शौक-ए-सुखन और यह फ़ाक़े
हर एक शख्स ने किताबे दिल पढ़ डाली
समझने वाला कोई उम्र भर न मिला
किसे बनाता नसीर राजदार अपना
जमाने भर में मुझे कोई मुअतबर न मिला
कम्बख्त का मुंह था कि बन्द ही नहीं था कभी... हर घड़ी,
हर मौके के लिये उसके पास शेर तैयार थे,
ग़ज़लें तैयार थीं। एक यही तो जायदाद थी उसकी और था ही
क्या उसके पास। अभी बेचारी बिलकीस बेगम ने उसे खाली बर्तन दिखाये थे,
मुंह बिसूरते शेख जब्बार अहमद की शक्ल दिखायी थी और
यह कह कर धक्के दे कर घर से निकाल दिया था कि वापस आये तो जेब में इतने तो पैसे हों
कि इम्तियाज और वकार की दो महीने की रुकी फीस दी जा सके,
जब्बार के लिये दूध और घर के लिये खाना आ सके।
‘शुक्र है कि तीन हैं... ज्यादा होते तो अल्लाह जाने क्या
होता ।’
और यह बदबख्त घर से निकल कर मुहल्ले के उस सड़ियल से पार्क में आ बैठा था, जो
इसी की तरह अपनी किस्मत को रो रहा है। इधर देखो चाहे उधर... ओजोन की परत में जैसे छेद
हैं वैसे ही यहां जहां-तहां घास है। उधर देखो... रिक्शे ठेले वालों के बच्चे खेल रहे
हैं। वह उधर... कुछ घटिया से अफराद हुड़दंग मचा रहे हैं... शायद क्रिकेट कहते हैं इसे।
इधर-उधर मूंगफली-चने वाले भी आवाजे लगाते हुए फिर रहे हैं। अरे हां... पास ही उसके
जैसी शक्ल वाले कुछ बेवकूफ भी बैठे भुनभुना हे हैं... नहीं,
शायद अंग्रेजी में बहस कर रहे हैं। नसीर लाहौरी दाढ़ी
खुजाते हुए सुनता है... वह मआशरे की बात कररहे हैं।
फिर शहरगर्दी में गुजरा दिन मेरा
फिर मेरी आवारगी ने मुझे सताया है
दर्द मेरी तन्हाइयों का बड़ी शिद्वत से
आज फिर मेरी आंखों में उतर आया है
शेरो शायरी उसका शौक नहीं था... उसकी गिज़ाा थी, उसकी जिंदगी थी, उसकी तसकीन थी, उसका लहू थी... वह बिलकीस बेगम के बगैर रह सकता था... तीनों
नूरचश्मों के बगैर रह सकता था लेकिन शायरी के बगैर नहीं। शायरी उसका लहू थी... कलम
उसकी उंगलियां... शायरी उसकी धड़कन। आखिर क्या नहीं दिया था शायरी ने उसे... गरीबी,
लाचारी, भूक, फाके, ज़िल्लत... जिंदगी के हर अहसास से लबरेज रखा था उसे। उसकी
धड़कन में शायरी थी, उसकी सांसों में शायरी थी, उसकी सोचों में शायरी थी।
हो गये लोग बस्ती के सारे मुझसे बदगुमान
जाइये अब आप भी मुझसे खफा हो जाइये
एब सारे जानता है वह अर्श वाला नसीर
लाख दुनिया की नजर में पारसा हो जाइये
शुक्र था कि मियां शेख अहमद नियाजी की वह इकलौती औलाद था वर्ना वहां भी बटवारा
हो जाता। अकेला था तो फिर भी गुज़र हो ही जाती थी... दो पुश्तैनी दुकानें थीं शहर में—
उनके नाकाफी किराये में रो पिट कर दिन गुजरते थे... वह न होतीं तो बिलकीस बेगम न होती...
बिलकीस बेगम न होती तो तीनों लख्तेजिगर न होते।
मगर अब तो सबकुछ था... किराये के चंद दिन सिकुड़ते गये... छोटे होते गये और फाकों
के तमाम दिन फैल कर बड़े होते गये। वह काम करे— उसकी गैरत ने गवारा न किया । वह तो मिल्टन,
शैली, कीट्स, वायरन, गालिब, मीर, मोमिन,
ज़ौक की दुनिया का बाशिन्दा था— काम कैसे कर सकता था।
यदा-कदा होने वाले मुशायरों में उसकी पूछ हो जाती थी तो कुछ इनकम वहां से भी हो
जाती थी, या आसपास के शहरों में बुला लिया जाता था तो चार पैसे उधर से भी जेब में
आ जाते थे, लेकिन इधर काफी दिनों से ऐसा कोई बुलावा भी नहीं आया था।
पुश्तैनी घर था— पुराने साज़ो सामान थे... वक्त की गर्दिश खा गये। दीवारों का
प्लास्टर अंग्रेज़ों के साथ ही जा चुका था। देखते-देखते कम्बख्त दीवारें भी साथ छोड़ने
लगीं। छतों की तकदीर एसी थी कि आस्मान रात भर बरसता तो वह अगला पूरा दिन बरसती रहती...
बैतुलखला की किस्मत भी बदल गई— दीवारों की जगह टाट के पर्दों ने ले ली। एसा करमा मारा
था गरीब कि उसका लिखा न बिका... घर का एक-एक सामान बिक गया ।
जैसे कर्जदार सर चढ़ते थे - वैसे ही जब तब फाके आ जाते थे ।
मुसर्रतों के सितार भी लरज के टूट गये
नवाए गम ही यहां मुअतबर मिली है मुझे
सब कमअक्ल थे, उसके फन से शनाशा न थे— हमेशा चख-चख करते रहे मगर कभी अपने हालात से नसीर लाहौरी
मायूस न हुआ। इन्हीं महरूमियों ने तो उसकी सोचों को गहराई दी थी।
यूं तो रोज नये सूरज निकलते रहते हैं
दिये जले न जले दिल जलते रहते हैं
कर्जदारों ने जोर बांधा तो बाप दादा का मकान भी हाथ से निकल गया और परिवार सड़क
पर आ गया पर शेख नसीर अहमद नियाजी और लाहौरी के तखल्लुस वाला यह शख्स अपने शौक से बेजार
न हुआ। शौक कहां था— जिंदगी थी यह उसकी। एक रिश्तेदार ने तरस खा कर अपने यहां रख लिया—
पर यह कभी उसका किराया भी न दे पाया ।
लाहौर से जो अखबारात और रिसाले शाया होते थे... उनमें वह यदा-कदा छपता था...
कभी-कभी मुशायरों और नशिश्तों में वह पढ़ा जाता था पर बहुत कम एसा होता था कि उसे कायदे
से उजरत मिली हो। कई बार मकामी शायर उसका कलाम पढ़ते थे और उसे सिर्फ क्रेडिट दे दिया
जाता था।
दरहकीकत जमाना मार्टिन लोप्ज़, ब्रिटनी, बैकस्ट्रीट ब्वायज, आतिफ, अदनान जैसों का था। उस जैसे गहरे शायर तो बस मुशायरों, नशिश्तों, रिसालों या उर्दू के खिदमतगारों तक ही रह गये थे। हालाकि इस शगल से भी लोग पैसे
कमा लेते थे मगर वह हमेशा नाकाम रहा था। गुजिश्ता दिनों एक माहनामे के मुदीरेआला ने
यह पेशकश रखी थी कि वह अपने तमाम कलाम उन्हें बेच दे...यानि वह उन्हें वक्त वक्त पर
गुजरे नामी शायरों के नाम से छापते रहेंगे। वह खून का घूंट पी कर रह गया था।
अजब है आज के इन्सान की तर्जे खरीदारी
देके सिक्काए नफरत प्यार और खुलूस मांगे है
आज तो क्लाइमेक्स था... सबकुछ खत्म। फाकों का डर उसे नहीं था। बिलकीस बेगम को
भी नहीं था... बच्चों को था।
शाम की स्याही ने शहर को घेरना शुरू किया तो वह घबरा कर घर भागा। घर... उसने
मुआयना किया— अभी कुछ दिन और इसे घर कहा जा सकता है। पर यह क्या... बिलकीस बेगम का
चेहरा कई दिनों के बाद दमक रहा था। वकार और इम्तियाज एक तरफ बैठे पढ़ रहे थे। या अल्लाह,
इनके चेहरों पर खुशी थी और यह जब्बार— उसे मुंह चिढ़ाता
दूध पी रहा था। गया था तो यह एसे न थे... इस मुख्तसर से वक्फे में यह क्या हो गया था
इन्हें। उसने घबरा कर बिलकीस बेगम को निहारा।
‘बेगम— जमीन में सोने का बर्तन मिल गया क्या?’
‘वह रहमानी साहब आये थे।’ बेगम ने बताया।
रहमानी... यह कमीना वही शख्स था जो उनके कलाम खरीद रहा था। क्या कर गया है वह...
बिलकीस बेगम उसकी कशमकश से बेखबर थीं।
‘आपकी अलमारी में जो आपके कागज रखे थे... हमारे लिये तो वह बेकार थे न... मैंने
उन्हें दे दिये। उन्होंने पांच सौ रुपये भी दिये और कहा है कि हर महीने दो सौ रुपये
दे दिया करेंगे।’
अल्लाह... उसने घबरा कर इधर-उधर देखा। उसके अपने ही थे सब... कौन भला तीर चलायेगा...
उसका वहम ही था। फिर उसके वजूद में गूंजी यह तीर जैसी सनसनाहट...कुछ तो था... सीने
पे बोझ का अहसास हुआ तो खांसी आ गई। आंखे भी कम्बख्त थीं... बिलकीस बेगम के सामने ही
छलक आयीं।
शै तो भरपूर बनाई थी खुदा ने मगर
फितरत में अक्ल की थोड़ी कमी कर दी
यूं तो उसे ‘वफा’ कहना था लेकिन उसे बिलकीस बेगम में अक्ल की कमी ज्यादा नजर
आयी।
वह आया और किस्मत को रोती चारपाई पर आ लेटा...
पहुंची न उनकी नजर मेरी हंसी के आगे
कितनी सादगी से हमने आंसू बहाये हैं
उसका ज़हन गुजरे वक्त की सिम्त परवाज करने लगा। कितना अर्सा हो गया उसे लड़ते हुए...
हथियार थक गये... पूरा वजूद थक कर चूर हो गया फिर भी एसा नसीब का मारा था कि जीत न
सका। अब तो उसे शिकस्त का एतराफ कर लेना चाहिये। उसे लगा जैसे बहुत से चेहरे उस पर
हंस हे हैं— उसने स्याही में आंखें गड़ा कर उन चेहरों को पहचान्ने की कोशिश की... एक
ही चेहरा पहचान सका... रहमानी का। अब उसे ज़िल्लत का खौफ नहीं था।
उसने एक कागज लिया, कलम उठाया... चंद आखिरी शब्द लिखे और आंखें बंद कर लीं... महरूमियों ने उसकी
कई रातों की नींद छीन रखी थी। आज उसकी पलकें नींद के बोझ से मुंदी जा रही थीं। वह सो
गया... मियां शेख अहमद नियाजी और लाहौरी के तखल्लुस वाला यह शख्स उस रात एसा सोया कि
फिर कभी न उठा... जितनी खामोश उसकी जिंदगी थी... उसी खामोशी से वह दुनिया से कूच कर
गया। उसकी आखिरी वसीयत कागज का वह पुर्जा ही थी जिसपे लिखे वह शब्द यूं मगमूम थे...
मैं अब कि तुमसे जो बिछड़ा तो मिल न पाउंगा
मेरी तलाश में तुम चाहे फिर उम्र भर रहना
(*सभी आशार दूसरे मुअतबर शायरों का कलाम हैं)
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