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वन्स अपॉन ए टाइम इन कश्मीर 3

वन्स अपॉन ए टाइम इन कश्मीर 3


सभी की तंज़िया निगाहें हम पर मर्कूज़ थीं। फिर गावं का मुखिया निहाल बट्ट
, जो ठाकुरों का ही आदमी था, मँझले ठाकुर के इशारे पर बोला— “पुलिस बाबू… यह शरीफों का गावं है…किसी शहर का तवायफ बाज़ार नहीं जो आप गावं की बहन बेटियों के साथ रंगरलियां मनाते फिरें।”

“क्या बकवास कर रहे हो! किसके साथ रंगरलियां मना रहा हूँ मैं।” मेरा जी चाहा कि मैं उसे कस के थप्पड़ जड़ दूँ लेकिन इतने लोगों की मौजूदगी की वजह से कसमसा कर रह जाना पड़ा।

“इसके साथ,” वह अफ़साना की तरफ ऊँगली उठा कर चिल्ला पड़ा, “इस लड़की के साथ रंगरलियां मना रहे हैं आप। नरसों रात आप इसके साथ इसके घर पर थे… मैंने अपनी आँखों से देखा और आज फिर इसके साथ बाग़ में अपनी हवस की प्यास बुझा  कर आ रहे हैं… आज यह है कल इसकी जगह हमारी बहन बेटी भी हो सकती है। यह सब यहाँ नहीं चलेगा पुलिस बाबू… क्यों  भाइयों, बोलते क्यों नहीं।”

भीड़ एकदम से जोश में आकर चिल्लाने लगी… मुझे पता था कि जुबानें उन ग्रामीणों की थी पर शब्द उन ठाकुरों के थे, लेकिन इन जाहिलों को कैसे  समझाया  जाए। वस्तुस्थिति वाकई अजीब हो चली थी। एकदम से बने इन हालात में अफ़साना भी घबरा गयी थी। हम अपनी सफाई दे सकते थे लेकिन बहरे कर दिये गये उन कानों तक वो सफाई पहुंचनी मुश्किल लगी। अब मंझले ठाकुर डोगरी में कुछ  चिल्लाने लगे थे और भीड़ का जोश था कि बढ़ता ही जा रहा था। इस माहौल में एक ही  चीज़ उन्हें शांत कर सकती  थी— हवाई फायर। मैंने पिस्तौल की तरफ हाथ बढ़ाया ही था कि एक पत्थर आकर मेरे सर पर लगा।

फिर न जाने कितने हाथ एकदम से मुझ पर टूट पड़े… अफ़साना की एकाध चीख ही मेरे कान तक पहुँच सकी, फिर कुछ भी सुनाई देना बंद हो गया।  घूंसे लातें सहते मेरा जिस्म एकदम से गर्म हो  गया।

तभी गोली चली… सभी थमक गये।

दो गोलियां और चलीं और सन्नाटे में शोर सा गूंजा… फिर सभी भाग खड़े हुए।  मैंने बड़ी मुश्किल से आँख खोली तो नवाज़ साहब मुझ पर झुके हुए थे।  इसके बाद मैं बेहोश हो गया।

फिर होश आया तो गिलगित के सरकारी अस्पताल में था। पूरे शरीर में चोटें आई थीं— जहाँ तहाँ पट्टियां दिख रही थीं।एक हाथ टूट गया था, जो अब प्लास्टर के खोल में कैद था।पूरे बदन में चोटों का एहसास हो रहा था… जहाँ तहाँ टीसें उठ रही थीं। मेरा हौसला बढ़ाने के लिये नवाज़ साहब वहां मौजूद थे।

दो रोज़ बाद मुझे ज़रूरी इंस्ट्रक्शंस के साथ अस्पताल से डिस्चार्ज कर दिया गया। मैं टूटा हाथ लिये डेरा जमाल आ गया।  इस बार मुझे घटना के दोषियों के बारे में पता था लेकिन क्या सजा देता मैं उन गुलामों को। ननका और बदलू के बारे में अब भी कुछ पता नहीं था…ननका पुलवामा का रहने वाला था और बदलू रंगकोट का… दोनों के घर उनकी गुमशुदगी की खबर पहुंचा दी गयी थी। फिर दो दिन बाद ठाकुरों को एकबार फिर चेता कर नवाज़ साहब फ़ोर्स लेकर चले गये। ननका और बदलू की जगह दो दूसरे कांस्टेबल राम औतार और अमरजीत को यहाँ छोड़ गये।

शाम के वक़्त चौकी के सहन में कुर्सी डाले मैं फ़ज़्लू के साथ बैठा था कि अफ़साना आ गयी। उसके शरीर पर वही कश्मीरी लिबास था और हाथ में एक डिब्बा।

“आदाब मलिक साहब।” वह मुस्कराते हुए बोली।

“आदाब ̶  आओ आओ। खैरियत तो है।”

“जी ̶  आज मैंने शीर खोरमा बनाया था ̶  सोचा आप को भी चखा दूँ।”

“अच्छा… लाओ। मुझे बहुत पसंद है।” मैंने डिब्बा उसके हाथ से लेकर खोला… उसने दूसरे हाथ में पकड़ा चमचा थमा दिया। खुद वह ज़मीन पर उकड़ूँ बैठ गयी।

“अरे-अरे क्या करती हो… उठो उठो। फ़ज़्लू, एक कुर्सी लाओ।”

“आप बैठिये बीबीजान।” फ़ज़्लू उठता हुआ बोला, ”तब तक मैं बन्दूक की सफाई कर लेता हूँ।”

फ़ज़्लू भीतर चला गया… उसकी खाली कुर्सी पर अफ़साना बैठ गयी और मैं बड़े आराम से शीर कोरमा खाने लगा।

“तुम्हें मेरे पास आते डर नहीं लगा ̶  गावं वाले फिर तुम पर इलज़ाम लगाएंगे।”

“उन्हें भी पता था कि उनके इलज़ाम में कितनी सच्चाई थी।  मुखिया के बहकावे में वह आ तो गये थे लेकिन बाद में सब अफ़सोस कर रहे थे।” उसने नीचे देखते हुए कहा।

फिर काफी देर हम दोनों के बीच चुप्पी छायी रही ̶  मैंने शीर खोरमा ख़त्म कर दिया।

“एक बात पूछूँ?” उसने निगाहें उठा कर मुझे देखा।

“हां-हां पूछो।” मैंने फ़ज़्लू का लाया गिलास भर पानी गटकते हुए सर हिलाया।

“अ…आपकी शादी हो गयी?” पूछते हुए उसकी आवाज़ जाने क्यों काँप सी गयी थी।

“अभी नहीं… लेकिन तय है। मैं पठानकोट का रहने वाला हूँ… मेरे परिवार में मां के सिवा कोई नहीं। मेरी एक खाला बनिहाल में रहती है… उसी की बेटी है समरीन। बचपन से मेरी शादी तय है लेकिन देखो होती कब है।”

“आप बहुत चाहते हैं उसे।”

“पता नहीं। अब पता हो कि किस लड़की से शादी होने वाली है तो उसे लगाव तो हो ही जाता है, लेकिन उसे मुहब्बत का नाम देना ठीक नहीं।”

वह थोड़ी देर पाँव के अंगूठे से ज़मीन कुरेदती रही, फिर उठ खड़ी हुई और डिब्बा चम्मच लेकर “आदाब” कर के चली गयी। शाम गहराने लगी थी। राम आसरे कन्दीलें रोशन करने लगा और मैं एक छोटी गश्त के लिये उठ खड़ा हुआ।

शरीर की बाकी चोटें तो आठ नौ दिन में ठीक हो गयी थीं लेकिन हाथ ठीक होने में दो महीने लग गये थे। इस बीच सेब और आलूबुखारे की फसल तैयार हो गयी थी। उन्हें उतार लिया गया था… अब अखरोट भी पेड़ों से उतारे जाने लगे थे। बारिश के मौसम का अंत हो चुका था और अब आगे सख्त जाड़े और बर्फ़बारी के  मौसम का इंतज़ार था।

इस बीच गावं में जो सदियों से होता आ रहा था, वही अब भी हो रहा था ̶  झगडे, ख़ूनख़राब, बलात्कार… सारे  कर्म होते  थे लेकिन रिपोर्ट लिखाने चौकी आने की ज़हमत कोई नहीं उठाता था। यही  वजह थी कि स्थापना के तीन माह बाद भी चौकी का रजिस्टर सूना ही रहा। ठाकुरों ने टकराने के बजाय कतरा के निकल जाने का नियम बना लिया था… हां, उनके हुक्म के चलते गावं का कोई बच्चा पढ़ने नहीं बैठा और अफ़साना का स्कूल भी चौकी के रजिस्टर की तरह खाली ही रहा। वह तो बुरी तरह हताश हो चली थी।

सुबह का वक़्त  था… अभी सूरज नहीं निकला था। आसमान पर सफेदी फैली हुई थी। पंछी शोर मचा रहे थे। गावं में जाग हो गयी थी…कल मिटटी का तेल ख़त्म हो गया था जिसे गिलगित से लाना पड़ता था, इसलिए सुबह का नाश्ता हमें गावं के इकलौते होटल से करना था।  रोज़मर्रा की हाज़तों से फारिग होकर मैं होटल की तरफ चल पड़ा… मेरे साथ रामऔतार भी था।  उसे नाश्ता करके गिलगित निकल जाना था।

बीच गावं में मुखिया के घर के पास ही एक देहाती सात आठ साल के बच्चे को पीट रहा था और वह रोता हुआ कुछ चिल्ला रहा था। देहाती भी कुछ चिल्ला रहा था लेकिन उनकी बातें डोगरी में हो रही थीं। मुझसे रहा न गया तो मैंने देहाती का हाथ पकड़ लिया।

“अरे-अरे, क्यों मार रहे हो बच्चे को।”

“साहेब… यह मेरा बच्चा है। मैं इसे पीट भी सकता हूँ… मार भी सकता हूँ।”

“हाँ ज़रूर-ज़रूर…” मैं थोड़े नरम लहज़े में बोला, ”लेकिन कोई वजह भी तो हो भाई।”

“वजह है न साहेब…यह कहता है पढ़ेगा। अफ़साना बाजी इसे पढ़ाएंगी।” फिर उसने भीगी आँखों के साथ हाथ जोड़ दिये, ”और साहेब…आप को तो मालिकों का हुक्म  पता ही होगा। हम जानते हैं कि पढाई अच्छी बात है मगर इसकी पढाई मेरे पूरे परिवार को ख़त्म करा डालेगी।”

“ओह…तो यह बात है। अच्छा बताओ कि हममें और ठाकुरों में कौन ज्यादा ताक़तवर है। ठाकुरों ने जो हमारे खिलाफ ताक़त दिखाई वह रात के अँधेरे में चोरों की तरह दिखाई लेकिन हमने…दिन दहाड़े तुम सब की आँखों के सामने उनके लठैतों को पकड़ा, हफ्ता भर बंद रख के पीटा… छोटे ठाकुर को पकड़ का खींचते हुए चौकी ले गये… कितने ही लोगों के सामने उन्हें पीटा गया। क्या बिगाड़ सके वह हमारा…फिर भी उनसे ज्यादा ताक़तवर होने के बावजूद मुझे तुम लोगों ने ̶  ठाकुरों ने नहीं… तुम लोगों ने पीट लिया… और हम सैकड़ों होते हुए भी…हुकूमत से जुड़े होते हुए भी— हम तुम्हारा कुछ नहीं बिगाड़ सके। जानते  हो क्यों… क्योंकि तुम एक नहीं अनेक थे… तुम एक समूह थे… एक भीड़ थे… अनेक होते हुए भी एक थे। इसी ताक़त की वजह से तुम हमें मार पाने में कामयाब हुए और अगर इस्तेमाल कर सको तो यही ताक़त तुम्हारा सबसे बड़ा हथियार है।”

इस बीच आते-जाते सारे लोग वहीँ खड़े होकर हमारी बातें सुनने लगे थे। मैंने अपनी बात जारी रखी–-

“याद रखो— तुम भी भी मेरी और ठाकुरों की तरह  इंसान हो। तुम्हारी पैदाइश गुलामी करने के लिये नहीं हुई। तुम भी आज़ाद इंसान हो और तालीम ही तुम्हे आज़ाद होने का एहसास दिल सकती है।  तुमने नहीं हासिल की पर इन मासूम बच्चों को तालीम हासिल करने से मत रोको… कुछ नहीं बिगड़ेगा तुम्हारा— अगर तुम उसी तरह एक हो जाओ जैसे उस दिन मेरे खिलाफ एक हो गये थे। चलो बेटे।”

वह शख्स देखता रहा और मैं उसके बेटे को लिये अफ़साना के स्कूल आ गया, जहाँ रोज़ की तरह आज भी अफ़साना सूनी आँखों से किसी तालिब इल्म  का इंतज़ार कर रही थी। एक बच्चे को पाकर उसे वैसी ही ख़ुशी मिली जैसे किसी प्यासे को पानी मिलने पर होती है। वह उसे पढ़ाने बैठ गयी।

मैंने भी पास के एक घर से एक कुर्सी माँगा ली और वहीँ जम गया। रामऔतार ने मुझे वहीं नाश्ता ला दिया और खुद गिलगित चला गया। अफ़साना पूरी तवज्जो से उस अकेले बच्चे को पढ़ा रही थी… सूरज अब निकल आया था। यह नया सूरज उस बच्चे के नाम था जिसे ठाकुरों का खौफ पढ़ने से न रोक सका… जो भी  यहाँ से गुज़रता, उसे हैरत होती। धीरे-धीरे वहां ढेर से बच्चे जमा हो गये और दिलचस्पी से उस इकलौते बच्चे को पढ़ते देखने लगे।

“बच्चों,” मेरे पुकारने पर वह मुझे देखने लगे, ”क्या देख रहे हो… यह तालीम का फल तुम्हारे लिये ही है। आगे बढ़ो और हासिल कर लो। कोई नहीं रोक सकता तुम्हे… मैं हूँ न। तालीम ज़हन को रोशन करने के लिये होती है… क्या तुम हमेशा अपने बुज़ुर्गों की तरह अँधेरे में डूबे रहोगे… इन अंधेरों ने तुम्हारे बाप-दादाओं पर कितने ज़ुल्म ढाये हैं… क्या तुम उनसे छुटकारा नहीं चाहते?”

बच्चे कश्मकश में दिखे।

“बेटे,” मैंने उस पढ़ने वाले बच्चे से कहा— “तुम्हारे दोस्त कश्मकश में हैं। इन्हें वही डर रोक रहा है जो तुम्हे नहीं रोक पाया। इन्हें बुलाओगे नहीं।”

बच्चा खड़ा हो गया और उनसे मुखातिब होकर बोलने लगा, ”पहला हर्फ़ है अलिफ…अलिफ से अल्लाह। अल्लाह सबसे बड़ा है… दूसरा हर्फ़ है बे… बे से बुराई… बुराई इंसानों को अल्लाह से दूर कर देती है। बाजी कहती है हमें सिर्फ अल्लाह से डरना चाहिये… किसी इंसान से जो डरते हैं वह बुज़दिल कहलाते हैं और हम बुज़दिल नहीं हैं।”

बच्चे की बात बच्चों की समझ में आयी।  वह ख़ुशी ख़ुशी पढ़ने बैठ गये। अफ़साना की आँखें ख़ुशी से भीग गयीं और मेरे इशारे पर वह फिर उन्हें पढ़ाने लगी। इस छोटे से स्कूल को देखते लोगों में सरगोशियाँ शुरू हो गयीं। यह ठाकुरों की सल्तनत में बगावत का नया बिगुल था जिसकी आवाज़ उनके कानों तक ज़रूर पहुंचनी थी। तकरीबन एक घंटे बाद बड़े  ठाकुर अपने लाव लश्कर के साथ बड़े आक्रामक मूड में हाजिर थे। पूरे गावं में एकदम से सन्नाटा सा खिंच गया। हालाँकि वहां मुझे देख उनके तेवर थोड़े नरम ज़रूर पड़े।

“गंगवा,” बड़े ठाकुर की गरजदार आवाज़ पर सारे देहाती काँप उठे, ”हमारे मना करने के बावजूद तेरा बेटा पढ़ने बैठा।”

गंगवा नामक शख्स ने झपट कर बड़े ठाकुर के पाँव पकड़ लिये और गिड़गिड़ा उठा—“माफ़ी चाहता हूँ बड़े मालिक… हमने तो अपनी अब तक की ज़िन्दगी आपके जूतों में गुज़ार दी है बड़े मालिक और बची खुची भी आपके पैरों में ही गुज़ार देंगे लेकिन मेरे बेटे को पढ़ लेने दीजिये… उसे उसकी मर्ज़ी की ज़िन्दगी जी लेने दीजिये… बड़े मालिक। पढ़ लेने दीजिये उसे…।”

“दूर हट।” क्रोध से उफनती आवाज़ के साथ बड़े ठाकुर ने गंगवा  के मुंह पर लात जड़ दी और वह परे लुढ़क गया।

उसे सहारा देकर मैंने उठाया।

“बड़े ठाकुर… अब मेरी सुनिये। यह छोटा सा स्कूल चल रहा है, इसे चलने दीजिये वरना यहाँ आसपास आठ दस मील तक किसी भी गावं में कोई स्कूल नहीं है। हम कोशिश करेंगे तो अंग्रेज़ सरकार यहाँ एक बड़ा सा स्कूल खोल देगी। यह हिंदुस्तानी हैं… आप इन्हें दबा सकते हैं, मजबूर कर सकते हैं लेकिन  उस स्कूल से अंग्रेज़ जुड़े होंगे जिन पर आप की कोई पेश नहीं चलेगी। जिन्हें आप दबाने की कोशिश करेंगे तो आप सारे के सारे सालों के लिये जेल में नज़र आएंगे। और हाँ— एक  चेतावनी आप को जाती तौर पर मैं देता हूँ कि इस बार किसी सबूत या गवाह की ज़रूरत नहीं  पड़ेगी क्योंकि मेरे सामने ही आप इन लोगों को धमकाने आये हैं। अब इस स्कूल में पढ़ने वाले किसी बच्चे पर या इनके घर वालों पर आपने कोई ज़ुल्म किया तो आपके कुनबे के किसी और शख्स का कुछ बिगड़े न बिगड़े लेकिन आप अंग्रेज़ हुकूमत के हाथ सीधे-सीधे मौत की सजा पाएंगे।”

अंगारे बरसाती निगाहों से सभी को घूरते बड़े ठाकुर अपने लश्कर के साथ कूच कर गये।

इस घटना को हफ्ता गुज़र गया… अफ़साना बड़ी खुश थी कि उसका स्कूल फिर चालू हो गया था। सुबह से दोपहर तक, जब तक स्कूल चलता, दो कांस्टेबल बंदूकें लिये वहीँ बैठे रहते…इस सब को देखते गावं वालों की सोच भी थोड़ी बदली थी।

फिर एक दिन सुबह-सुबह आकर अमरजीत ने यह मनहूस खबर सुनाई कि किसी ने रातीराता हैदर शाह की ज़ाफ़रान की फसल बर्बाद कर डाली थी… लेकिन इस बर्बादी का ज़िम्मेदार सीधे ठाकुरों को भी नहीं ठहराया जा सकता था क्योंकि हैदर शाह की दुश्मनी पास के चौहरा गावं के चौधरी शाह ज़मान से भी चलती थी और अब वह पागल हो रहा था।

मैं सीधा हैदर शाह के घर की तरफ रवाना हो गया।

जिस घड़ी मैं वहां पहुंचा, वहां कोई नहीं था… घर का बड़ा दरवाज़ा खुला पड़ा था। मैं अफ़साना को पुकारता भीतर दाखिल हुआ।  पूरे घर की हर चीज़ बिखरी पड़ी थी… मैं हर तरफ नज़र दौड़ाता आँगन में पहुंचा। हैदर शाह वहां पड़ा था… उसकी आँखें फटी हुई थीं और मुंह खुला। शरीर में कोई हरकत नहीं थी और हाथ की मुख्य नस कटी हुई थी जहाँ से अब भी खून बह रहा था। बांह के पास खून का थाल इकठ्ठा हो चुका था। हैदर शाह के मुर्दा जिस्म के पास ही एक चाकू पड़ा था जिसके फल पर खून साफ़ दिख रहा था।

फिर मैं पूरे घर में फिर गया लेकिन अफ़साना कहीं नहीं थी।

हैदर शाह की लाश वैसे ही पड़ी थी।  पहली नज़र में देखने पर यह सीधा ख़ुदकुशी का केस लगता था लेकिन मेरी नज़र में यह क़त्ल था।

( क्रमशः:)
Written by Ashfaq Ahmad



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