलक्ष्य में गगनभेदी नारे न लगाते तो माहौल कैसे बनता। सुनकर कहीं भगवान श्रीराम भी मुस्कुराये होंगे और भारत माता भी जरूर मुस्कुराई होंगी।

घर पहुंचा तो घर वाले खुश थे कि बेटा पुलिस के चंगुल से छूट गया... लेकिन वह खुश नहीं था। एक अजीब सी फांस चुभ कर रह गई थी उसके दिल में, जो उसकी खुशी पर भारी पड़ रही थी।

थोड़ी फुर्सत मिली थी तो उसने फिर से मीडिया के जरिये इस घटना को समझने की कोशिश की... जो कोर्ट कचहरी को दरकिनार करते, खुद जज बने बैठे मृतक को चोर ठहराने पर तुली थी, लेकिन मीडिया का ही वह छोटा सा एक हिस्सा, जिसे वह गालियां देते नहीं अघाते थे— बता रहा था कि घटना चोरी की नहीं खुन्नस की थी, किसी की निजी दुश्मनी की थी जिस ने मौके का फायदा उठा लिया था। बच्चे को वहां से हटा ही दिया गया था और जिस आदमी ने दुश्मनी निकाली थी वह फरार था, जबकि यह मुख्य आदमी मेनस्ट्रीम मीडिया के फ्रेम से ही बाहर था। वह इन चालबाजियों से अनजान न था, इसलिये अब उसमें अपराधबोध घर करने लगा था।

उसके व्हाट्सएप पर आदिल की पिटाई के वीडियो मौजूद थे। उसने वह बार-बार देखे... जब मार रहा था तब यह अंदाजा ही नहीं था कि वह मर भी जायेगा। जोश में होश की बात कहां सूझती है— बस यही लगा था कि मौका अच्छा है, हाथ साफ कर लो लेकिन अब बार-बार वीडियो देखकर अपनी और लोगों की बेरहमी पर खुद सिहर रहा था। उसने कभी जिंदगी की असल कीमत न जानी थी, जो मौत को सामने देखते वक्त ही पता चलती है। कभी असुरक्षित जीवन का दर्द न महसूस किया था, लेकिन तब पूरा दिन वही वीडियो देख-देख कर वह महसूस करता रहा था। लगा था जैसे उसकी आत्मा आदिल की देह में उतर गई हो और वह हर चोट को अपनी आत्मा पर महसूस कर रहा था।

दोपहर का खाना उससे न खाया गया... रात को खाने बैठा तो चार निवाले हलक में उतरे होंगे कि थाने में मिले आदिल के परिवार के चेहरे और उनकी दर्द और बेबसी से भरी निगाहें उसे कचोटने लगीं कि पूरा खाना तक न खाया गया।

रात को सोने लेटा तो वही सब चेहरे उसके दिमाग में हलचल मचाये थे। किसी तरह उतरती रात में नींद से बोझिल हुआ दिमाग सोया भी तो सपने में वही सब दिखाने लगा और थोड़ी देर में ही वह पसीने से लथपथ हो कर जाग गया था। फिर उसे सोने की हिम्मत न पड़ी।

उसके मोबाइल में उसकी तारीफों के पुल थे— मानो उसने बहुत बड़ा काम कर दिया हो। हमेशा की तरह ढेरों वैसा ही कंटेंट, वैसे ही फोटो और वैसे ही वीडियो जो सब देखने का वह आदी रहा था लेकिन अब कुछ न सुहा रहा था। मोबाइल देख कर उसे वहशत हो रही थी। घटना में शामिल उसके साथियों ने उसकी मिजाजपुर्सी करनी चाही तो वह बस इतना ही पूछ सका था कि क्या उन्हें भी वह सब चेहरे परेशान कर रहे थे लेकिन जवाब न में मिले थे, बल्कि वे तो खुश थे और उसकी बुजदिली का उपहास उड़ा रहे थे।

उसने उनकी कॉल उठानी बंद कर दी— व्हाट्सएप पर जवाब देना बंद कर दिया। घर से निकलना बंद कर दिया लेकिन आत्मा पर चढ़ा बोझ न कम हो सका, बल्कि दिनों दिन बढ़ता रहा। उसका खाना पीना हराम हो गया... दो पल की मीठी नींद नसीब होनी बंद हो गई। चिड़चिड़ाहट और गुस्से ने उसका मिजाज और बिगाड़ दिया। वह बात-बात पर घरवालों से लड़ने लगा। अपने मनहूस फोन से उसे इतनी नफरत हुई कि सिल पर रख कर बट्टे से चूर-चूर करके फेंक दिया।

बाप ने समझाने की कोशिश की तो चढ़ पड़ा था वह उन पर— कि वह सब उनके कर्मों का ही फल था। लोग अपने बेटों को डॉक्टर इंजीनियर बनाते हैं लेकिन उन्होंने तो अपने बेटे को हत्यारा बना दिया। वह जमानत पर था— केस नहीं खत्म हुआ था। हत्यारे का कलंक तो उसके माथे पर हमेशा के लिये चस्पां हो ही गया था। डॉक्टर इंजीनियर बनाने की तो उनकी औकात थी नहीं लेकिन हत्यारा बनाने से तो बचा सकते थे। हां वह गलत था— गलत रास्ते पर चल पड़ा था लेकिन वह कैसे मां-बाप थे जो उसे गलत रास्ते जाता देख बजाय डांटने समझाने के और उसका हौसला बढ़ाते रहे कि आज वह एक पूरे परिवार का हत्यारा बन गया।

किसी को जवाब न सूझा— गलती उन्हीं की थी। यह पीढ़ी तो अनजान थी लेकिन वे तो कोई न कोई त्रासदी भोगे हुए थे। उन्हें तो अपने बच्चों का भविष्य सुरक्षित रखना था।

लेकिन जो हो गया— वह वापस नहीं लौट सकता था।

उसके अपराध बोध का बोझ धीरे-धीरे इस कदर बढ़ता गया कि उसके पागल होने की नौबत आ गई। किसी ठौर जी न लगता था— किसी पल तबीयत सुकून की देहरी न लांघती थी। उसे लगा कि वह यहां पागल हो जायेगा। इससे तो बेहतर है कि कहीं भाग जाये— शायद गिड़गिड़ाता हुआ आदिल उसका पीछा करना छोड़ दे... शायद उसके परिवार की भेदती हुई निगाहें उसका सीना छलनी करना छोड़ दें।

और एक रात को वह भाग खड़ा हुआ— बिना किसी को कुछ बताये।

उसने सोचा था जंगल में किसी गांव जा बसेगा— भीख मांग कर खा लेगा। वह नेपाल के तराई क्षेत्र में निकल आया लेकिन जो सोचा था वह न हुआ। उन्होंने उसे चैन न लेने दिया। तन के कपड़े फट गये— भूखों कई दिन कई रातें गुजरीं... लगातार हफ्तों जगा लेकिन वह गिड़गिड़ाहट और वह निगाहें उसके अंतर को फिर भी भेदती रहीं।

वह भागता रहा— गांव, शहर, जंगल, पहाड़... यूपी से उत्तराखंड, उत्तराखंड से हिमाचल, लेकिन उसे कहीं चैन न मिला। हर जगह पर वे निगाहें और मौत की गिड़गिड़ाहट उसका पीछा करती रहीं और इसी तरह दो साल गुजर गये। इस बीच उसने किसी को अपनी खबर न लगने दी और न किसी की खबर ली। इस बेहाल जिंदगी ने उसकी काया आधी कर दी, चेहरे और आंखों की चमक छीन ली। हाल वह हो गया कि कभी शीशे में नजर पड़ जाती तो खुद को न पहचान पाता।

फिर कल एक घटना हुई जिसने उसके सोचने का नजरिया एकदम बदल दिया। अपनी मुक्ति का मार्ग उसे मिल गया और नये सिरे से एक उम्मीद उसमें पैदा हो गई।

हुआ यूं था कि दो साल बाद ठीक वैसा ही नजारा उसके सामने आ गया— जहां एक उत्तेजित, भड़की, उन्मादी भीड़ थी और एक शिकार, जो मार खाते हुए अपनी जान की भीख मांग रहा था।
शिकार पर इल्जाम था कि उसने गाय काटी है और वह शिकार गिड़गिड़ा रहा था कि उसने नहीं काटी और उसके पास जो मीट है वह भैंसे का है... लेकिन भीड़ में उसके बोल सुनने वाला कोई न था।

नजारा देखते हुए उसकी आंखों के आगे पूरा चक्र घूम गया... उस पिटते हुए शख्स में उसे वही हाथ जोड़े, गिड़गिड़ाता आदिल दिखा और पीटने वालों में खुद को देखा— एकदम से एक सर्द लहर उसके पूरे शरीर में दौड़ गई और कमजोर हो चुके शरीर में जान आ गई। वह दौड़ कर उस युवक तक पहुंच गया और 'राम' नाम के नारे लगाता उसे बचाने की कोशिश करने लगा— इस चक्कर में कई चोटें उसे भी पड़ गयीं।

लेकिन फिर उसने युवक को इस तरह छाप लिया कि जो भी वार हो वह उस पर हो और साथ ही खुद भी नारे लगाता जा रहा था। भीड़ में सर होते हैं दिमाग नहीं... लेकिन जब कोई उल्टी धारा को तैरना शुरू कर दे तो सोई हुई चेतनायें जागती हैं। हर हत्यारी भीड़ में बचाने वाले भी मौजूद होते हैं, लेकिन नैतिक बल के अभाव में वे संज्ञाशून्य हो जाते हैं। यहां एक साधु वेशधारी युवक को 'जय श्रीराम' के नारे लगाते हुए उस पिटते हुए युवक को बचाते पाया तो भीड़ में बचाने वाली चेतना जागृत हुई और वे भी बीच-बचाव करने लगे।

मामला थोड़ा शांत हुआ तो उस बंदे को सब वहां ले गये, जहां से वह मीट लाया था। पता चला कि बीमार भैंसा था जिसे वहां के लोगों की अनुमति से ही काटा गया था और वाकई वह उसी का गोश्त था।
सब अपनी हार पर कसमसाते चले गये और पिटने वाले ने उसे देखते हुए बिना कुछ कहे, बहती हुई आंखों के साथ उसके आगे हाथ जोड़ दिये और उसके पैरों में पड़ गया। उसके अहसान को जीती हुई उन निगाहों ने उसके अंदर की बेचैनी पर ऐसा मरहम लगाया था कि कल रात उसे इतने दिनों बाद पहली बार एक मुश्त नींद आई थी और ऐसा लगा था जैसे वह थोड़ा हल्का हो गया हो।

सुबह उठा था तो फैसला कर चुका था— मुक्ति पाने की आखिरी कोशिश करने की। आर या पार... यही अंत था उसके अपराध बोध का। उसे अब वापसी किसी भी हाल में मंजूर न थी।

और वह सुबह ही चल पड़ा था वापस... अपने उसी शहर जहां से दो साल पहले भागा था। तन पर जो था वही उसकी जायदाद थी। पास पल्ले कुछ था नहीं तो टिकट की भी जरूरत न थी।

जैसे तैसे रात गुजरी और ट्रेन गंतव्य तक पहुंची।

भीड़ के साथ वह भी स्टेशन से निकल कर बाहर आया... एक अपनेपन का अहसास हुआ। एक जानी पहचानी गंध नथुनों तक पहुंची और इधर-उधर देखते उसकी आंखें भीग गईं। कल का भूखा था लेकिन खाने की परवाह न थी। बस पैदल ही चल पड़ा उस ओर— जहां उसी आदिल का घर था, जिसने उसकी जिंदगी ही बदल दी थी। पूछता-पाछता वह वहां तक पहुंच गया जहां आदिल का परिवार रहता था।


गनीमत थी कि दो साल में उन्होंने ठिकाना न बदला था। आसपास पूछने पर पता चला कि परिवार की स्थिति दयनीय थी। आदिल जीवित था तो उसके रहते उनकी गुजर-बसर अच्छे से हो रही थी। वह कारपेंटर था और मतलब भर कमा लेता था। अब तो यह हाल था कि बूढ़ी मां मोटा ऐनक लगाये मशीन पर पजामे सिलती थी। उसके बेटे की पढ़ाई छूट गई थी और अब वह दिन भर पानी के दो रुपये वाले पाउच टैम्पो बस में बेचता फिरता था। आदिल की बीवी तीन चार घरों में घरेलू काम करती थी और उसकी बेटी भी साथ ही हाथ बंटाती थी, जबकि छोटा बेटा घर पर दादी के पास ही रहता था। एक झटके में एक खाता पीता परिवार तहस-नहस हो गया था।

उसके गुनाह का बोझ एकदम से कई गुना और बढ़ गया।

वह उन्हीं की चौखट पर बैठ गया।

सुबह का टाइम था— सभी घर पर थे। उसकी मौजूदगी महसूस करके निकले भी तो पहचान न पाये। पूछने पर जब उसने खुद का परिचय दिया तो सभी की निगाहों में नफरत भर गई। बेटा मारने दौड़ा तो मां बड़ी मुश्किल से रोक पाई। यह पूछने पर कि वह अब क्या लेने आया है तो वह इतना ही बोल पाया कि माफी।

लेकिन क्या यह इतना आसान था... एक परिवार के लिये उस इंसान को माफ कर देना, जिसकी वजह से उनका सब कुछ उजड़ गया हो। सब नफरत से मुंह मोड़ कर अपनी-अपनी राह निकल गये, लेकिन यह खबर फैलने से न बच सकी। उसके घर वाले दौड़े-दौड़े आये। पुलिस भी पहुंच गई उसे लेने... लेकिन उसने साफ मना कर दिया कि वह इस चौखट पर माफी मांगने आया है— या माफी मिलेगी या वह यहीं प्राण त्याग देगा और यही उसके लिये मुक्ति है। उसे जबरदस्ती ले जाया गया तो वह अपनी जान तब शर्तिया दे देगा।

धीरे-धीरे उसके पुराने संगी साथी भी वहां पहुंच गये और लोगों का दबाव देख कर पुलिस ने ले जाने का इरादा स्थगित कर दिया और वहीं निगरानी करने बैठ गई। सब ने लाख कोशिश की कि वह कुछ खा ले लेकिन वह न माना और न ही किसी के समझाने पर वहां से हटने को राजी हुआ।
अजीब स्थिति हो गई।

तंग गलियों में बेतहाशा भीड़ हो गई और ऐसी हलचल मची कि सब असहज हो गये। शाम तक घटना सोशल मीडिया से होती मेन मीडिया तक पहुंच गई और टीआरपी गेन की गुंजाइश देखते हुए रात को प्राइम टाइम का मछली बाजार इसी मुद्दे पर सज गया।

मोहल्ले वालों के लिये बवाल हो गया। किसी अराजक स्थिति से बचने के लिये भारी संख्या में वहां पुलिस बल तैनात कर दिया गया। सुबह से मीडिया कर्मी माइक कैमरे लिये गलियां नापने लगे।

कल का दिन तो आदिल के परिवार के लिये फिर भी उतना मुश्किल न था लेकिन आज तो बाहर झांकना भी दूभर था। कैमरे माइक लिये गिद्ध झपट पड़ने को आतुर थे।

और वह बेहाल उनकी चौखट पर पड़ा था... उसने गुजारिश करके सबको चौखट से दूर कर दिया था और खुद खामोशी से वहीं ऐसे बैठ गया था जैसे अब देह त्यागने का इरादा ही कर लिया हो। उसे बाहरी दुनिया से कोई मतलब न था— उसे सामने दिखती भीड़ में व्याकुल मां-बाप से कोई मतलब न था। अपने साथियों से कोई मतलब न था। उसे बस इस से मतलब था कि वह कब मुक्ति पायेगा... भोजन से उसने साफ इंकार कर दिया था लेकिन पानी पी लिया था मां के जोर देने पर।

दो दिन गुजर चुके थे उसे खाना खाये... जिस्म में उर्जा न बची थी। कमजोर पहले से ही था— हालत ऐसी थी कि दिमाग नींद से बोझिल हो रहा था लेकिन डर था कि कहीं सोया तो यह लोग उठाकर अस्पताल न पहुंचा दें— इसलिये बैठा ही रहा।

पर यूं नींद के झोंकों से जूझते हुए बैठे रहना कब तक मुमकिन था। आखिर आधी रात को उसकी हिम्मत जवाब दे गई तो वह आहिस्ता से फैल गया। कुछ जागते बदन उसकी ओर लपके तो उसने चेतावनी दे दी कि खबरदार कोई नजदीक आया तो... वह सो नहीं रहा बस लेटा है।

लेकिन यह आसान न था... लेटे-लेटे कब आंख लग गई पता ही न चला।

देखने वाले जरूर समझते रहे कि वह शायद जाग रहा है। उसने पहले ही कह दिया था कि उसे अब नींद नहीं आती और बिना मरे वह शायद कभी सो भी न पायेगा। हां लोग सारी उम्मीदें उस परिवार से लगाये थे जो एक बार पहले भी तमाशा बन चुका था और एक बार फिर अब तमाशा बन रहा था।
"ए बेटा— ए— ए बेटा।"

हिलाने पर उसकी चेतना को झटका सा लगा... दिमाग तक अस्पष्ट से शब्द पहुंचे। नींद से बोझिल दिमाग पहले तो कुछ समझ न पाया, फिर एकदम से अपनी स्थिति का भान हुआ तो उसे लगा कि कहीं उसे लोग उठा तो न लाये।

यह ख्याल ही उसे तड़पा देने के लिये काफी था... उसने झटके से आंखें खोल दीं। सिवा धूप के कुछ न दिखा। उसने भनभनाते दिमाग को काबू में किया तो फोकस साफ हुआ और वह साफ देख पाया... दूर दिखती भीड़, जिसमें उसके अपने भी थे— पास आ चुकी थी और उसे घेरे में लिये थी लेकिन वह अहम नहीं थे। अहम वे थे जो उस घेरे के अंदर थे... आदिल की मां, उसकी बीवी और उसके तीनों बच्चे... वे सभी उसे देख रहे थे। उसने एक-एक कर उन सभी की आंखों में झांका... लेकिन उनमें नफरत नहीं थी, दया थी और उनके हाथों में खाने पीने का सामान था।

उसे शायद आदिल की मां ही उठा रही थी जो उसके उठ बैठते ही सीधी हो गई थी। उसके हाथ में जूस का गिलास था... बीवी एक प्लेट में शायद खिचड़ी लिये थी... बेटा दही की कटोरी और बेटी पानी का गिलास लिये थी... छोटा बच्चा मां की उंगली थामे उसे देख रहा था।

"खा ले बेटा— जितनी सजा तूने भोग ली, वह काफी थी। मेरा बेटा तो चला गया, अब वापस आने से रहा। अब उसके पीछे एक जान और जाये, हमें यह गवारा नहीं। हम तुझे अपने बेटे का खून माफ करते हैं।" कहते हुए बूढ़ा की आवाज रूंध गई थी।

उसे मुक्ति मिल गई थी— दिल का गुबार छलछला कर आंखों से बह चला। उसने हाथ जोड़ दिये और अवरुद्ध कंठ से बड़ी मुश्किल से बोल सका—

"मैंने आपके बेटे को नहीं मारा था— लेकिन मैं भी उस अनियंत्रित, दिशाहीन, उन्मादी भीड़ का हिस्सा था जिसने आपके बेटे की जान ली थी। उस गुनाह के बोझ से मैं कभी मुक्त न हो सका। कहां न भागा मैं लेकिन कहीं मुक्ति न मिली। सोच लिया था या माफी मांग लूंगा या आप की चौखट पर देह त्याग दूंगा। इससे बढ़ कर कोई उपाय नहीं मुक्ति का। आप लोगों ने माफ कर दिया... मैं अपने पाप के बोझ से मुक्त हो गया, लेकिन जिम्मेदारी के बोझ से मुक्त होना कभी गवारा न करूंगा। मैं आज सबके बीच यह प्रण करता हूं कि आपके बेटे के हिस्से की जिम्मेदारी मैं निभाऊंगा। कानून मुझे जो सजा देता है चुपचाप वह भुगत लूंगा और जेल से छूटकर आप लोगों के लिये वही करूंगा जो आपका बेटा करता। खुद कभी घर न बसाऊंगा। मेरा जो भी परिवार होगा वह आप लोग होंगे। इन बच्चों की परवरिश और पढ़ाई मेरी जिम्मेदारी है। इस बहन की देखभाल मेरी जिम्मेदारी है, जिसे मैं आखरी सांस तक निभाऊंगा... यही मेरा प्रायश्चित होगा।"

सभी की आंखें भीग गई थीं और उसका प्रण सुन कर उसकी मां तो बाकायदा रो पड़ी थी जिसे पिता संभालने लगे थे।

(मेरी किताब गिद्धभोज से ली हुई एक कहानी)


Written by Ashfaq Ahmad

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