अछूत
ओ लड़की क्या उठा रही है?
कुछ नहीं बाबूजी कागज और पन्नियां हैं।
वह प्रकृति द्वारा निर्मित भीमकाय शरीर अपने घर के आंगन में बैठा , शायद दुनिया का सबसे सुखी इंसान होने का दावा पेश कर रहा था।
और एक दूसरा शरीर मैला और लगभग काला सा
शरीर पर ऐसे कपड़े जो शायद पोछा बनाने लायक थे।
कंधे पर प्लास्टिक का गंदा सा थैला, और उसमें जमा कागज और प्लास्टिक की पन्नियों का बोझ उठाए एक ऐसा शरीर जिसे सभ्य समाज धरती पर बोझ समझता है।
क्योंकि समाज में एक अछूत शब्द भी इंसानों के दिमाग में गढ़ा है।
अरे ठहर बता क्या डाला है थैले में?
कहते हुए वह घर का मालिक उसकी तरफ लपका।
वह सहम गई थी, माथे के पसीने की बूंदे उसके सूखे और फटे गालों पर किसी तरह भी मास्चराइज़र का काम नहीं कर रही थीं।
लो देख लो बाबूजी कह कर लड़की दो कदम पास आ गई थी।
ऐ दूर हट वहीं खड़े रह
ऐसा कह कर उसने मैले शरीर से तो ख़ुद को दूर कर लिया लेकिन अपनी ललायित नजरों को दूर नहीं रख सका।
अब उस की निगाहें उसके थैले पर नहीं उसके शरीर पर तैर रही थीं।
कपड़े मैले थे, बाल सूखे और उलझे हुए लेकिन उसके जिस्म में उसे तरावट दिख रही थी ।
शरीर के उतार-चढ़ाव पर एक पैनी निगाह डालते हुए अब उसकी नजरें जिस्म के उभारों पर ठहर गईं थीं
जिन्हें फटे कपड़े पूरी तरहं ढकने में असमर्थ थे।
उसका मस्तिष्क अनियंत्रित होकर उसकी दृष्टि को ऐसे संकेत भेज रहा था जिससे अब उसे मैले कपड़े दिखने बंद हो चुके थे।
आंखे सिर्फ शरीर के मांस को देख रही थीं।
लड़की शायद ऐसी परिस्थितियों से पहले भी गुजर चुकी थी इसलिए मैं घर के मालिक के मन की मंशा समझ रही थी।
ऐसे कूड़ा बीनने से कितना पैसा बना लेती है?
अचानक वह उदार हुआ।
बस साहब दिन में बीस तीस रुपए बन जाते हैं वह बोली
ऐसा बेबस जवाब उस आदमी के लिए दिली खुशी और तसल्ली देने वाला था।
उस शातिर दिमाग ने गली में दोनों तरफ देखा
दोपहर के समय पूरी गली सुनसान थी, खुद के घर में भी उसके सिवा कोई नहीं था।
ऐसे समय ही इंसान के शैतानी दिमाग में बेग़ैरती के अनार फूटते हैं।
आखिर उसने अपने मन की कीचड़ मुंह से उगल ही दी
और बोला...
अगर मैं तुझे पांच सौ रुपए दूं तो क्या थोड़ी देर मुझे कुछ करने देगी
समझ गई ना बस 10 मिनट लगेंगे।
बोल अंदर आ जा...
वह चौंकी नहीं , शायद ऐसी बातें सुनने की वह अभ्यस्त थी
साहब में कूड़ा उठाने वाली और आप साहब लोग...
घर के मालिक को आधी स्वीकृति मिल चुकी थी ।
एक कुटिल मुस्कान के साथ बोला...
अरे तो क्या हुआ जा बाथरूम में जाकर पहले नहा ले यह कहकर वह मेनगेट को बंद कर चुका था।
उस मैली काया के लिए शायद पाचं सौ रुपय बहुत थे
इतने पैसे, उसे इस काम के लिए कभी नहीं मिले थे
कितने तो सिर्फ बहला-फुसलाकर मुफ्त में काम कर जाते थे।
अब उसके पास सोचने का समय नहीं था वह उसके पीछे पीछे घर के अंदर चली गई
झोला बाहर पटक दिया था
देख उधर गुसलखाना है, जल्दी से नहा ले
और वापस यह कपड़े मत पहनियो
ऐसे ही आ जाइयो...
अब वह जैसे जैसे पानी अपने ऊपर डालती जा रही थी उसकी छोटी जात, मैल का रूप धारण कर नाली में विलीन हो रही थी।
वह भी अपना जनेऊ उतार चुका था
जैसे ही वह नहा कर कमरे में आई वह उसके निर्वस्त्र शरीर पर किसी गिद्ध की तरहं टूट पड़ा था।
अब उस लड़की का शरीर अछूत नहीं था बल्कि सिर्फ संभोग क्रिया के लिए इस्तेमाल किए जाने वाला सुडौल और मांसल शरीर था।
अब बंद कमरे में दो शरीर आपस में गुंथे हुए थे,
और ऊंच नीच जाति का भेदभाव कोने में खड़ा तमाशा देख रहा था।
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