Header Ads

कम बैक

 



"आज तुमने पूजा नही की आशु...?"
"कोई फायदा नही अनु यहाँ भगवान है ही नही..उसका होना फील ही नही होता .....?"
और भगवान की जरूरत भी क्या है... इतने ताकतवर देश में... जहाँ कोई गरीब नही... कोई शोषित और असहाय नही... जहाँ चमत्कार सिर्फ मशीन्स और रोबोट्स करतें हैं... जहाँ हमारे कर्मकांड और पौराणिक कथाएँ सबको हास्यप्रद लगती है... जहाँ नास्तिकता ने ईसा को भी सलीब से जमीन पर ला छोड़ा है... वहाँ ' आशुतोष अवस्थी ' का ये कहना कितना न्यायिक और प्रमाणिक लगता है कि यहाँ भगवान है ही नही

अमेरिका आना और यहाँ रोजगार करना चार में से हर एक भारतीय का सपना है... क्यूँकि उन्हें लगता है कि उनका देश भारत इस लायक नही जो उनकी प्रतिभा से इंसाफ कर सके... लेकिन मेरा सवाल ये कि ये प्रतिभा उनमें आती कहाँ से है... जाहिर है ये प्रतिभा उनमें भारत के स्कूल, कॉलेजेस और इंस्टीट्यूशन्स ही भरते हैं... लेकिन फिर भी ये एक मॉडर्न क्रेज... ट्रेंड और पैशन बन गया है कि भारत सिर्फ प्रतिभाओं के दोहन का अड्डा है... और अमेरिका या अन्य फॉरन कंट्रीज प्रतिभाओं को और पल्लवित करने का एक धनाढ्य मंच

तभी डोर बेल बजती है-
"कहाँ थी रात भर तुम...?"
"दिस इज नॉट योर मेटर पापा...आई एम फ़्री एंड इंडिपेंडेंट फ़ॉर माय लाइफ एंड इट्स डिसिजन्स
"

मेरी बेटी मेरे मुँह पर चाँटा मार कर थूक रही थी लेकिन इसका अहसास मेरी चमड़ी नही सीधे मेरे दिल ने महसूस किया... वो तो बहुत ही बेहुदा कपड़ों में मेरे कंधे को ठेल कर अपने रूम में चली गई... लेकिन जब करीब से गुजरी तो मैंने पाया कि उसके मुँह से शराब की बेहद तेज बदबू आ रही थी...और एक अलग तरह के परफ्यूम की सुगंध जो वो इस्तेमाल नही करती...बल्कि उसका अमेरिकन फ्रेंड क्रिस्टियानो उस परफ्यूम को यूज करता है

संस्कारों की इस जलती होली में...मैं भी धीरे -धीरे दहक रहा था...और ये आग मेरी खुद की लगाई हुई थी...आज अपने पिता की बहुत तेज याद आई... 24 का था मैं जब अमेरिका आने को बैग पैक कर रहा था

"आशु ! जाना जरूरी है बेटा..?"
"बाबूजी चिंता मत कीजिये...सेटलमेंट के बाद आपको भी वहीं बुला लूँगा"

"किसने कहा बेटा कि तू बुलायेगा और मैं दौड़ा चला आऊँगा...बड़ा ऋण है बेटा इस देश की मिट्टी का मुझ पर...बड़े सघन रिश्ते जुड़े हैं मेरे यहाँ... मेरे पिता 'अश्विनी अवस्थी' ने इस देश की आजादी को अपना रक्त दिया है...यहाँ मेरे ठाकुर जी हैं... मेरे राम यहीं जन्मे हैं...मेरे कान्हा ने यहीं किलकारी ली है...यही तो वेदों की जन्मभूमि है बेटा...सिर्फ इसी धरा पर तो संस्कार जिंदा हैं बेटा... क्या सिर्फ मात्र धन के लिए अपना कुल, अपना गोत्र अपना बचपन..अपने रिश्ते सब स्वाहा कर दूँ?"

उस समय बाबू जी की बात बिल्कुल वैसी ही लगी जैसे डूबती नाव पर छेद होने पर मल्लाह उसके छेद न भरकर आँखें मूँद कर हरि नाम का जाप करे...मैं चला आया...क्यूँकि मुझे कुछ करना था...अपना नाम बनाना था...एक पहचान और स्टेटस भी वरना इस देश ने मुझे दिया ही क्या है सिर्फ अभाव और विपन्नता के...तभी-
"आशु ! मेरा इन्हेलर ...हफ़्फ़फ़ ..हम्प्पफ़्फ़ "
मैं दौड़कर अनु के पास गया और उसे उसका अस्थमा इन्हेलर दिया ....पता नही अनु को कैसे दमा हो गया ...जबकि यहाँ अमेरिका में जलवायु बिल्कुल भी दूषित नही...एक्स्ट्रा एडवांस मेडिकल फेसलिटीज है ....अनु को कुछ आराम मिला तो याद आई माँ की और न जाने क्यूँ आँखों से आँसू झरने लगे।।
' वसुंधरा ' नाम था मेरी माँ का ... याद आता है वो पल जब वो सुबह से ही लकड़ी के चूल्हे पर जुट जाया करती थी ...चूल्हे के धुंए के मध्य वो नारायणी कभी खाँसी ही नही ...हमेशा ऊर्जावान रहती ...चूल्हे की वो रोटियाँ याद आती तो जुबान में एक लिसलिसाहट पैदा होने लगती ...याद आता बाबूजी का वो घड़ी का अलार्म जिसमें चाबी भरनी पड़ती थी .....और अभी भी आँखों में ताजा होता वो ब्रह्ममुहूर्त जिसमें बाबूजी मुझे ठेल कर जगाते .... नित्य क्रिया के बाद मेरी मुट्ठी में उबले चने देते और पूरे गाँव का चक्कर लगाने का आदेश देते ....और फिर जब लौट कर आता तो माँ हाथ में गर्मागर्म गौ मैया का दूध गिलास में भरकर लाती ....फिर बाबूजी के साथ कुँए के मीठे और शीतल जल में स्नान करता ...फिर पूजा- अर्चना में बाबूजी मुझे अपने साथ बिठाते ...कभी श्री हरि की कथा सुनाते तो कभी गीता का मर्म ...माँ चूल्हे में रोटियां थोपते -थोपते सर पर पल्लू धरे बाबूजी के उन उपदेशों को आत्मसात करती ......

फिर बाबूजी ही मुझे अंकगणित के जटिल प्रश्नों को हल करवाते ....बाबूजी अध्यापक थे ...विद्यालय तब अंकों का बाजार नही ज्ञान का प्रकाश स्तम्भ होता था .... पहाड़े ..बारहखड़ी और सुलेख विद्यालय के आभूषण हुआ करते थे ....

आज भी मैं यदि स्वस्थ्य और निरोगी हूँ तो ये सब मेरे बचपन की विरासत है ..... गुल्ली -डण्डा , कबड्डी , रस्सम-कस्सी कुश्ती ..लट्टू ..पतंग हमारे खेल थे ......
गोधूली पर गैयाओं का लौटता झुंड.....हमारे बदन पर मिट्टी का लेप ...और गाँव के पोखर से छप-छप करके घर लौटना ......
शाम ढलते ही लालटेन और कुप्पी की रौशनी में ...दादी का गोद में बिठाकर जामुन के पेड़ की चुड़ैल की डरावनी कहानियाँ ताकि हम घर से बाहर न निकले ....वो हिंदी की कविताओं का रट्टा ...अकबर ..महाराणा प्रताप के चर्चे ... वो टेढ़े -ठिठके आम पर जलरंग भरना ....
और रविवार का वो दिन जब पटालों की छत पर चढ़ कर ..दीवान सिंह ताऊजी के टी.वी एंटीने को घुमाकर कभी प्रभु राम की लीला का मंचन देखना तो कभी नारी सम्मान का चरम प्रस्तुत करने वाले भगवान कृष्ण को एक अबला को साड़ी पहनाते हुए देखना ........
अलिफ लैला ने जिंदगी में कल्पनाओं का विस्तृत समावेश भरा तो जंगलबुक ने समझाया कि जानवरों का भी स्वाभिमान और कद होता है ......
आज यहाँ अमेरिका में सब कुछ है लेकिन बचपन का वो कोई भी दोस्त नही जो जीने-मरने की बात करता था ...चंपा भी नही ..जो मुझसे अमिट प्रेम करती थी ...जिसके काँधे पर सर रखकर मैं सूरज को डूबता हुआ देखता था .....
हर मन्दिर के पुजारी का नाम पता था मुझे और गाँव से दूर से दूर तलक की हर मस्जिद के इमाम का भी .....
न वैमनस्य था न कोई धार्मिक कटुता ...दीपावली उतनी ही प्रिय थी जितना ईद का बाजार ....और यहाँ अमेरिका में न दीवापली का कोई दीपक ही नजर आता है न ईद की सेवइयों की कोई मीठी सुगंध ही महसूस होती है ....
मजाल नही कि कोई बेहुदापन होता था गाँव में ....हम तो रामलीला देखकर ही खून की नसों में राम को महसूस करते थे ...और माँ अक्सर मुझे कृष्ण जन्माष्टमी पर कृष्ण का वेश प्रदान करती थी ......
लेकिन मेरी बेटी मेरी व्यस्तता और अनदेखी के चलते एक भी दिन माँ सीता की तरह बनकर न जी सकी ....उसने कभी मुझसे हिंदुस्तान के बारे में नही पूछा ...यहाँ तक उसे अपने दादा और दादी का नाम भी नही पता ....


मैंने अनुराधा से शादी की जो मेरी की कम्पनी में जॉब करती थी ... एक ही बच्चा हमने प्लान किया और माँ सिर्फ इसलिए हमेशा शर्मिंदा रहा करती थी कि वो मेरे पिता को दूसरी सन्तान नही दे सकती थी ....... क्यूँकि उनकी बच्चेदानी मेरे पैदा होने के बाद किसी बीमारी के चलते निकाल दी गई .....लेकिन बाबूजी ने कभी माँ को कुछ न कहा ...बल्कि वो धन्यवाद देते थे माँ को कि उन्होंने एक बेहद मेधावी और संस्कारों से युक्त पुत्र को उन्हें उपहार स्वरूप दिया .....
" देखना वसु ....मेरा आशु अपने पिता और दादा का नाम कितना रौशन करेगा ...एक दिन वो इस देश के लिए बहुत कुछ करेगा "
लेकिन मैं देश क्या अपने माँ-बाबूजी के लिए भी कुछ न कर पाया .....माँ को मेरे विरह ने तिल-तिल करके मार डाला और पिताजी मेरे लौटने की प्रतीक्षा में चिता में जा लेटे ....और मेरी व्यस्तता ने मुझे मेरे माँ-बाबूजी की मुखाग्नि से भी दूर कर दिया ....
आज लौटना चाहता हूँ लेकिन अब कुछ भी तो शेष नही बचा ...न ही परिवार में कहीं भारत बचा है न ही बेटी में कहीं कोई संस्कार ......!
दिन-रात रोता हूँ ....वो जो कभी समझता था कि बुढापा सिर्फ उसके पिता को आया है उसे कभी नही आएगा ....आज उन्हीं की अवस्था में आकर खड़ा हूँ और इस प्रतीक्षा में मौत से पहले मरा जा रहा हूँ कि मेरी अस्थियां क्या माँ गंगा स्वीकार करेगी...और यदि माँ गंगा को मुझपर तरस भी आ गया तो माँ गंगा तक मुझे लेकर कौन जायेगा .......
आज जाकर प्रतीत होता है कि माना ये पूरी दुनिया ईश्वर ने रची है लेकिन अपने लिए सिर्फ उसने हिंदुस्तान क्यूँ चुना ....क्यूँकि ईश्वर भी भली-भाँति समझता है कि उसे अगर सृष्टि के अंत तक कोई देश जीवित रख सकता है तो वो भारत है ........
इसलिये कहता हूँ कि लौट जाओ ...लौट जाओ ...जिंदगी में हर चीज सिर्फ पैसे और चमक-धमक से मुमकिन है तो सिर्फ बचपन और माँ-बाप खरीद कर दिखा दो ...वो अपने देश की मिट्टी का एक ढेला खरीद लो जो तुम्हे अपना देश याद दिला सके ...वो मिट्टी, वो पनघट.,वो धुंध चढ़ा दर्पण , वो रहट , वो बचपन , वो माँ -पिता की आँख का तर्पण सब तुम्हे आवाज दे रहें हैं ....
प्लीज कम बैक!

Written by Junaid Pathan

No comments