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वन्स अपॉन ए टाइम इन कश्मीर 2

वन्स अपॉन ए टाइम इन कश्मीर 2


बड़ी  अजीब  स्थिति  थी-– हम  पुलिस  वालों  को मुजरिमों  के  डर  से छुपना पड़ रहा था। 

हमने  चौकी का खास और ज़रूरी सामान पास के एक घर में रख दिया था जिसमे एक अकेला लुहार रहता था।

निजामू  और लल्लन घोड़ों से गिलगित रवाना हो गये थे।  मैंने  उनसे कह दिया था कि रास्ते  में अगर उन्हें वहीद और  राम  आसरे  मिल जाएँ  तो  उन्हें  भी  साथ  ही  वापस  लिए  जायें। जानकी, बदलू, ननका और  फ़ज़्लू अलग  अलग  घरों  में छुप गये  थे  और  खुद मैंने  गावं  के  सिरे  पर  मौजूद  घर छुपने  के  लिए  चुना  था  जो  दो  मंज़िला  था, ऊपरी छत तो  कश्मीर  के  बाकी घरों  की  तरह  ढलुवाँ  थी लेकिन  ऊपर  बाल्कनी  थी  जिससे  कंदीलों की  रोशनी में  गावं  की  धुंधली  तस्वीर  देख  जा  सकती  थी।  यह ज़ाफ़रान  के एक  सुखी  काश्तकार  हैदर  शाह  का  घर था  जो  अब  इसलिए दुखी  हो  चला  था  क्योंकि  ठाकुरों ने  उसकी  बेटी  को  सरेआम नंगा  करके किसी  को मुंह  दिखने  लायक  नहीं  छोड़ा  था  और  उसी  की वजह  से  वह  लोग  हैदर  शाह  से  दुशमनी  पर उतर आये  थे।

“चाय।‘”

मैंने  पीछे  मुड़ कर  देखा-– हाथ में  चाय  की  प्याली लिये  अफ़साना  खड़ी  थी।  उस  दिन  मैंने  उसके  वजूद को  बिना  कपड़ों  के  देखा  था  और  आज  उसका शरीर  फेरन  में  ढका  था।  सर  पर  दुपट्टा  बंधा  था। शमा  की  रोशनी  में  उसके  खूबसूरत  चेहरे  की  मुर्दनी साफ़  देखी  जा  सकती  थी।  उस  दिन  का  मंज़र  याद आते  ही  मेरे  शरीर  में  सिहरनें  दौड़  गयीं।

“अ-आप… सोयी  नहीं  अब  तक।” मैंने  प्याली  लेते हुए  कहा।

“मुझे  अब  रातों  को  नींद  नहीं  आती।” उसने  सादगी से  जवाब  दिया।

“हम्म्म… सचमुच  बड़ा  अज़ीयतनाक वाक़या  था।  मुझे लग  रहा  था  कहीं  आप  खुदकशी  न  कर  लें।”

“इतनी  बुज़दिल  नहीं  हूँ  मैं।”

“बहादुरों  वाला  काम  भी  तो  नहीं  किया  आपने।”

उसके  चेहरे  पर  नागवारी  के  भाव  आये।

“आप  किसलिये  शर्मिंदा  हैं… कि आपके  जिस्म  को यूँ  बेपर्दा  किया  गया… लेकिन  किसके  सामने… उन बुज़दिलों के सामने   जो  खुद  अपनी  बहन  बेटियों  को उन  ठाकुरों  के  हवाले  करते  आ  रहे  हैं।  किन  के सामने  नंगा  किया  गया… जो  खुद  नंगे हैं।  उन्हें आपको  नंगा  कहने  का  हक़  है  भला? चंद ताक़तवर लोगों  ने  आपको  नंगों  के  बीच  नंगा  कर  दिया  और आपने  हार  मान  ली।  आपको  क्या  लगता  है… आपके गावं  में  स्कूल  खोलते  ही  यहाँ  के  हालात  बदल जायेंगे… यह  जो  जमींदारों, ठाकुरों  की  हुकूमत  की प्रथा  है, यह  सदियों  से  चली  आ  रही  है… इसे  चंद लोगों  की  इक्का  दुक्का  कोशिशों  से  ख़त्म  नहीं  किया जा  सकता… हमारी  एक  पीढ़ी  चुक  जायेगी  तब जाकर  यहाँ  के  हालात  बदल  पाएंगे  और  अगर  हम अपनी  आने  वाली  नसलों  की  खुशहाली  चाहते  हैं  तो हमें  अपनी  क़ुर्बानी  देनी  ही  पड़ेगी। आप  को  स्कूल बंद  नहीं  करना  चाहिये  था… आप  लड़तीं  तो  दूसरों को  भी  लड़ने  का  हौसला  मिलता।  क्या करते  वह… फिर  नंगा  करते… लेकिन  देखने  वाली  आँखे  फिर  वहीं होती  जो  पहले  देख  चुकी  हैं।  आप  की  हार  ने  औरों के  भी  हौसले  पस्त  कर  दिये  होंगे। वह  देखिये… वह इब्लीसों  की  फ़ौज  आ  रही  है, हमारे  खात्मे  के  लिये। इन्हें  हम  तो  नहीं  मिलेंगे  लेकिन  यह  चौकी  का  वही हाल  करेंगे  जो  आपके  स्कूल  का  किया  था  लेकिन हमारी  यह  जंग  यहीं  नहीं  ख़त्म  होगी।”

“आप  शायद  ठीक  कहते  हैं… मुझे  हार  नहीं  माननी चाहिये  थी।  सदियों  से  चली  आ  रही  परम्पराएँ  एक दिन  में  तो  नहीं  बदलती। एक  बेमक़सद  ज़िन्दगी  जीने से  लाख  बेहतर  है  कि किसी  अच्छे  मक़सद  के  लिए मर  लिया  जाये।”

वह  मुड़  कर  चली  गयी।  उधर  नीम  अँधेरे  में  इब्लीसों की  फ़ौज  भी  लाठी, बल्लम, गंडासे, बंदूकें  लिए  चौकी की  ओर चली  गयी।  गावं  में  मुकम्मल  सन्नाटा  पाँव पसारे  था, जो  थोड़ी  देर  बाद  तोड़  फोड़  की  आवाज़ों ने भंग  कर  दिया।  हवाएँ  पुरसुकून अंदाज़  में  बह  रही थीं।  मैं  अंदर  कमरे  में  आ  गया… कमरे  में  सिगड़ी सुलग  रही  थी।  मैं कम्बल  ओढ़  के  पड़  गया… आधी रात  के  बाद  एक  आवाज़  कानों  तक  पहुंची  थी–-

“गावं  वालों… हमें  पता  है  उन  पुलिस वालों  को  तुम  में से  किसी  ने  अपने  घर  में  पनाह  दी  है।  जिसने  भी दी है-– वह  सामने  आये, वरना  बाद  में हमें  पता  चला  तो उस  घर  का  पूरा कुनबा  मौत  का  मुंह  देखेगा।”

फिर  मैं  सो  गया।

सुबह  मोटर  गाड़ियों  से  लगभग  सौ  पुलिस  वाले बंदूकों  समेत  एस. एच. ओ. की  अगुवाई  में  डेरा जमाल  पहुँच  गये।  निजामू, राम  आसरे, लल्लन  और वहीद  भी  उनके  साथ  थे।  हम  बाहर  आये  तो  पता चला  की  हममे  बदलू  और  ननका  कम थे।  क्या  वह ठाकुरों  के  हाथ  लग  गये  थे? लेकिन  हमें  पता  भी  तो नहीं  था  कि उन्होंने  रात  को  शरण  कहाँ  ली  थी।

हम  चौकी  पहुंचे  तो  तोड़  फोड़  के  बाद  चौकी  का नज़ारा  ही  बदल  गया  था… हवालात  का  ताला  टूटा पड़ा  था  और  अब्दुल  गायब  था।  आज  हम  बहुत लोग  थे… सभी  जुट  गये  तो  दोपहर  तक  चौकी पहले  से  भी  बेहतर  कंडीशन  में  आ  गयी।  वह  लोग हफ्ता  भर  का  राशन  साथ  लाये  थे।  खाना  बनाना  के लिये  डेगो का  इंतेज़ाम  करना  पड़ा।  इस  बीच  इतने सारे पुलिस  वालों  की  गहमागहमी  के  कारण  गावं वालों  की  गतिविधियाँ  ठप्प  ही  रहीं।

दोपहर के  खाने तक इरविन  भी  आ  गया… हमने  उसे सारे  हालात  बता  दिये।  बदलू  और  ननका  की गुमशुदगी  के  बारे  में  भी  बता  दिया।  खाने के बाद हमने  यह  तय  किया  कि ऐसा  तमाशा  फिर  दोबारा  न हो, इसके  लिये ज़रूरी  है  कि इन  ठाकुरों  को  कानून की  ताक़त  का  अंदाज़ा  कराया  जाये।  इनके  सारे चेलों, लठैतों  को  पकड़  के  धुनाई की जाये, फिर  गिलगित  में हफ्ता  भर  बंद  करके  छोड़ दिया  जाये  और  ठाकुरों को  भी  समझा  दिया  जाये।

खाने  के  बाद  खिली  हुई  धूप  में  काफिला  चल  पड़ा… ठाकुरों  के  खेतों  में  काम  करने  वाले  कारिंदों  को पकड़ा  गया।  खेतों  की  ओर बने  रेस्ट  हाउस  से  उनके लठैतों  को  पकड़ा  गया… फिर  हम  हवेली  पहुंचे… अंदर  घुसे  और  पुलिस  वाले  सारी  हवेली  में  फैल गये। सारे  लठैत  उनकी  बंदूकों  के  निशाने  पर  आ  गये।

सारे  ठाकुर  दहाड़ते  हुए  हवेली  के  मुख्य हाल  में  इकट्ठे हुए।  ठाकुर  महावर  प्रसाद  तो  रहे  नहीं  थे… उनके तीन  बेटे  ज़िंदा  थे-– रणबीर, रणधीर  और  बलबीर। रणबीर  के  चार  लड़के  थे-- धीरेन्द्र, गजेन्द्र, महेंद्र  और सुरेन्द्र।  रणधीर  के  भी  चार  बेटे  थे-- वीरेन, सोमेन, नरेन्  और  विपिन… और  बलबीर  के  तीन  बेटे  थे-- गिरीश, सुरेश  और  देवेश… इतने  दिनों  में  मैंने  उन सभी  को  जान  लिया  था।

“कौन  हैं  आप  लोग?” रणधीर  ने  गुर्राते  हुए  पूछा।

एस. एच. ओ. नवाज़  साहब  ने  उन  की  बात  का जवाब  दिया, “हम  आप  की  तरह  किसी  छोटे  से  गावं के  हाकिम  तो  नहीं  लेकिन  उस  हुकूमत  से  जुड़े  हैं जहाँ  कभी  सूरज  गुरुब  नहीं  होता।  आप  के  पास  चंद कारिंदे  हैं  तो  आप  खुद  को  ताक़तवर  समझते  हैं लेकिन  हमारे  पास  सैकड़ों  लोग  हैं  जो  लाठियां  नहीं गोलियां  चलाते हैं।  कल आप  लोगों  ने  जो  तमाशा किया, उसकी  रूह  में  ज़रूरी  है  कि आप  को  यह बताया  जाए  कि  कानून  कोई  चार  आठ  लोगों  वाली तंज़ीम  नहीं  जिसे  आप  कुचल  देंगे… यह  वह  तंज़ीम है  जिससे  जुड़े  लोग  आप  के  जिस्म  पर  मौजूद  रोयों से  ज्यादा  हैं  और  आप  जैसे  लोग  कानून  से  टक्कर लेने  की  हिमाक़त  नहीं  कर  सकते।  यह  बात  अगर आप  नहीं  समझते  हैं  तो  आप  के  सरों  पर  दस  जूते मार  कर  समझायी  जाये।”

सारे ठाकुर  कसमसा  कर  रह  गये।

“हमारे  दो  सिपाही  लापता  हैं-- वह  कहाँ  हैं?” इस बार  इरविन  ने  पूछा।

“हमें  नहीं  मालूम… कही भाग  गये  होंगे।” उत्तर रणबीर  ने  दिया।

“कल  चौकी  पर  हमला  करके  एक  मुजरिम  को किसने  छुड़ाया?”

“हमें  क्या  पता-- होंगे  कोई  लोग।”

“वह  मुजरिम  आप  लोगों  का  ही  एक  आदमी  था।”

“हमारा कोई  आदमी  मुजरिम  नहीं… और  जो  मुजरिम होगा  वह  हमारा  आदमी  नहीं।”

और  अगले  पल  एक  तेज़  ‘चटाख’ से  हवेली  का  हाल गूँज  उठा।  इरविन  के  हाथों  की  उँगलियाँ  ठाकुर रणबीर  के  गोरे गाल  पर  छप गयीं।  सारे ठाकुर  गुस्से की  अधिकता  से  कांपने लगे  थे… जाने  कैसे  वह  खुद पर ज़ब्त  किये  थे।  रणबीर  की  तो  आँखें  खून  खून हो  उठीं  थीं।

“इतने  भोले  नहीं  हैं  हम  जितना  आप  समझ  रहे  हैं। हम  जानते  हैं  कि आपने  क्या  किया  है  और  क्या  कर सकते  हैं  लेकिन  न  हम  अंधी  हुकूमत  करते  हैं  और न  ही  अँधा  इन्साफ… हमें  इन्साफ  के  लिये सबूत चाहिए  होते  हैं  और  फिलहाल  हमारे  पास  न  सबूत है और  न  गवाह।  हमें  पता  है  कि सदियों  से  गुलामी  की मानसिकता  में  जकड़ी  ज़ुबान आप  के  खिलाफ  हमारी गवाह  नहीं  बनेगी  लेकिन  वह  गुलाम  इसलिये  हैं क्योंकि  वह  आप  को  सबसे  ताक़तवर  समझते  हैं… जब  उन्हें  यह  अहसास  होगा  कि हुकूमत  के  सामने आप  कुछ  भी  नहीं  हैं  तो  उनकी  सोच  बदलेगी  और जब  यह  बदलाव  आयेगा  तब  आप  के  खिलाफ  हमारे पास  हज़ार  जुबानें  होंगी  और  तब… आप  में  से  कोई नहीं  बचेगा।” कहते  हुए  इरविन  काफी  जोश  में  आ गया  था।

“और  हाँ--” नवाज़  साहब  ने  वार्निंग  दी, “कल  तक हमारे  दोनों  सिपाही  वापस  पहुँच  जाने  चाहिये  वरना आप  की खैर  नहीं।”

हम  वापस  हो  लिये… ठाकुरों  के  कारिंदों  में  शौकत भी  था  जो  हमारी  गिरफ्त  में  था, जिसने  सरगोशी  में मुझे  बता  दिया  था  कि कल  की  घटना  की  अगुवाई ठाकुर  बलबीर  ने  की थी  और  दोनों  सिपाही  उसी  की कैद  में  थे।  वह  यह  नहीं  बता  पाया  कि उन्हें  उन लोगों  ने  कहाँ  छुपाया  था।

लेकिन  अगले  दिन  तक  दोनों  सिपाहियों  की  वापसी न  हुई  और  हमने  उन्हें  सबक  सिखाने की  ठानी। पहले  गावं  में  एलान  किया  गया  कि दोनों  सिपाहियों ने  रात  को  जिन  घरों  में  पनाह  ली  थी, वह  सामने आएं-- उन्हें  कुछ  नहीं  किया  जायेगा।  बस  थोड़ी पूछताछ  करनी  है  लेकिन  जैसी  कि उम्मीद  थी… कोई सामने  न  आया।

ठाकुरों  के  कारिंदों  के  साथ  हमें  दिखावे  के  लिए शौकत  को  भी  बंद  करना  पड़ा  था।  अलबत्ता  वह औरों  की  तरह  बेहिसाब  धुनाई  से  बच  गया  था।  हाँ, दिखाने के  लिए  थोड़ा  तो  उसे  भी  मारना  पड़ा  था। उसी  ने ने  बताया  कि  ठाकुर  अक्सर  जिसे  बंधक बनाते  हैं, उसे  हवेली  के  तहखाने  में  रखते  हैं  लेकिन चूँकि  बात  सबूत  देने  की  थी  इसलिए  मुश्किल  ही  था कि उन्होंने  उन  दोनों  को  ज़िंदा  छोड़ा  हो।

हम  दोपहर  को  हवेली  पहुँच  गये।  हमने  उनका तहखाना  देखने  की  इच्छा  ज़ाहिर  की  तो  उन्होंने  बड़ा विरोध  किया … बड़े  कसमसाई  लेकिन  अंततः  उन्हें मानना  ही  पड़ा।

तहखाना  खोला  गया… लेकिन  वहां  कुछ  मिला  नहीं। उन्हें  भी  तलाशी  की  उम्मीद  रही  होगी  इसलिये वह जो  भी  आपत्तिजनक  रहा  होगा, वह  सब  हटा  दिया गया  होगा  लेकिन  यह  नाकामी  नवाज़  साहब  को  बुरी तरह  खेल  गयी  और  उन्होंने  उस  हमले  के  अगुवा ठाकुर  बलबीर  सिंह  को  ही  हथकड़ी  लगा  दी।

फिर  गावं  के  बीच  से… पूरे  गावं  के  लोगों  के  सामने बलबीर  सिंह  को  आम  आदमी  की  तरह  खींचते  हुए चौकी  तक  लाया  गया।  पूरे गावं  में  अजीब  सा माहौल  हो  गया… उन्हें  लग  रहा  था  कि ठाकुर  अब ज़मीन  आसमान  एक  कर  देंगे  लेकिन  शाम  तक  जब कुछ  न  हुआ  तो  उन्हें  ताज्जुब  हुआ… आस  पास  के दस  गावों  तक  यह  बात  चर्चा  का  विषय  बन  गयी। उलटे  जब  चौकी  के  सहन  में  इंट्रोगेशन  के  चलते बलबीर  सिंह  को  पीटा  गया  तो  इस  नज़ारे  को  भी लगभग  पूरे  गावं  ने  देखा।

ठाकुर  को  कुछ  कबूलना  तो  था  नहीं… हमारे  पास उसके  खिलाफ  कोई  प्रत्यक्ष  गवाह  भी  नहीं  था। शौकत  भी  सामने  आने  को  राज़ी  न  हुआ  और मज़बूरी  में  हमें अगली  सुबह  बलबीर  सिंह  को  छोड़ना पड़ा।  पहले  सोचा  गया  गया  था  कि दो  तीन  रोज़ पुलिस  का  जलवा  दिखाने  के  बाद  पुलिस  फ़ोर्स  कुछ कर  जायेगी  लेकिन  इरविन  की  सलाह  पर  फ़ोर्स  ने हफ्ता  भर  रुकने  का  फैसला  कर  लिया।  हाँ, इरविन खुद  दो  दिन  बाद  चला  गया।

आज  घटना  के  बाद  तीसरा  दिन  था… पुलिस  पार्टी के  आने  के  बाद  हमने  स्थायी  रूप  से  कुछ  घोड़ों  का प्रबंध  कर  लिया  था।  एक  बढ़िया  नस्ल  का  घोड़ा खुद  मेरे  लिए  था… शाम  होते ही  मैंने गश्त  का  इरादा किया  और  घोड़ा  लेकर  चल  पड़ा।

बारिश  का  मौसम  शुरू  हो  चुका था… आज  सुबह से ही  रिमझिम  लगी  थी।  इस  वक़्त  हालाँकि  आसमान बिलकुल  साफ़  था।  बस  बादलों  के  कुछ  आवारा टुकड़े  तैरते  दिख  रहे  थे… हाँ, अब  हवा  में  ठण्ड बढ़ने  लगी  थी। 

टहलते-टहलते  मैं  उस  ओर निकल आया  जिधर  बाग़  थे-- नागे, सेब  और  आलूबुखारे  के बाग़।  आलूबुखारे  पक  चुके  थे, सेब  पक  रहे  थे। अखरोट  के पेड़ों  पर  अखरोट  भी  आ चुके  थे।  एक अखरोट  के  पेड़  के  नीचे  ही  अफ़साना  बैठी  थी।  मुझे शायद  उसने  दूर  से  ही  पहचान  लिया  था, इसीलिए उसके  चेहरे  पर  ख़ुशी  सी  दौड़  गयी  थी।  उसके जिस्म  पर  भूरे  रंग  का  फेरन  था  और  सर  पर  लाल दुपट्टा  लिपटा हुआ  था।

“आदाब।” उसने  दूर  से  ही  कहा।

“आदाब।” जवाब  देते  मैंने  घोड़ा  रोक  दिया, “कब  से हो  यहाँ?”

“दोपहर  से… मुझे  यह  जगह  बहुत अच्छी लगती है, अब तो  बस  जाने  ही  वाली  थी।”

मैंने आस पास नज़र  दौड़ाई… दूर दूर  सुरमई पहाड़ खड़े  थे  जिनकी  चोटियों  पर  जमी  बर्फ  आसमान  की सुर्खी  से  साथ  लाल  हो  उठी  थी… चारों  तरफ  खेत बाग़ान… पास ही छोटे  बड़े  गोल  पत्थरों की  गोद पर गुज़रती  दूध  सी  नदी  और  दूर  दूर  खड़े  अखरोट  के पेड़… नज़ारा  वाकई  दिल  को  छू  जाने  वाला  था।

“चलिये, छोड़  देता  हूँ  आप  को।” मैंने  धीरे  से  कहा।

फिर  हम  साथ  साथ  आबादी  की  तरफ  बढ़ने  लगे।

“आप  को  यूँ  अकेले  आबादी  से  दूर  डर  नहीं लगता?”

“अगर  डर  ठाकुरों  से  बचने  का  है  तो  कौन  सी औरत  घर  के  अंदर  रह  कर  भी  महफूज़  है… उन से  बचने  के  लिये ही  तो  मेरे  वालिद  ने  मुझे  पढ़ाई  के बहाने  बाहर  भेज  दिया  था।”

“स्कूल  खोलने  का  इरादा  किया  या  फिर…”

“वह  तो  कल  से  शुरू  हो  गया… वह  हमारा  ही  घर है।  दो मज़दूर  लगा  कर  उसे  ठीक  करा  लिया।  कल शाम  ही  महेंद्र  और  सोमेन  मुझे  धमकाने  आये  थे लेकिन  इस  वक़्त  पुलिस  फ़ोर्स की मौजूदगी  में  वह वैसा  दोबारा  नहीं  कर  सकते  थे  इसलिये  दस  गलियां सुना  कर  चले  गये।  अलबत्ता  उन्होंने  पूरे  गावं  में मुनादी  करा  दी  है  कि जिसने  भी  अपने  बच्चे  को पढ़ने  मेरे  पास  भेजा, उसके  घर में  कोई  ज़िंदा  नहीं बचेगा।  इसलिये  मेरा  स्कूल  तो  खुल गया  मगर  पढ़ने वाला  एक  भी  बच्चा  वहां  नहीं।  आप ने  ठीक  कहा था… यह  जंग  एक  दो  इंसानों  की  नहीं  है… यह सदियों  से  चली  आ  रही  गुलामी  की  प्रथा  से  लड़ने की  है… इसे एक झटके  से  एक  दिन  में  ख़त्म  नहीं किया  जा  सकता।  इसके  लिये तो  सालों  साल  लग  जायेंगे।  ठाकुरों  के  लठैतों  की  गिरफ़्तारी  और  छोटे ठाकुर  की  गिरफ़्तारी  और  पिटाई  से  इन  लोगों  के दिलों  में  उन  का  खौफ  कुछ  कम  तो  हुआ  है  लेकिन मिटा  नहीं  है।  इन्हें  अब  भी  लगता  है  कि ठाकुर  आप लोगों  से  बदला  ज़रूर  लेंगे।”

“पर  वह  कामयाब  नहीं  होंगे  और  हम  लगातार  यह साबित  करते  रहेंगे  कि  वह  सबसे  ताक़तवर  नहीं  हैं। धीरे-धीरे  तब  लोगों  को  यह  ज़रूर  लगेगा  कि यह खाकी  वर्दी  उनसे  ज्यादा  ताक़तवर  है  और  उस  दिन हमारी  जीत  होगी।”

बातें  करते  करते  हम  आबादी  तक  पहुँच  गये  थे लेकिन  वहां  गावं  वालों  का  हजूम  मौजूद  था  जिसमे सबसे  आगे  थे  मशाल  लिये  मंझले  ठाकुर।

( क्रमशः)
Written by Ashfaq Ahmad


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