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गिद्धभोज

 


खिलावन ऐसे भाग आया था जैसे सैकड़ों भूत शोर मचाते उसके पीछे पड़े हों। बाहर सब गर्म था लेकिन उसके भीतर सब उससे ज्यादा गर्म था। हवा थमी हुई उसकी दुर्दशा पर भले अब दुख व्यक्त कर रही थी... लेकिन वह कैसे भूल सकता था कि इसी हवा ने तो उससे दुश्मनी निभाई थी। अब अंधेरा हो चला था लेकिन उसकी आंखों में वे बादल अभी भी कौंध रहे थे... जो धुएं के थे... गहरे काले धुएं के, जो आग की कोख चीर कर निकले थे, जो उसके लिये अभिशाप बन के आई थी।

हां— कहने को उसके चारों तरफ अंधेरा था लेकिन उसे लगता था कि यह अंधेरा नहीं, उसी आग से पैदा काले बादल थे जो उसका दम घोंटे दे रहे थे... जो उसकी सांसों का बोझ बेतहाशा बढ़ाये दे रहे थे।

वह घबराकर भागा था। उसे कुछ न सुनाई देता था न दिखाई देता था... न दिमाग की कोई रौ उसके वश में थी। उसे होश न था कि वह कब गांव की सरहद से निकल कर बाहर-बाहर से गुजरती रेलवे लाइन तक पहुंच गया था और साथ लगे एक खेत की मेढ़ पर गिरकर हांफने लगा था। वह ठंडी मिट्टी उसे अपनी शरण स्थली लग रही थी, जहां से उठना अब उसे गवारा न था। उसका मुंह ऐसा शुष्क हुआ था कि हलक में कांटे पड़ने लगे थे— आंखें बेजान थीं।


रह-रह कर उसकी आंखों में गुजरे पलों के वह दृश्य कौंधते रहे और वह मेढ़ पर औंधा पड़ा उखड़ी-उखड़ी सांसे लेता रहा। फिर सीधा हो कर नीले से काले होते आसमान को देखने लगा, जैसे शिकायत कर रहा हो। कौन था अब वहां... वह धुएं के बादल भी तो नहीं थे, वह तो अपना खेल खेल कर वायुमंडल में विलीन हो चुके थे। फिर कौन था? शायद भगवान... गरीब का वही तो सहारा होता है लेकिन उसका तो वह भी नहीं था।

वह था कौन... एक छोटी जोत का किसान! वह गरीब, जिसके लिये हर पल में संघर्ष होता है। जिसकी मेहनत की कोई गारंटी नहीं होती कि वह फलेगी भी... और उस पर तुर्रा यह कि उसे 'अन्नदाता' जैसे भारी-भरकम विशेषण से नवाजा जाता है। यह वह अन्नदाता होते हैं जो छोटे-छोटे जमीन के टुकड़ों पर बंटाई पर ली हुई खेती में या बड़े किसान के खेत में मजदूरी कर के अपने जी तोड़ श्रम को रोपते हैं। बैंक, महाजनों या इधर-उधर से उधारी ले कर बेहतर भविष्य की उम्मीद वाले सपने खेत की मिट्टी में रोपते हैं, लेकिन कभी ओलावृष्टि, कभी बाढ़-सुखाड़, तो कभी बारिश-आग उनके सपनों का ऐसा निर्मम संहार करते हैं कि उनकी अंतिम उम्मीद एक रस्सी के फंदे में ही बचती है।

खिलावन उनसे अलग तो न था... उसके कच्चे घर में उस समय चार पेट थे। पांचवां अभी दुलारी के पेट में था... आखिर का महीना  चल रहा था और एकदम से उसकी आशाओं का महल रेत की तरह भरभरा कर ढह गया था।

जिंदगी की गाड़ी इधर-उधर से उधारी लेकर चल रही थी... दुलारी कमजोरी के बावजूद दो बच्चे जन चुकी थी लेकिन तीसरे में बात थोड़ी बिगड़ गई थी और मजबूरी में उसे डॉक्टर की देहरी तक दौड़ लगानी पड़ने लगी थी। किसानी से टाइम बचा कर पड़ोस के  शहर में रिक्शा चला आता था, जिस से थोड़ी राहत हो जाती थी— लेकिन खेत में खड़ी गेहूं की फसल उसकी उम्मीद थी, जिससे न सिर्फ उसकी उधारी चुकता हो जाती और अगली फसल तक का बंदोबस्त हो जाता बल्कि जैसे-तैसे दुलारी की सुरक्षित डिलीवरी भी हो जाती। 


लेकिन उसकी बुरी किस्मत... खेत में सूख कर कटने को तैयार खड़ी फसल पर नजर हो गई। जाने कहां से कुछ जलते सूखे पत्ते वहां आ गये और खेत ने आग पकड़ ली।

उसे पता चला तो सर पर आसमान टूट पड़ा। दौड़ता-भागता खेत तक पहुंचा तो उसकी मेहनत और उम्मीद धूं-धूं जल रही थी... धुएं के गुबार आकाश छूते थे। आसपास वालों ने अपने खेत बचाने के लिये आग बुझाने में पूरी ताकत लगा दी लेकिन बुझते-बुझते भी आग पूरे खेत को लील गई थी। सारा कसूर हवा का था, जिसने उसके लिये कुछ भी न बचने दिया।

वह तो पत्थर हो गया था देखते हुए... दोनों बच्चे उसे झंझोरते रहे थे लेकिन वह कोई प्रतिक्रिया ही न दे सका था। 

फिर कुछ होश आया तो वहीं दोनों हाथों से सर पीटता रोने लगा था। 

उम्मीद का यूं जल जाना क्या गजब ढाता है— उससे बेहतर कौन जान सकता था। किसी तरह लोगों ने उसे संभाल कर, सहारा देकर घर पहुंचाया तो वहां नई मुसीबत तड़पते हुए उसकी प्रतीक्षा में थी। दुलारी को सदमा बर्दाश्त न हुआ था और उसे प्रसव पीड़ा शुरू हो गई थी।

ऐसी हालत में उसे अस्पताल ले जाना जरूरी था लेकिन खिलावन की तो हालत ही अजीब थी... दोनों बच्चे उसे ताक रहे थे और वह पथराई आंखों से दुलारी को छटपटाते देख रहा था।

उनकी उम्मीदों के साये उस पर भारी होने लगे।

और वह घबरा कर भाग खड़ा हुआ था। पीछे दोनों बच्चे 'बप्पा-बप्पा' की गुहार लगाते रह गये थे।

वह दूर भाग जाना चाहता था लेकिन सिर्फ शरीर ही भगा पाया था। आत्मा वहीं गिरी पड़ी रह गई थी जहां उससे अन्न की उम्मीद लगाये बैठे दो बेटे थे और बच्चा पैदा करने को छटपटाती उसकी औरत।

वह आसमान देख रहा था और सनसनाते दिमाग से सोच रहा था कि क्या वहां कोई भगवान है? जो वाकई उसे देख रहा है... देख रहा है तो बस देख ही क्यों रहा है? क्यों न उस हवा को तेज चलने से रोक पाया? क्यों न उन जलते पत्तों को उड़ने से रोक पाया? नहीं-नहीं... कोई नहीं है... सब वहम है... जैसे भूत प्रेत का होता है। या है भी तो उसका जरूर दफ्तर है आसमान में कहीं, जहां बस बड़े लोगों की पूछ होती है। गरीबों को तो दरवाजे से ही फटकार कर भगा दिया जाता है।


रह-रह कर उसका मन कचोटता था दुलारी के लिये, लेकिन खुद में कोई सामर्थ्य न पाता था उसके लिये। जैसे-तैसे शहर अस्पताल ले भी गया तो दस खर्चे और खड़े हो जायेंगे और उसकी जेब में बस बीस रुपये पड़े थे। किस-किस के आगे हाथ फैलायेगा? और मदद करेगा भी कौन— जब वापसी की उम्मीद ही नहीं थी।

पड़े-पड़े कई घंटे गुजर गये कि एक आवाज से उसकी तंद्रा टूट गई।

उसने सूख चुकी आंखें खोलीं— आवाज की दिशा में देखा। ट्रेन का हार्न था... दूर एक प्रकाश पुंज उसकी ओर दौड़ा चला आ रहा था। पटरियां उससे थोड़ी ही दूर पर थीं— उनमें होती धड़धड़ाहट वह अनुभव कर सकता था।

सहसा ही एक विचार उसके दिमाग में कौंधा। 

अगर वह पटरी पर लेट जाये तो मौत की तकलीफ कितनी देर सहनी पड़ेगी? शायद एक सेकंड और फिर मुक्ति! किसान ही तो था... गांव में ही दो अपने जैसे अन्नदाताओं के पेड़ से लटके शव देख चुका था। पूरे देश में आये दिन मरते रहते हैं। एक और भी मर जायेगा तो क्या फर्क पड़ जायेगा इस देश के लोगों को।

लोग फांसी क्यों लगाते हैं... यह तो बड़ी मुश्किल मौत है। जब फंदा गले पर कसता है और सांसें रूकती हैं तो कितनी छटपटाहट होती है। कितनी देर तक तड़पना पड़ता है... जबकि जिनके पास रेल की पटरी है वह तो कम तड़पाने वाली मृत्यु का वरण कर सकते हैं। रेलवे लाइन सिर्फ शौच के ही काम नहीं आती— एक मजबूर, बेबस और बर्बाद अन्नदाता के लिये किसी पेड़ का विकल्प भी तो बन सकती है।

उसकी धड़कनें अस्त-व्यस्त हो गईं। दिल हलक में धड़कने लगा और खून कनपटियों में बजने लगा। वह शोर करता धड़धड़ाता प्रकाश पुंज तेजी से उसकी ओर आ रहा था और वह सोच रहा था बस यही मौका है... यही मौका है!

वह उठ बैठा।

निढाल से शरीर में जान आ गई— जान देने के लिये। वह खड़ा हुआ और एक दृढ़ निश्चय के साथ पटरी की ओर कदम बढ़ा दिये।

मौत के फरिश्ते की शक्ल में ट्रेन हर पल पास आती जा रही थी।

अचानक एक तेज आवाज हुई और वह थमक गया।


एकदम से तो उसकी समझ में न आया कि क्या हुआ... फिर प्रकाश पुंज पटरी छोड़ता लगा और भीषण शोर के साथ वह एकदम से लहरा कर टेढ़ा होता उससे करीब सौ मीटर पहले ही उसके परली तरफ पटरी की साइड में उतर कर एक खड्डे में जा घुसा... और उछल कर जमीन शायद फाड़ता हुआ, कुछ दूर घिसटता हुआ, खिलावन से थोड़ा पहले ही रुक गया।

लेकिन उसके पीछे ही पूरी ट्रेन ने पटरी छोड़ दी थी और पीछे के डिब्बे एक दूसरे से भिड़ कर, एक दूसरे पर चढ़ते चले गये थे। कुछ पलों में इतना भयंकर शोर हुआ था जैसे कयामत आ गई हो और खिलावन का कलेजा कांप कर रह गया था।

पहले तो सिर्फ डिब्बों के टकराने का ही शोर गूंजा था और अंदर की सवारियों का शोर दबा रह गया था, लेकिन एक बार मैटालिक शोर थमते ही इंसानी चीख पुकार का सिलसिला शुरू हो गया था, जो लगता नहीं था कि थमने वाला था।

खिलावन सन्न खड़ा भौंचक्का सा उस नजारे को देख रहा था। उसके कान बुरी तरह बज रहे थे। आसमान पर मौजूद पूरे चांद की चांदनी उसे यह दिखाने के लिये पर्याप्त थी कि यह जैसा भीषण एक्सीडेंट दिख रहा था... उसमें आगे के डिब्बे वाले तो शायद सारे ही मारे गये हों, बीच के डिब्बे वाले अधमरे और गंभीर जख्मी हुए होंगे और पीछे के डिब्बे वाले ही होंगे जो चीख-पुकार मचाने की हालत में थे और वही शोर मचाये थे।

उसके दिमाग से पिछली सारी बातें निकल गईं और वह उधर बढ़ चला।

कुछ मिनट लगे उसे वहां तक पहुंचने में... बेहद दहला देने वाला नजारा था। डीजल इंजन और उस से टकराये आगे के तीन डिब्बों का तो एकदम कचूमर ही निकल गया था। पीछे के डिब्बे भी एक दूसरे से भिड़े छितराये पड़े थे। देखने के लिये चांदनी के साथ ही पीछे डिब्बों में मौजूद रोशनी भी थी जो जिंदा थी और कुछ इत्तेफाकन नाम के घायल हुए लोगों के मोबाइल की रोशनियां भी थीं।

अगले डिब्बे तो शांत थे... या तो लोग मर चुके थे या होश में ही नहीं थे। उनके पीछे वालों में हलचल दिख रही थी। कई डिब्बे ऐसे दबे थे कि निकासी के रास्ते ही ब्लॉक हो गये थे और अंदर वाले इस हालत में नहीं थे कि खुद से निकलने की कोशिश कर सकते या जहां लोग इस हालत में थे भी और फंसे हुए थे तो रो-रोकर चीख-पुकार मचा रहे थे।

हां बीच के कुछ डिब्बों और पीछे के डिब्बों से कुछ लोग निकलने की कोशिश करने लगे थे।

जाहिर है कि हर किसी को मदद की जरूरत थी और वह अकेला किसी लायक नहीं था। वह कांपते दिल और रोंगटे खड़े कर देने वाले नजारे के साथ आगे बढ़ता रहा।

दुर्घटनाग्रस्त हुई ट्रेन का शोर इतना जबरदस्त था कि आसपास जो भी गांव मजरे थे उनके लोग शोर करते उस ओर दौड़ पड़े थे और देखते-देखते घटनास्थल पर पहुंचकर आवाजें करते हुए उसी फ्रेम का अंश बन गये थे।

खिलावन का ध्यान उनकी तरफ नहीं था— वह तो मौत से जूझते लोगों को देख रहा था।

फिर उसकी नजर एक ऐसे शख्स पर पड़ी जो घिसटता हुआ किसी तरह डिब्बे से निकल आया था और अब अपने हाथ में थमे मोबाइल से अपने सर में हाथ फिराने के बाद, खून से सन गया अपना हाथ देख रहा था। खिलावन उसी के पास रुक कर उसे देखने लगा। शायद एसी कोच से निकला था— पहनावे से कुलीन वर्ग का लगता था। हाथ में दो सोने की अंगूठियां भी थीं और गले में सोने की चेन भी, जो खिलावन की आंखों में चुभ रही थी। उसके सफेद कपड़ो पर जगह-जगह खून लगा दिख रहा था।

उस शख्स ने भी खिलावन की उपस्थिति को महसूस कर लिया और उसकी तरफ देखने लगा। मोबाइल उसके हाथ से फिसल गया।

"हेल्प— हेल्प!" उसने खिलावन की तरफ हाथ बढ़ाते हुए बेहद कमजोर आवाज में कहा।

लेकिन खिलावन अपनी जगह जड़ था। उसके दिमाग में वह अंगूठी और चेन नाच रहे थे। वह बड़ा आदमी था तो बटुए में पैसे भी होंगे। फिर उसे आसपास देखते झटका-सा लगा। क्या सोचने लगा था वह... शायद उस बेचारे बाबू का सर बुरी तरह फट गया था और उसे मदद की जरूरत थी।

पर मदद की जरूरत तो उन दो कुलबुलाते पेटों को भी थी, जिन्हें वह पीछे बेआसरा छोड़ आया था। उस दुलारी को भी थी जो बच्चा जनने के नाम पर मौत के मुंह में जा रही थी। कौन बड़ा होना चाहिये उसके लिये— किसे प्राथमिकता देनी चाहिये उसे? वह अजीब अंतर्द्वंद में फंस गया।

उसकी तरफ उम्मीद भरी नजर से देखते हुए बाबू बेहोश होकर अब वहीं फैल गया था।

हां खिलावन के बस में था कि वह उसी के मोबाइल की रोशनी में देख कर उसके जख्म को कपड़े से सख्ती से बांध देता कि खून का बहाव बंद हो सके, ताकि कोई डॉक्टरी मदद आने तक वह जिंदा बचा रह सके— लेकिन इस काम में उसकी सबसे बड़ी बाधा उस व्यक्ति की उंगलियों में मौजूद अंगूठियां, गले में मौजूद चेन और बटुए में मौजूद संभावित पैसा था, जो उसे अपनी और अपने परिवार की मौत से वापस खींच सकते थे। वह इस एक मौत को तरजीह दे या छः जनों की मौत को?

भयंकर अंतर्द्वंद में फंसे-फंसे उसने फिर सहमी-सहमी निगाहों से आसपास देखा।


बहुत से नये लोग वहां पहुंच गये थे जो आसपास के रहने वाले थे। जिनमें वे भी थे जो 'इंसान' थे और वे भी थे जो 'गिद्ध' थे और सहज उपलब्ध हो गये भोज का स्वाद लेने पहुंच गये थे। इंसान लोगों की मदद करने में लगे थे और गिद्ध चुपचाप डिब्बों में जलती रोशनी या और रोशनियां पैदा करते मोबाइल बुझा रहे थे, ताकि प्रकाश उनके भोज में बाधा न बन सके। हां प्रकाश तो पाप का शत्रु है न... उसकी उपस्थिति ठीक नहीं। उनमें कुछ वे रहे होंगे जो स्वभाव से गिद्ध होंगे और कुछ वे रहे होंगे जिन्हें उनकी मजबूरियों और जरूरतों ने गिद्ध बना दिया होगा।

खिलावन ने भी एक जोर की झुरझुरी लेते हुए महसूस किया कि उसकी पीठ पर बड़े-बड़े पंख उग आये हैं और मुंह चोंच सरीखा हो गया है। जो उसके सामने था, वह मदद की उम्मीद में मरता हुआ इंसान नहीं था बल्कि उसका भोज था।

गिद्ध भोज शुरु हो चुका था— उसने भी पंजे से रोशनी फेंकते मोबाइल को पलट दिया कि प्रकाश उसके अस्तित्व को छू न सके और पाप भरे अंधेरे से आत्मसात हो जाये। अब वह अंगूठियां उतार सकता था, वह चेन उतार सकता था, वह बटुआ निकाल सकता था।

उसके पास एक मौका था जब वह देवता बन सकता था लेकिन उसने एक अति साधारण इंसान बन जाना बेहतर समझा... उसके साथ जुड़े पेट और उसकी जरूरतें उसकी इंसानियत पर अंततः भारी पड़ गये थे।

(मेरी किताब गिद्धभोज से ली हुई एक कहानी)


Written by Ashfaq Ahmad

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