वन्स अपॉन ए टाइम इन कश्मीर 1
अपनी ज़िन्दगी में इंसान अगर एक लम्बी उम्र जीता है तो ऐसे कितने मौके आते हैं जब वह मरते मरते बचता है। आज मैं, मलिक सफ़दर हयात आज पच्चासी साल का हूँ… इतनी लम्बी ज़िन्दगी बिना खतरों के नहीं गुज़रती।
अपने इतिहास के पन्ने अगर
मैं पलटने बैठ
जाऊं तो मुझे
याद भी नहीं होगा
कि कितनी बार मेरी
जान जाते -जाते बची है
और कितनी ही
बार ऐसा हुआ
है जब अपनी पुलिस
की नौकरी के
चलते मैंने लोगों की
जानें ली हैं। चालीस
की उम्र तक मैंने पुलिस
की नौकरी की है… फिर
देशभक्ति की भावना
ने जोश मार तो
नौकरी छोड़ दी
और स्वतंत्रता संग्राम
से जुड़ गया था।
पंद्रह
साल की नौकरी
में मैं कांस्टेबल
से हेड-कांस्टेबल, एस. आई.
और फिर
इंस्पेक्टर बना और तमाम
केसों से जुड़ा
मगर एक ऐसा
केस था जो मेरी
ज़िन्दगी का सबसे
अहम हिस्सा है
और जिसमे मैं एक
छोटी ही सही
पर एक क्रांति
का अगुवा बना।
बहुत
पहले… बर्तानवी हुकूमत में– कश्मीर,जो कभी
पंजाब राज्य का
हिस्सा था, पर टैक्स
न जमा करने के
कारण अंग्रेज़ों ने
उसे अपने कब्ज़े
में ले लिया था… और
जब अँगरेज़ हुकूमत
कानून की अमलदारी कायम
करने के लिए
दूर दराज़ के
गावों, गाँजर क्षेत्रों
में पुलिस चौकियां
खोल रही थी, जहाँ चौधरियों, ठाकुरों, ज़मींदारों की
सत्ता चलती थी। तब
ऐसे ही
उत्तरी कश्मीर के एक
गावं डेरा जमाल
में मेरी पोस्टिंग हुई
थी– चौकी इंचार्ज के
तौर पर।
डेरा
जमाल में ठाकुरों
का सिक्का चलता
था… सालों से वहां
जागीरदारी की प्रथा
चली आ रही थी।
पहाड़ियों से घिरा
खूबसूरत गावं था
डेरा जमाल… तीन तरफ
आसमान चूमती पहाड़ियों
का नज़ारा होता था– चौथी
तरफ क्रमबद्ध खेत
चले गये थे, जहाँ चावल
की खेती की
जाती थी।
पहाड़ियों
की ओर सेब, आलू
बुखारे, अखरोट, बादाम के
बागान थे या नागों, अनार के
जंगल। गावं से
काफी हट के दस मील
दूर स्थित गिलगित
जाते इकलौते रस्ते
पर ज़ाफ़रान की काश्त की
जाती थी। बीच
में ढलुवाँ छतों वाले, लकड़ी और
पत्थर से बने
मकानों की घनी आबादी
थी… लेकिन बहुत से
मकान दूर दूर और
बिखरे-बिखरे से भी
बने हुए थे।
गावं
के पश्चिमी सिरे पर
ठाकुरों का बनवाया
रेस्ट हाउस था तो
पूर्वी सिरे पर
उनकी विशाल हवेली, जिसमे दसियों की
तादाद में ठाकुर
महावर प्रसाद के वारिस रहते
थे। वह उस
क्षेत्र के मालिक
थे… माई बाप थे। उनके
पास बेशुमार ज़मीनें
थीं… उनके पास बेशुमार आदमी थे।
और
जहाँ तक मेरे
बारे में… मैं पठानकोट का
रहने वाला एक
मामूली बंदा था, जो हवलदार
के रूप में लाहौर
में तैनात हुआ
और पहले साल
में ही हेड -कांस्टेबल बन गया
था और
हाल ही में
एस. आई.बना दिया गया
था क्योंकि नई चौकियों
के लिए बहुत से
नये लोग चाहिये
थे और मुझे
चौकी इंचार्ज के तौर
पर डेरा जमाल
भेज दिया गया
था– कानून का राज कायम
करने।
मैं
जिस वक़्त हाथों
में होल्डाल और
अटैची थामे डेरा जमाल
पहुंचा– दोपहर के दो
बज रहे थे। गिलगित
से यहाँ तक
घोड़े या टाँगे
से आना पड़ता था। सारे देश में
भले लू और
गर्मी का मौसम
चल रहा हो– यहाँ का
मौसम काफी खुशगवार
था।
ठंडी- ठंडी हवा
का आनंद लेता
मैं एक तरफ बढ़
रहा था कि
एक ओर इकट्ठी भीड़
पर नज़र पड़ी। इतनी
भीड़ होते हुए
भी वहां शोर
नहीं था… बस एक
आवाज़ गूँज रही
थी और वह भी डोगरी में
कुछ कहा जा
रहा था।
क्या
माजरा था…?
मुझे
जिज्ञासा हुई… पास पहुंचा
तो देखा एक गोल
में आठ दस
लठैत खड़े थे… तीन
घनी मूंछ,रुआबदार चेहरे
और पगड़ी वाले
युवक और एक जवान
खूबसूरत लड़की जिसके
दूध से गोर
बदन पर कपड़े का एक
रेशा भी नहीं
था… उस गोरी चिट्टी कश्मीरन के
चेहरे पर अजीब
से भाव थे
और आँखें शर्म से
ज़मीन में गड़ी
जा रही थीं।
पहले यह मंज़र देख
में शरीर में
सिहरने दौड़ीं और
फिर क्रोध से मेरा
बुरा हाल होने
लगा। एक पगड़ी
धारी युवक उसके खुले
बाल पकड़े डोगरी में
कुछ चिल्ला रहा था।
यह सब देख
मेरे लिये स्वयं
पर नियंत्रण रखना मुश्किल
हो गया।
“क्या
हो रहा है यह?” मैंने गरजती
हुई आवाज़ में पूछा
और एकदम से
बिलकुल सन्नाटा छा गया।
हर निगाह मुझी
पर आ जमी… सभी
हैरत में थे कि ठाकुरों
को रोकने की
हिमाक़त किसने कर दी।
उन तीनों युवा
ठाकुरों की भी भृकुटियां तन गयीं।
“तू
कौन है?” एक ने
घृणास्पद स्वर में
पूछा।
“मेरा
नाम मलिक सफ़दर हयात
है और मैं सब
इंस्पेक्टर हूँ।”
“वह
क्या होता है?”
“वह कानून का
रखवाला होता है।”
“कानून…” दूसरे ठाकुर
की पेशानी पर बल
पड़ गये, “कानून तो
शहरों में होता
है… डेरा जमाल में कानून
का क्या काम?”
“ग़लतफहमी
है यह तुम
लोगों की। कानून सिर्फ
शहरों में ही
नहीं जंगल में
भी होता है। यह
जो तुम जैसे रसूख
वाले लोगों ने
जंगलराज फैला रखा है, अब इसी
के खिलाफ हुकूमत
गावं-गावं पुलिस चौकियां खोल
रही है ताकि
कानून गावों में भी
हो… सिर्फ शहरों में
नहीं।”
उनकी
बातों से साफ़
लग रहा था कि
उन्हें इस बारे
में जानकारी नहीं
थी और इसीलिये
वह काफी बेचैन
हो गये थे।
उनमे से वह
जो लड़की को पकड़े
था, उसे मेरी
तरफ धकियाते हुए
गुर्राया– “भूल है यह
तेरी, यहाँ बरसों
से हमारी हुकूमत चलती
आई है और
चलती रहेगी। यहाँ
सिर्फ वही होता
है जो हम
चाहते हैं। हमारी
मर्ज़ी के खिलाफ
यहाँ न कभी
कुछ हुआ है
और न कभी
कुछ होगा। इस
बात को तुम
भी समझ ले और
इस गोबरी को
भी समझा दे।”
लड़की
मुझ तक पहुंची तो मैंने उसे संभाल लिया।
एक पल
के लिये लड़की की निगाह मुझसे मिली…
फिर वह
एक तरफ भागती
चली गयी। मैंने उन ठाकुरों को देखा जो अपने लठैतों के साथ ज़मीन रौंदते
हवेली की दिशा में बढ़े चले जा रहे थे। भीड़
भी छंटने लगीथी… तभी भीड़ में मौजूद एक हवलदार सैल्यूट करता मुझ तक आ पहुंचा।
“सलाम
जनाब… मैं हेड-कांस्टेबल अब्दुल वहीद
आपका खैर मकदम
करता हूँ। चलिये
इरविन साहब आप ही का इंतज़ार कर
रहे हैं।” कह कर उसने
मेरे हाथ से
होल्डाल ले लिया… हम एक तरफ बढ़ने लगे।
इरविन डिसूज़ा… वायसराय के खास
आदमियों में से एक
था जो उन
लोगों में शामिल था
जो गावं-गावं पुलिस चौकियों की
व्यवस्था कर रहे थे। इसी व्यवस्था के कारण बढ़े हुए पदों की
वजह से मुझे यह
तरक़्क़ी मिली थी।
हलाकि इसमें मेरे
पिछले अच्छे रिकॉर्ड का भी योगदान
कम नहीं था।
“कौन
थे यह लोग?” मैंने चलते चलते
पूछा।
“कौन? यह लोग… ठाकुर थे… वीरेन, सोमेन, महेंद्र।”
उसने बड़े
आराम से जवाब
दिया।
“और
वह लड़की।”
“वह… अफ़साना शाह। बहुत
बहादुर लड़की है लेकिन
अब शायद शर्म
से सर न उठा पाये कभी।
वैसे वह ज़ाफ़रान
के एक काश्तकार हैदर शाह
की इकलौती लड़की
है। पढ़ने के
लिए बाप ने करांची
उसकी खाला के
यहाँ भेज दिया
था और वहां वह
ढेर सी बातें
पढ़ गयी। गलत
क्या है सही क्या
है… इसे सब पता
चल गया और
यही ज्ञान वह यहाँ
के जाहिल लोगों
को देना चाहती
है। वह देख रहे हैं
जनाब… उजड़ा सा घर… वह
इसका स्कूल है, जिसे अभी
घंटा भर पहले
उजाड़ा गया है। सबने
समझाया कि वह जो पढ़ी है
वह सिर्फ पढ़ने के
लिये है। असली
में ऐसा थोड़े
ही होता है पर
उसकी समझ
में न आया
तो इन ठाकुरों
ने समझाने का यह
तरीका अपनाया कि उसका
यह छोटा सा स्कूल
तोड़ फोड़ डाला
और बेचारी को नंगा
करके पूरे गावं में
घुमा दिया। अब
वह सबकुछ समझ
गयी होगी।”
“तुम
एक पुलिस वाले
हो कर तमाशा
देख रहे थे… उन्हें रोकने
की कोशिश नहीं
की?”
“मैं
पागल हुआ हूँ
जो मुफत में
अपनी जान गंवाता।”
“मैंने
तो रोका।”
“ग़लतफ़हमी
है आपकी। उन्हें
जो करना था वह
कर चुके थे।
अगर उन्हें इससे
आगे कुछ करना होता
तो आप कैसे
भी नहीं रोक
पाते उन्हें। डिसूज़ा साहब
बता रहे थे कि
आप की
तरक्की हुई है। आप
तो खुश
होंगे लेकिन यह
खुशफहमी है आपकी… मुझे
भी कांस्टेबल से
हेड-कांस्टेबल बनाया गया
है… पर सच तो
यह है के
क़ुरबानी से पहले
हमें दूध जलेबी खिलाई
गयी है। इन
फिरंगियों ने जो ऐसी
जगहों पर
पुलिस चौकियों को
खोलने का सिलसिला चलाया
है जहाँ लोग
कानून का मतलब
ही नहीं समझते… जिन्हें हमारे
ओहदों से कोई
मतलब ही नहीं और
भेज दिया है
हमें तरक्की दे
कर कानून का राज
कायम करने। हो
सकता है के
सात आठ सालों में
कानून का राज
कायम हो जाये
लेकिन तब तक हमारे
जैसे जाने कितने लोग
शहीद हो चुके होंगे।
यही वजह है
की ऐसी एक
भी जगह एक भी
अँगरेज़ अफसर नहीं
गया।” वहीद तल्खी से
बोलता गया।
लेकिन
उसकी बातों में दम
था।
मैं
डिसूज़ा तक पहुँच
गया… मुझे क्या करना है, यह समझा
कर, मुझे अपने
फ़र्ज़ की याद
दिला कर, एक संतरी
और सात कांस्टेबल
का स्टाफ दे कर, चौकी के
लिये अहाते वाला
एक मंज़िला मकान
दे कर और उसमें
खर्चने के लिए
माकूल सरमाया दे कर
शाम को इरविन
चला गया। जाते-जाते
उसने सख्त ताक़ीद की
थी कि जैसे
ही मुझे कोई
मामला हद से बाहर
जाता लगे–- मुझे फ़ौरन
गिलगित में नये
बने थाने में
सूचना देनी थी… जल्द-अज़-जल्द यहाँ पुलिस फ़ोर्स पहुँच जायेगी
लेकिन यह सवाल फिर
भी अनपूछा रह
गया कि यह जाहिल
उजड्ड ठाकुर एकदम से हमें नेस्तनाबूद करने
पर उतर आये तो
दस मील दूर से
आने वाली मदद
के आने तक हम
बचेंगे कैसे, जबकि गिलगित का रास्ता भी इतना अच्छा नहीं था कि फ़ौरन आया
जाया जा सके।
हम कुल जमा दस लोग थे… हथियार के
नाम पर
हमारे पास आठ लाठियां, दो
पिस्तौल, तीन बन्दूक
और थोड़े बहुत कारतूस
थे।
खैर
खैर करके हम
चौकी बनाने में जुट गये।
अट्ठारहवीं सदी
का मकान था
जिसके पिछले भाग में
लकड़ी की टॉल
थी… मकान का बुरा
हाल था। पूरे स्टाफ
ने मिल कर
राजमिस्त्री, लुहार और बढ़ई
के साथ उधड़े
प्लास्टर, फर्श ठीक
किये, सड़
चुके दरवाज़े खिड़लियां
बदलीं, छतों पर
मिटटी डाल कर उन्हें
टपकने से रोका, दो कमरों
को हवालात की शक्ल
दी, बेंचों और
मेज़ों का फर्नीचर
बनाया… सहन में उगी
बेतरतीब घास हटा
कर ज़मीन हमवार की।
वहां बिजली तो
थी नहीं… माकूल जगहों
पर कंदीलों की व्यवस्था
की। सहन में
खड़े पीपल के पेड़
के नीचे शाम
के बैठने का
ठीया बनाया-– फिर टीन के एक
बोर्ड को लाल
नीला रंग के
उस पर सफ़ेद रंग से लिख
दिया… डेरा जमाल पुलिस चौकी।
इस
सबमे सात दिन
लग गये और
इन सात दिनों में
इलाके के ठाकुरों, दबंगों ने
हर कोशिश कर डाली
कि हम वापस
लौट जायें। दिन
में हमारे खिलाफ नारे
लगाते… चौकी के सामने
झगड़े करते और हमारे
बीच में पड़ते
ही सारे के
सारे एक हो जाते।
कहीं हमारे मिस्त्री
को पीट कर
भगा देते कहीं बढ़ई
को… गावं की नाली
चौकी के सामने
खोल दी गयी।
लकड़ी
की ठेकी की
तरफ शाम होते
ही आग जलायी जाती
और जब इधर
की हवा चलती
तो उसमे मिर्च झोंक
दी जाती। रात को कभी
पत्थर फेंकते तो कभी
घोड़ों, भेड़ों की लीद
कागज़ों में भरकर… और हमारे
कुछ बोलने पर
सारे एक होकर लड़ने
मरने पर उतारू
हो जाते। डेरा जमाल का
शुमार उन इलाकों
में होता था
जहाँ कभी कानून पहुंचा
ही नहीं था।
जहाँ के ठाकुर, ज़मींदार, चौधरी
आम इंसानों के
साथ जानवरों जैसा सलूक
करना अपना पैदाइशी हक़
समझते थे… जहाँ ज़ुल्म
सहते सहते लोगों की
चमड़ी इतनी मोटी
हो चुकी थी की
वह फ़रियाद करना
भी हिमाक़त समझते
थे।
जैसे
तैसे चौकी खुल
गयी… हम ड्यूटी निभाने बैठ
भी गये पर
लाख रूपये का
सवाल यह था कि क्या
कोई मज़लूम इन
ठाकुरों ज़मींदारों के खिलाफ
हमारे पास शिकायत
ले कर आयेगा
भी? अगर नहीं
तो इस चौकी
का मतलब क्या
था… हमारी ज़रूरत क्या
थी? इन हुक्मरानों ने
लोगों को इतना धौंसिया
रखा था कि
यह हमें बीमारी
की तरह देखते थे… इन्हें
लगता था के
यह हमसे बोले
भी तो ठाकुर इन्हें
खा जायेंगे।
उस
दिन भी ऐसा
ही कुछ हुआ
था… पानी अभी बरस के
हटा ही था।
गावं में मिटटी
की सोंधी खुशबू फैली हुई
थी… हालाँकि कच्चे रास्ते पर काफी
कीचड़ हो
गयी थी।
डेरा
जमाल के एक सिरे
पर चाय मग्घी का
एक होटल था।
बारिश से मौसम ठंडा
हो गया था-– चाय
पीने के लिये चार
कांस्टेबल वहीं बैठे थे कि
ठाकुरों का खास
मुंह लगा अब्दुल वहीँ
आकर उन्हें छेड़ने लगा
था… फिर जब बात बढ़
गयी थी तो
अब्दुल, वहीद के सर
पर लाठी मार दी
थी जिससे वहीद
का सर फट
गया था। दो कांस्टेबल
अब्दुल को पकड़
लाये थे और
एक घायल वहीद को
लेकर गिलगित चला
गया था क्योंकि नज़दीकी अस्पताल
वहीँ था।
अब शाम
हो चुकी थी… गावं
की क़न्दीलें जल चुकी
थीं। चौकी की
दो क़न्दीलें रोशन
थीं। आसमान बादलों से
ढंका था। उस घर में हमने
दो कमरों को हवालात
की शक्ल दी थी…
एक में
अब्दुल मौजूद था जो
खामोश था मगर
अपनी खूंखार निगाहें लगातार हम
पर गड़ाए था।
वह लम्बा चौड़ा
पठान था… उसे यहाँ तक
लाने में दोनों
हवलदारों के पसीने छूट
गये थे।
मैंने
कुर्सियां सहन में
पेड़ के नीचे डलवा ली थी… हम वहीँ आकर
बैठ गए थे
और ठाकुरों के अगले कदम
के बारे में
सोच रहे थे।
“साहेब।” किसी ने
हौले से पुकारा।
वहां हम
चार जान थे… हमने
उसे देखा। वह
एक शाल में
खुद को पूरी
तरह छुपाये था-– बस
चेहरा भर खुला
था लेकिन वह
भी शाल के
कारण अँधेरे में
था।
“क्या है?” मैंने कड़कदार
आवाज़ में पूछा।
वह
हमारे सामने कच्ची
ज़मीन पर उकड़ूँ
बैठ गया और हाथ
जोड़ लिये।
“मालिक,” वह दबी
जुबां में बोला, “मेरा नाम शौकत
अली है, अगर आप
लोग मेरा ज़िक्र
छुपाएँ तो मैं आपके
बहुत काम आ
सकता हूँ। मैं
ठाकुरों के यहाँ काम
करता हूँ लेकिन
मुझे उनसे बेपनाह नफरत
है।”
“तो
उनके यहाँ काम
ही क्यों करते हो?” फ़ज़्लू ने
पूछा।
“मज़बूरी
है मालिक… हम जो
नहीं करना चाहते साहब
वह भी पेट
करा देता है।
सारे गावं वाले मेरे
ही जैसे हैं, दिल में
इन ठाकुरों के
लिये बेपनाह नफरत है
पर कोई सर नहीं उठा
सकता क्योंकि उनके पास
ताक़त है।” बोलते-बोलते उसकी आवाज़
काँप गयी थी।
“तुम्हे
उनसे कुछ ज्यादा
ही नफरत मालूम होती
है।” जानकी दस ने
कहा।
“किसे
नहीं है मालिक… वह
जानवर हैं। उन्हें जब
तन की भूख
लगती है तो
गावं की किसी
भी औरत पर चढ़
दौड़ते हैं, नहीं आते तो
हुकुम भिजवा देते हैं
अब्दुल जैसे हरकारों
से और गावं
के लोग खुद चल
कर अपनी बहन
बेटी, बीवी को
हवेली में लुटने के
लिये छोड़ आते हैं।
पूरे डेरा जमाल
में चौदह साल की
भी ऐसी कोई
लड़की नहीं जो ठाकुरों
के बिस्तर तक
न पहुंची हो।”
“तेरे
साथ क्या हुआ?” बदलू ने
उसके चेहरे पर नज़रें
टिकायीं।
“मैं
उनकी ताक़त के आगे
मजबूर हूँ मालिक… मेरी
बहन बेटी नहीं
मगर एक खूबसूरत
औरत है, साल भर
पहले पुंछ से
ब्याह कर लाया
था लेकिन सुहागरात पहले उन लोगों
ने मनाई थी।
तब से अब तक दो
दर्जन बार खुद
उसे हवेली छोड़
कर आ चुका हूँ।”
“एक मिनट,” इतनी देर
में मैं पहली बार बोला, “तुम कुछ
और कहने आये
थे।”
“आप
लोगों ने अब्दुल
को पकड़ कर
अच्छा नहीं किया… वह लोग
तो पहले से
ही मौके की तलाश
में थे। आज
आधी रात को पूरी ताक़त
से चौकी पर हमला
करेंगे और आप
सब को ख़त्म कर डालेंगे।”
यानि वह अवश्यम्भावी घड़ी आ
ही गयी। यह तो
होना ही था… सवाल
यह था कि अब क्या
किया जाए? बात तो वही
आई… जब तक गिलगित
से मदद आती हम
ख़त्म हो चुके
होते। शौकत तो हाथ
जोड़े “चलता हूँ मालिक” कह
कर चलता बना।
राम आसरे वहीद को
लिये अस्पताल गया
था… यहाँ मैं, जानकी, फ़ज़्लू, बदलू मौजूद
थे और ननका लल्लन और निजामू
गश्त पर थे।
आखिरकार मैंने फैसला सुनाया-–
“हमारे
पास मुकाबले लायक
न आदमी हैं न
हथियार। लड़ने से
पहले ही हार
निश्चित है। ऐसा
करो, निजामू, ननका
और लल्लन
को बुला लाओ-– हम
चौकी का ज़रूरी
सामान हटा देते
हैं, फिर
निजामू लल्लन घोड़ों
से गिलगित चले
जायेंगे और थाने में जाके
सारे हालात बताएँगे। तब तक, जब तक हमारे
लिए थाने से
मदद आ जाये… हम अलग-अलग गावं
के ही किन्हीं
घरों में पनाह
लेंगे। चलो उठो-– हमारे पास वक़्त
बहुत कम है।”
हम
सब उठ खड़े
हुए।
( क्रमशः )
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