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वन्स अपॉन ए टाइम इन कश्मीर 4

वन्स अपॉन ए टाइम इन कश्मीर 4


माना कि हैदर शाह का नुक्सान हुआ था लेकिन क्या यह नुकसान इतना बड़ा था कि वह खुदकशी कर ले। मुझे यह बात जमी नहीं… फिर उस सूरत में अफ़साना को घर होना चाहिये  था।

मैं अफ़साना को आवाज़ें लगाता बाहर निकला… मुझे साफ़ लग रहा था कि हैदर शाह को ख़त्म करके अफ़साना को उठाया गया है लेकिन यह हरकत किसकी हो सकती थी… ठाकुरों की या ठाकुरों की दुश्मनी की आड़ में चौधरी शाह जमान की?

बाहर  मेरा घोडा तैयार था…मैं घोड़े पर सवार होकर सीधा अफ़साना के स्कूल पहुंचा जहाँ उसके विध्यार्थी मौजूद थे। मैं घोड़े से उतर कर उनके पास आ गया।

“देखो बच्चों… तालीम इंसान को अपने एक आज़ाद इंसान होने का अहसास दिलाती है… ज़िन्दगी जीने के दस रास्ते दिखाती है। तालीम की यही रोशनी तुम्हारे बाप दादाओं को नहीं मिली और उन्होंने अपनी ज़िन्दगी गुलामी करते करते हुए ठाकुरों के जूतों में गुज़ार दी। वह लोग तुम से भी यही चाहते हैं और इसीलिये वह लोग नहीं चाहते कि तुम लोग पढ़ सको।  जब वह तुम्हें पढ़ने से नहीं रोक सके तो तुम्हारी अफ़साना बाजी को ही उठा लिया। अगर तुम अफ़साना बाजी को चाहते हो… अगर तुम लोग तालीम पाना चाहते हो तो सबसे पहले ज़ुल्म के खिलाफ सर उठाना सीखो।”

सारे बच्चे मुझे देखते रहे और मैं घोड़े पर सवार होकर वहां से रवाना हो गया।

पहले  मैं सीधा चौकी पहुंचा— वहां  ज़रूरी निर्देश देकर चौहरा गावं की ओर रवाना हो गया जो कोई डेढ़ कोस की दूरी पर उत्तर पश्चिम में स्थित था।

वह गावं डेरा जमाल से छोटा था, जिसके बीच में चौधरी की हवेली खड़ी थी… यह ठाकुरों जितनी बड़ी तो नहीं थी लेकिन फिर भी थी शानदार। मैंने दरवाज़े से अपने आने की खबर भिजवाई और थोड़ी ही देर में मुझे भीतर बुला लिया गया। एक नौकर मुझे सजी धजी बैठक में छोड़ गया, जहाँ जब तक शाह ज़मान आता तब तक मेरे लिये बादाम भरा दूध का गिलास आ चुका था।

“आदाब।” उसने  धीरे से कहा और बैठ गया… वह खूब गोरे चेहरे और काली दाढ़ी वाला लम्बा  चौड़ा आदमी था।

मैंने उसके अभिवादन का उत्तर दिया।

“दूध पीजिये जनाब।” उसने आग्रह किया।

गिलास होंठों से लगा कर एक लम्बा घूँट भर कर मैंने उसे वापस रख दिया— “मैं आपसे कुछ पूछताछ के लिए आया हूँ चौधरी साहब।”

“पूछिए।” उसके माथे पर बल पड़े।

“हैदर शाह से आपकी क्या दुश्मनी थी?”

“थी से क्या मतलब…आपको क्या लगता है कि अब ख़त्म हो गयी है। अरे जब तक हम ज़िंदा हैं यह दुश्मनी भी ज़िंदा रहेगी।”

“वजह क्या है इस झगडे की?”

“ज़मीनों का झगड़ा है साहब… कुछ ज़मीनें हैं जो मेरे कब्ज़े में हैं। वह उन पर अपना दवा करता है।”

“क्या यह दुश्मनी इतनी गहरी है कि इसके लिये वह आपका या आप उसका क़त्ल करने की सोच लें।” मैंने बात को दूसरे रुख से रखा और वह थोड़ी देर के लिये सोच में पड़ गया।

“छोटे छोटे गावों में ज़मीन जायदाद के झगडे तो होते ही रहते हैं और इसके लिये यूँ तो कभी-कभी नौबत क़त्ल की भी आ जाती है मगर ऐसा तभी होता है जब दोनों पार्टी बराबर की हों। हाँ हमारा झगड़ा हमारे बापों के ज़माने से चल रहा है लेकिन ऐसी कोई कोशिश हमारी तरफ से इसलिये नहीं हुई कि ज़मीनें तो हमारे पास हैं ही, वह दावे करते रहें… और ऐसी कोई कोशिश उनकी तरफ से इसलिये नहीं हुई कि वह एक अमीर किसान भर हैं और हम चौधरी… हमसे टकराना उनके बस की बात नहीं।”

“आपने हैदर शाह की बेटी अफ़साना को देखा है?”

“तब देखा है जब वह आठ  साल की थी— फिर तो हैदर शाह ने उसे कहीं बाहर भेज दिया था। आप उसके बारे में क्यों पूछ रहे हैं?”

अभी तक उसकी बातों से नहीं लग रहा था कि उसे हादसे के बारे में कुछ भी पता है। मैंने बात को उलटी तरफ से रखा— “क्योंकि आज तड़के हैदर शाह का क़त्ल हो गया… रात उसकी फसल बर्बाद कर दी गयी और उसकी बेटी अफ़साना को गायब कर दिया गया… और यह काम आपके सिवा कोई नहीं कर सकता।”

वह एकदम से खड़ा हो गया… गोरा चेहरा गुस्से से तमतमा गया, मुट्ठियाँ भिंच गयीं… एकबारगी उसका वजूद कांप सा गया। वह लहराती आवाज़ में बोला, “आप तमीज की हद लांघ रहे हैं… तोहमत लगा रहे हैं मुझ पर। गावं में ज़रूर रहता हूँ लेकिन कानून के बारे में जानता हूँ… क्या सबूत है आपके पास कि मैंने ऐसा किया है… जिसके बारे में मुझे अभी आपके मुंह से सुन कर पता चल रहा है कि ऐसा हुआ है।”

इसके बाद वह वहां रुका नहीं…कालीन रौंदता बाहर निकल गया। अब मेरे लिए वहां रुकना बेकार था।

मैं वापस लौट पड़ा।

शाह ज़मान के साथ बातचीत में लगा नहीं कि वह गुनहगार था। ज़मीनों के झगड़े में इतना बड़ा कदम तब नहीं उठाया जा सकता था जब ज़मीनें पहले से ही एक ताक़तवर आदमी के कब्ज़े में हों। अब मुझे यकीन हो गया कि सारा किया धरा ठाकुरों का ही है।

मैं वापस डेरा जमाल पहुंचा तो कांस्टेबल हैदर शाह की लाश ले आये थे। वहां पोस्टमार्टम की व्यवस्था तो थी नहीं… लाश का पंचनामा कर दिया गया। सारे कांस्टेबल अफ़साना की तलाश में दौड़ा दिये, लेकिन वह न मिली। शाम तक जब अफ़साना वापस न आई तो हैदर की मिटटी हमने कर दी।

इस बीच सारे गावं में खुसुर फुसुर चलती रही लेकिन ठाकुरों की तरफ से कोई सुनगुन नहीं हुई… जिससे मुझे पक्का यकीन हो गया कि घटना के पीछे वही थे। मुझे उम्मीद थी कि शौकत मुझ तक पहुंचेगा लेकिन वह भी न आया और उसी के इंतज़ार के कारण वक़्त हो गया और मैं तलाशी के लिए हवेली न जा सका। अलबत्ता दो हवलदारों को मैंने हवेली पर नज़र रखने के लिये ज़रूर भेज दिया।

रात गुज़री… सुबह हुई तो हवा में नया शोशा तैर रहा था…अंग्रेज सरकार के हाथ फांसी की सजा पाया भटिंडा का एक मुजरिम गुरबचन उस इलाके में देखा गया था। अगर वह यहाँ आया है तो देर सवेर अंग्रेज सिपाही भी ज़रूर पहुंचेंगे। मैंने उसकी तरफ से ध्यान हटा लिया और रोजाना के कामों से फारिग होने लग गया।

उस वक़्त मैं दातून कर रहा था जब गावं का सोलह सत्रह साल का एक लड़का हांफ़ता हुआ मुझ तक पहुंचा-- “साहब… वह… वह… उधर…”

वह ठीक से बोल नहीं पा रहा था लेकिन एक तरफ इशारा कर रहा था। मेरी समझ में यही आया कि हो न हो कोई बात ज़रूर है। मैं तेज़ी से उसके साथ उस तरफ बढ़ लिया… उधर कुछ खेत थे जिधर बहुधा लोग सुबह सवेरे शौच कि लिये जाते थे। दो खेतों के बीच मेढ़ पर कोई पड़ा तड़प रहा था।

मैं तेज़ी से लपक कर उस तक पहुंचा… और यह देख कर सन्न रह गया कि वह मेरा ही कांस्टेबल फ़ज़्लू था। उसके शरीर पर चाकू या छुरे के कई घाव थे, जहाँ से रिसता खून खेत की गीली मिटटी में जज़्ब हो रहा था। मैंने उसे उठाने की कोशिश की… पर वह तड़पने के कारण गिर पड़ा…उसके चेहरे पर और आँखों में बेपनाह दर्द के भाव थे।

“फ़ज़्लू… फ़ज़्लू… बोल, किसने किया है यह… बोल फ़ज़्लू… बोल…”

उसने मुंह तो खोला पर अलफ़ाज़ के बजाय खून ही बाहर आया— तब मुझे उसकी गर्दन पर भी एक घाव दिखा। तब तक वहीद और रामऔतार भी पहुँच गये थे… फ़ज़्लू ठंडा पड़ने लगा। हमारी समझ में कुछ नहीं आ रहा था कि हम क्या करें… और हमारे देखते-देखते फ़ज़्लू की ज़िन्दगी ख़त्म हो गयी। अब वह मुर्दा हमारे सामने पड़ा था… और उसका तमाम खून मेरी पतलून और बनियान पर लग  गया था।

हम उसे उठा कर चौकी ले आये।

जानकी और अमरजीत को हमने थाने रिपोर्ट के लिये भेज दिया और खुद छानबीन में लग गये कि आखिर क्या हुआ होगा… मेरे कुछ मातहतों का ख़याल था कि भटिंडा से फरार गुरबचन की हरकत हो सकती थी, तो कुछ का ख्याल था कि गुरबचन के नाम की आड़ में यह ठाकुरों का ही काम था लेकिन कोई प्रत्यक्ष गवाह न मिला जो ठीक-ठीक बता सकता कि क्या हुआ था और दोपहर तक की नाकाम छानबीन के बाद हम चौकी आकर बैठ गये और थाने से आने वाले लोगों का इंतज़ार करने लगे।

लेकिन शाम तक न ही थाने से कोई आया और न ही अमरजीत और जानकी वापस लौटे… तब मजबूरन हमें फ़ज़्लू का कफ़न दफ़न भी करना पड़ा…इस बीच हमें अफ़साना की भी कोई खबर न मिली थी।

फ़ज़्लू की मिटटी के बाद रामऔतार को चौकी में छोड़ कर मैं बाकी बचे चारों कांस्टेबल के साथ हवेली जा पहुंचा। इस मर्तबा बड़े ठाकुर ने हमें बड़े प्यार से बैठक में बिठाया।

“हमें आपके सिपाही के साथ हुए हादसे का पता चला… अफ़सोस हुआ। कहिये मैं आपकी क्या खिदमत कर सकता हूँ।” बड़े ठाकुर की यह अदा चौंकाने वाली थी।

“मेरे सिपाही की जान लेकर आपने जो जुर्म किया है उसकी सजा आपको ज़रूर मिलेगी।” मैंने पूरी सख्ती के साथ कहा तो एक पल के लिए उनके चेहरे के भाव बदले पर अगले पल वह फिर सामान्य हो गए।

“बिना सबूत इलज़ाम लगा रहे हो इंस्पेक्टर।”

“क्यों— आपके सिवा और कौन है इधर जो हमें क़त्ल करने का मंसूबा बनाये।”

“आजकल सुना है-– सरकार का एक ख़ास दुश्मन भी इधर ही है।” उनका इशारा गुरबचन की तरफ था।

“वह भी आप ही का छोड़ा शोशा है ताकि काम आप करें और नाम उसके आये।”

“ठीक है… तो ऐसे ही  सही— जाओ, उसे पकड़ो और साबित करो कि तुम्हारे सिपाही का क़त्ल उसने नहीं किया। मुझे क्या बताने आये हो।”

“मैं हवेली की तलाशी लेना चाहता हूँ।”

“बड़े शौक से।” कहते हुए वह खड़े हो गये।

उम्मीद के खिलाफ उनका यूँ तलाशी के लिये राज़ी हो जाना साफ़ इशारा करता था कि अफ़साना हवेली में नहीं थी। हम उठ खड़े हुए।

“मुझे गुरबचन की ही नहीं अफ़साना की भी तलाश है और आपकी रज़ामंदी यह बताने के लिए काफी है कि वह यहाँ नहीं हैं। हमें उम्मीद नहीं कि वह आपके रेस्ट हाउस में भी होंगे लेकिन हमारी तलाश जारी है और जैसे ही वह हमें मिले… आपकी आज़ादी के दिन ख़त्म।” मेरे लिए खुद को सम्भालना मुश्किल हो रहा था जबकि बड़े ठाकुर शांत दिख रहे थे।

हम वापस लौट आये।

रात हो चुकी थी… चौकी आकर पता चला कि अमरजीत और जानकी अभी तक नहीं लौटे थे। पता नहीं कहाँ फँस गये थे। गावं में सन्नाटा खिंच चुका था… लोग घरों में दुबक चुके थे… इस वक़्त हमारे पास भी सोने के सिवा कोई ऑप्शन नहीं था।

रात तो सोये… सुबह उठे तो लल्लन भी मर चुका था— उसका पूरा शरीर नीला पड़ा हुआ था। साफ़ ज़ाहिर था कि उसकी मौत सांप के काटने से हुई थी लेकिन यूँ एक के बाद एक मौत इत्तेफ़ाक़ नहीं हो सकती। ज़रूरी नहीं सांप यहाँ डसने के लिये आया हो… उसे लाया गया भी हो सकता था। मुझे किसी भारी गड़बड़ का आभास हो रहा था। लल्लन की लाश देखने के बाद मैंने सबसे पहला काम यह किया कि निजामू और रामऔतार को थाने की ओर रवाना कर दिया और खुद वहीद और राम आसरे को लिये गावं में भटकता लोगों की सुधबुध लेने लगा कि शायद कहीं से कोई सुराग मिल जाये।  पीछे  चौकी में अकेली लल्लन की लाश पड़ी थी।

भटकते हुए मैं अफ़साना के स्कूल के पास से भी गुज़रा… वहां आज तीसरे दिन भी उतने ही बच्चे मौजूद थे। शायद उन्हें उम्मीद थी कि उनकी अफ़साना बाजी किसी जादू के ज़ोर से लौट आएँगी।

दोपहर तक कोई सुराग न मिला तो हम वापस चौकी लौट आये… जहाँ सन्नाटा भांय-भांय कर रहा था।  पीछे ठेकी वाले से मैंने कह दिया कि दो कुन्टल लकड़ी गावं के श्मशान में पहुंचा दे। अब तो लल्लन का अंतिम संस्कार भी हमें ही करना था।

अभी मैं आफिसनुमा कमरे में बैठा हालात के बारे में गहराई से सोच ही रहा था कि तमाम आहटें गूँज उठीं। मेरे साथ ही वहीद और रामआसरे  भी उधर देखने लगे।

दरवाज़े पर बड़े ठाकुर प्रकट हुए… साथ ही उनके कुनबे के और  कई बेटे भतीजे भी थे… सभी के हाथों में बंदूकें थीं। वह सभी अंदर घुस आये… उनके पीछे ही अब्दुल घुसा— उसके साथ ही एक लम्बा चौड़ा सरदार भी था। मैंने पिस्तौल की ओर हाथ बढ़ाया ही था कि सारी बंदूकें मेरी तरफ तन गयीं और बड़े ठाकुर का कहकहा मेरे कानों में सुराख़ कर गया।

“तुम क्या समझते थे… तुम्हारे जैसे चंद अदने से लोग हमसे टक्कर ले सकते हैं— हमसे! अरे हम चुप थे तो इसलिये कि हमें मौके का इंतज़ार था।”

बड़े ठाकुर के इशारे पर अब्दुल ने आगे बढ़ कर मेरे होलस्टर से पिस्तौल निकाल लिया।

“यह गुरबचन है,” उन्होंने उस सरदार की ओर इशारा किया, “गोरी सरकार की गिरफ्त से भाग कर यह इधर ही आया था तो हमने इसे पनाह दी जिसका बदला इसने तुम्हारे दो सिपाहियों को हलाक करके दिया। हाँ— इस बार हमें मालूम था कि तुम मदद के लिये अपने सिपाही थाने की ओर दौड़ाओगे, इसलिये हमने पहले ही अपने आदमी वहां तैनात कर दिये थे और तुम्हारे दो बार में गये चारों सिपाही रास्ते में ही हमारे हाथ लग गये और अब तो घाटी की गहराइयों में उनकी लाशें चील कव्वे खा रहे होंगे। अब तो यह दोनों भी यूँ ही गायब हो जायेंगे और तुम भी… क्या साबित होगा? यही कि गुरबचन इस इलाके में आया था— तुम लोगों ने इसे गिरफ्तार करने की कोशिश की और यह तुम सबको ठिकाने लगा कर यहाँ से निकल गया। इसे हम रंगून अपने रिश्तेदारों के पास भेज देंगे।”

“अफ़साना कहाँ है?”

“हमारे पास ही… वह तो पहली लड़की है जिसने हमारे खिलाफ आवाज़ उठायी। उसे हम कैसे छोड़ देते। उसके बाप की फसल अब्दुल ने बर्बाद की थी और फिर हैदर शाह को भी इसी ने ही ठिकाने लगाया था और अब बारी उस लड़की की है। ले चलो।” बड़े ठाकुर के हुक्म पर कई बंदूकें हम तीनों के जिस्मों से सट गयीं और हमें चलने का इशारा किया। हम बंदूकों के साये में कसमसाते हुए बाहर आ गये।

बाहर आते ही अब्दुल चार बंदूकधारी कारिंदों और गुरबचन के साथ वहीद और राम आसरे को लिये खेतों की ओर चल पड़ा। यह सोच कर मेरा दिल काँप उठा कि वह लोग उन दोनों को क़त्ल करने के लिये ले  जा रहे थे लेकिन अंजाम तो मेरा भी यही होना था। यह सोचते ही ठण्ड के बावजूद मेरा जिस्म पसीने से चिपचिपा हो उठा। यह काफिला जिधर से भी गुज़रता— लोग दहशत से भरे देखते रह जाते।  यह काफिला मुखिया के घर के सामने रुका और फिर कारिंदे बाहर रह गये… मुझे लिये ठाकुर परिवार अंदर आ गया।

मुखिया का मकान दो मंज़िला और काफी बड़ा था… बीच आँगन में मेरे हाथ बाँध कर डाल दिया गया। फिर अफ़साना को सामने लाया गया। आज वह फिर नंगी थी। उसके जिस्म पर कोई कपड़ा नहीं था लेकिन आँखों में उम्मीद सी थी जो मुझे इस हाल में पड़े देख कर बुझ गयी। मैंने उसके चेहरे को देखा… न वहां शर्म थी, न डर… बस शिकस्त थी।

“इसी लड़की ने लोगों को बताया था न  कि बगावत किसे कहते हैं। आज इसे हम वह सजा देंगे कि लोग बगावत नाम के इस लफ्ज़ को भूल जायेंगे।” बड़े ठाकुर ने गुर्राते हुए कहा और अपने लड़कों को इशारा करके चले गये।

पीछे बचे उनके ग्यारह जवान लड़के…  दस बंदूकें लिये अफ़साना की तरफ पीठ करके खड़े हो गये और पीछे बचा एक जवान ठाकुर अफ़साना पर चढ़ बैठा। अफ़साना को भी शायद इसी अंजाम की  उम्मीद थी— उसने कोई विरोध नहीं किया लेकिन मेरा खून खौल उठा। मैंने उठने की कोशिश की— उसी पल बंदूकों की बटों के कई वार मेरे जिस्म पर हुए और मैं कराह कर रह गया।

मुझे अपनी आँखें बंद कर लेनी पड़ीं… यह सिलसिला तब तक चला जब तक उन ग्यारहों ने अपने तौर पर उसे बलात्कार की सजा न दे डाली। इसके साथ ही सूरज गुरूब का वक़्त भी हो चला था।  बाहर ठाकुरों के कारिंदों ने पूरे गावं को इकठ्ठा कर लिया था। जब सभी निपट चुके तो अफ़साना को बाहर खींच ले जाया गया… उसके पीछे ही मुझे भी। अफ़साना की हालत से ऐसा लग रहा था जैसे वह जीते जी मुर्दा हो चुकी हो।  गावं के सभी लोगों की निगाहें हम दोनों पर टिकी थीं।

“गौर से देखो तुम लोग,” बड़े ठाकुर गरज रहे थे— “यह वही लड़की है जिसकी नज़र हमारे जूतों से उठ कर हमारी आँखों तक पहुंची। यह वही लड़की है जिसने हमारे सामने बोलने की— हमारे खिलाफ खड़े होने की जुर्रत की। हम कुछ दिन चुप क्या रहे—  तुम लोगों ने हमें कमज़ोर समझ लिया। आज तुम्हें हम दिखाएंगे कि हम क्या हैं… इस लड़की और इस बदबख्त पुलिस वाले को वह सजा देंगे कि इन्हें और तुम सबको यह अहसास हो सके कि तुम सब गुलाम हो और तुम्हारी पैदाइश सिर्फ हमारी जूतियां चाटने के लिये हुई है।”

मैंने सामने देखा, जहाँ एक कमरे भर की बिना छत दीवार वाली मस्जिद बनी हुई थी, जिसे इस्लामाबाद से आये कुछ मुसलमानों ने आबाद किया था… जो इस्लाम की तब्लीग करते थे। क्या खुदा के घर के सामने यह ज़ुल्म होगा?

बड़े ठाकुर ने अफ़साना को खींच कर अपने सामने डाल दिया, “अब यह मेरा हुक्म है कि तुम में से हर मर्द इसके साथ जिना करेगा… तब तक, जब तक कि यह मर नहीं जाती और जो मेरा हुक्म नहीं मानेगा— वह गोली का शिकार होगा। गंगवा… तूने ही इसकी वकालत की थी न… पहले तू ही आ।”

तभी एक सनसनाता हुआ पत्थर आकर ठाकुर साहब के सर पर लगा। ठाकुर के मुंह से एकदम ही कराह निकल गयी… उनका सर फट गया और खून माथे पर बहने लगा। सभी की निगाहें उधर उठीं, जहाँ गंगवा का बेटा… अफ़साना का तालिब इल्म आँखें चढ़ाये खड़ा था। बंदूकें उस ओर तनीं… बड़े ठाकुर गुस्से से उबलते, धरती रौंदते बच्चे तक पहुंचे और एक भरपूर थप्पड़ बच्चे को जड़ दिया— बच्चा ज़मीन चाट गया।

“ठाकुर साहब।”

थप्पड़ की चोट माँ की कोख पर लगी। बच्चे की चीखती माँ को और कुछ न सूझा तो उसने वहीँ पड़ा एक पत्थर खींच मारा, जो बड़े ठाकुर के मुंह पर लगा और वह चीखते हुए वहीँ बैठ गये। मंझले ठाकुर ने गोली  चला दी, जो उस औरत के जिस्म में कहीं लगी— वह पछाड़ खा कर वहीँ गिर पड़ी और तभी एक दूसरे बच्चे ने एक पत्थर उठा कर मंझले ठाकुर के सर पर जड़ दिया। छोटे ठाकुर दनदनाते हुए उस बच्चे की ओर बढे ही थे कि अब उस बच्चे की माँ ने एक पत्थर उठा कर तान दिया— उन्हें रुक जाना पड़ा।

मुझे हवा में एक परिवर्तन की गंध आई… फ़ज़ा बदलती सी लगी। गावं वालों के चेहरे बदल गये।  गोली खाकर गिरी औरत को संभालता गंगवा मंझले ठाकुर के सामने आ गया।

“मालिक— मुझे भी गोली मार दीजिये, क्योंकि आज के बाद न तो मेरे हाथ आपके आगे जुड़ेंगे और न यह सर आपकी चौखट पे झुकेगा।” वह घायल सी आवाज़ में बोला।

“यह तू कह रहा है!” बड़े ठाकुर मुंह पकडे उबल पड़े— “तेरी सात पुश्तें हमारी गुलामी करती आई हैं। तेरे बाप दादाओं ने हमारी जूतियां चाटी हैं।”

“मालिक—दौर बदलते भी हैं।”

“पर तुम नहीं बदलोगे… तुम लोग बदलने की कोशिश करोगे तो सारे के सारे मारे जाओगे।” बड़े ठाकुर बुरी तरह दहाड़ उठे तो भीड़ से निकल कर एक बुज़ुर्ग सामने आ खड़े हुए।

“ठाकुर साहब… खुदा कसम आज हमने मरने की ठान ली है। आपके पास उतनी गोलियां नहीं होंगी जितने हमारे पास सीने हैं। आप मारेंगे भी तो आधे बच जायेंगे और सैकड़ों सालों से ठाकुरों के अपनी मौत मरने का जो इतिहास रहा है वह आज बदल जायेगा।” शब्द चाबुक की तरह ठाकुरों की चेतना पर पड़े और निगाहें उन गुलामों पर जम गयीं जिनके हाथों में धीरे-धीरे अब पत्थर आने लगे थे।

तड़—तड़… मुझे उन जंज़ीरों के टूटने की आवाज़ आई जिसमे वह सदियों से जकड़े हुए थे… मैंने शुक्राने की साँस लेते हुए आँखें बंद कर लीं।

किसी ने मेरे बंधे हाथ खोले तो देखा, धूल उड़ाता हाकिमों का काफिला वापस जा रहा था। मैंने आसमान  की जानिब देखा… सूरज डूब गया था, साथ ही डुबा ले गया था उस मानसिकता को, जो उन लोगों को यह सिखाती  थी कि उनका जन्म सिर्फ ठाकुरों की जूतियां चाटने के लिए ही हुआ है। यह तो शुरुआत भर थी— अब तो  ऐसा तब तक होगा, जब तक यह परिवर्तन स्थायी नहीं हो जाता। मुझे ख़ुशी हुई कि इतनी क़ुर्बानियाँ बेकार नहीं गयीं। मैं लपक कर अफ़साना के पास पहुंचा, ”अफ़साना…आँखें खोलो अफ़साना… तुम्हारी ज़िन्दगी ख़त्म नहीं हुई है। आज से तो नई शुरुआत हुई है… तुम्हें पूरी ज़िन्दगी जीनी है… मेरे साथ… मरहूम हैदर शाह की बेटी बन कर नहीं… मालिक सफ़दर हयात की शरीके हयात बन कर। मैं अपनाउंगा तुम्हे… अफ़साना।”

“लेकिन आपकी शादी तो तय…” बेहद कमज़ोर सी आवाज़।

“समरीन अमीर है, पढ़ी लिखी है, उसे तो कोई भी लड़का मिल जायेगा लेकिन तुम्हें मेरी… मेरी मुहब्बत की… मेरे साथ और सहारे की ज़रूरत है।”

उसका काँपता वजूद मेरे आगोश में समां गया…मैंने उसे कस कर भींच लिया। सामने वाली मस्जिद में अब मगरिब की अज़ान होने लगी थी। 

(समाप्त)

Written by Ashfaq Ahmad

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