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इश्क और तलवार

इश्क और तलवार
 

छः सौ पैंतीस ईसवी
हज़रत सल्लल्लाहो अलैवसल्लम को हिज़रत किये चौदह बरस हो रहे  थे। जगह थी 'तग़लिब' नाम का इसाई क़बीला, जो अरबों के बीच बाकी रह गये चंद इसाई और बुतपरस्त क़बीलों में से एक था। रमजान कामहीना चल रहा था।

'तग़लिब' का एक इसाई जवान दारैनजिसे  घर के अफ़राद  छोड़ बाक़ी सभी दारा ही कहते थे, इस वक़्त खजूर के पेड़ के नीचे अकेला लेटा बांसुरी बज रहा था। रात का सन्नाटा दूर-दूर तक क़ाबिज़ था।

नीले आसमान पर दूधिया चाँद अपनी पूरी क़ूवत से चमक रहा था, जिसकी चमक में बाक़ी सितारे फीके पड़ गए थे। चाँद की ठंडी ठंडी किरणों में दूर दूर तक फैली रेत जैसे गुसल कर रही थी। दारा की पीठ से जो खजूर का सिलसिला शुरू हुआ था, वह दूर तक चला गया था। रात की ख़ामोशी में उसकी बांसुरी की आवाज़ जैसे हवा में मिठास घोल रही थी और चारोंतरफ फैली पड़ी रेत जैसे उसी को सुन रही थी। दारा क़बीले के एक अमीर सौदागर का नूरचश्म था। इस वक़्त उसके जिस्म पर एक शफ़्फ़ाफ़ सा लिबास था और वह पूरी तरह खुद में ही खोया हुआ था।  

उसकी  पुश्त पर काफी दूर उसका खेमा दिख रहा था,जिधर से सफ़ेद लिबास में कोई दौड़ा आ रहा था। पास आया तो दिखा, वह एक जवान, खूबसूरत लड़की थी, जो दारा के पहलू में आकर ढेर हो गयी और अपनी उखड़ी साँसे दुरुस्त करने लगी।

"बड़ी देर लगा दी उज़्मा।" दारा ने पुरखुलूस निगाहों से उसे देखा।

"तुम्हें तो बस इश्क़ की पड़ी रहती है… कुछ पता भी है तुम्हें क्या चल रहा है।" वह थोड़े अफसोसनाक लहजे में बोली।

"मुझे किसी भी बात से क्या मतलब… मुझे तो बस तुमसे मतलब है।"

"दुनिया मुझसे आगे और भी है दारैन… तुम्हें पता भी है, अरबों के लिये मातम के दिन चल रहे हैं।"

"क्या हो गया है उन्हें।"

"तुम्हें दुनिया से भी दिलचस्पी रखनी चाहिए। तुम्हें पता भी है मशरिकी फरात के किनारे मरवहा में अज़मों के हाथों अरबों को बीते साल जो शिकस्त मिली थी, उसके घाव अभी भी ताज़ा हैं। खलीफा हज़रात उमर रज़ि0 ज़ोर शोर से हमले की तैयारियों में जुट गये हैं। उनके लोगों की पुरजोश तकरीरों ने समूचे अरब में आग लगा दी है। तमाम क़बाइल जंग के लिए उमड़ पड़े हैं। क़बीला अज़द के सरदार मुखनिफ बिन सलीम सात सौ सवारों के साथ, बनो तमीम के हसीन बिन मआबिद के साथ हज़ार आदमी, हातिमताई के बेटे अदी जमाअते कसीर के साथ, क़बीला रुबाब बनो किनाना, कसम बनो खन्तला, बनो ज़बह… जाने कितने लोग खलीफा के पास पहुँच रहे हैं। कल अपने क़बीले के सारे जवान भी सरदार के साथ कूच करेंगे।

"अगर फारस में फ़तेह का इरादा मुसलमानों का था तो शिकस्त भी उन्हीं की है।"

"नहीं दारैन यह लड़ाई मज़हब की नहीं, क़ौम की है और हम लोग हमक़ौम हैं। नमरो के लोग भी रवाना हो चुके हैं… वह भी तो इसाई हैं।"

"तो मैं क्या करूँ… तीर तलवार मेरे हाथों को ज़ैब नहीं देते। मैंने कभी इनका इस्तेमाल नहीं किया। मैंने तो हमेशा इनके क़ातिल वजूदों पर तुम्हें ही तरजीह दी है। मैं जंगआवर नहीं हो सकता… मैं तो आशिक़ हूँ।"

"लेकिन यह क़ौम की पुकार है।"

"बचपन में मैंने एक बार तलवार उठाई थी तो तुम्हें याद है कि मुझे तुम्हीं ने रोका था और कहा था कि तुम मेरे हाथों में कभी यह क़ातिल सामान नहीं देखना चाहती। मेरी पैदाइश तो बस मुहब्बत और शफ़क़त के लिए हुई है… वह दिन था और आज का दिन है… मैंने फिर कभी हथियार नहीं उठाया। क़बीले के लोग कहते हैं कि दारैन कायर है लेकिन मैं कहता हूँ कि दारैन सिर्फ आशिक़ है।"

"लेकिन आज मैं ही कह रही हूँ कि तलवार उठा लो… वक़्त की ज़रुरत के हिसाब से इंसान  को बदलना  भी चाहिए। क़ौम की पुकार को अनसुना मत करो। जानते हो 'तग़लिब' में जांबाज़ और बहादुर पैदा होते हैं… ऐसे में मेरे वालिदैन कभी तुम्हें उन बहादुरों पर तरजीह नहीं देंगे-- लेकिन मेरे वालिद बड़े क़ौम परस्त हैं। अगर तुम क़ौम की इस जंग में हिस्सा लोगे तो शायद वह हमारे रिश्ते को क़बूल कर लें, वरना शायद हम कभी न मिल सकें।"

"ज़िन्दगी भर तुमने मुझे कुछ और सिखाया और आज… आज कुछ और करने को कह रही हो।" कहते हुए दारा का लहजा लरज गया।

"आज जो सही है… जो जायज़ है वही कह रही हूँ तुमसे। दारैन… यही तो तुम्हारे पास मौका है कि तुम मेरे वालिदैन की नज़र में खुद को मेरे क़ाबिल साबित कर सको।"

वह थोड़ी देर के लिए सोच में पड़ गया, फिर शिकस्त खायी आवाज़ में बोला, "मैं जानता हूँ कि मेरे वालिदैन मुझे इस बात की इज़ाज़त कभी नहीं देंगे, लेकिन जहाँ मैंने कल तुम्हारे लिए किसी भी हथियार को छूना तक न क़बूल किया… आज तुम्हारे लिए ही तलवार भी उठा लूँगा। भले मुझे तलवार चलाना आता हो या न आता हो।"

"दारैन।" उज़्मा ख़ुशी से उसके आगोश में समां गयी… उसने भी कस कर उज़्मा  को अपने आगोश में समेट लिया। थोड़ी देर बाद उज़्मा ने सर उठा कर दारैन की आँखों में झाँका।

"जानते हो दारैन… खुदा न करे, अगर तुम जंग में शहीद हो गए तो मैं किसी से भी शादी नहीं करुँगी… वरना खुदा ने चाहा तो मैं एक दुल्हन की तरह आरास्ता हो कर अपने महबूब की  वापसी का इंतज़ार करुँगी। तुम जिस दिन वापस आओगे-- हमारी शादी होगी और हमारी बचपन की मुहब्बत को यूँ जवानी में अपनी मंज़िल मिल जाएगी।" उसकी आवाज़ में उम्मीद ही उम्मीद थी।  वह सारी रात उन्होंने एक दूसरे के आगोश में गुज़ार दी।

और अगले दिन वह उज़्मा को आखिरी बार देख कर, क़बीले के हजूम के साथ चल पड़ा… घरवालों की मुखालफत के बावजूद।

जल्द ही वह खलीफा हज़रात उम्र रज़ि0 की खिदमत में हाज़िर हो गये।

फारस की हुकूमत का चौथा दौर जो  सासानी कहलाता है, नौशेरवान आदिल की वजह से बहुत मक़बूल है… आप सल्लल्लाहो अलेवसल्लम के ज़माने में उसी का पोता परवेज़ तख्तनशीन हुआ। इसी मगरूर बादशाह के दौर में हुकूमत, सल्तनत बहुत क़ौमी और ज़ोर आवर रही, लेकिन उसकी मौत के बाद सालों हुकूमत में अबतरी छायी रही। उसके बेटे शेरविया ने अपनी आठ साल की हुकूमत के दौरान अपने कमोबेश पंद्रह भाइयों को क़त्ल करा दिया।

उसके बाद उसका बेटा अर्द्शेर  सात बरस की उम्र में तख़्त पर बैठा लेकिन डेढ़ बरस बाद ही दरबार के एक अधिकारी ने उसे क़त्ल कर दिया और खुद बादशाह बन बैठा, फिर दरबारियों के हाथों खुद भी क़त्ल हो गया। यह हिजरी का बारहवां साल था। उसके बाद जवानशेर एक बरस की उम्र के बाद क़त्ल कर दिया गया  और यूँ अब एक कम उम्र के वारिस के सिवा खानदान में कोई औलादे ज़कूर बाकी न रही तो उसके जवान होने तक के लिए पोरान को तख्तनशीन कर दिया गया।

यह इन्क़्लाबात-ए-हुकूमत वह वाहिद वजह थे जिनकी वजह से पूरे मुल्क में बद-अमनी फैल गयी। हैरता और अबला की तरफ गारतगिरी शुरू हो गयी। उस दौर में यह मशहूर हो चुका था कि फारस में कोई वारिस तख्तो-ताज बाकी न रहा... बराए-नाम एक औरत को इवानशाही में बिठा रखा है।

यह हज़रत अबु बक्र रज़ि0 की खिलाफत का दौर था… उनसे इज़ाज़त लेकर सना ने इसाई से मुसलमान हुए अपने साथियों के एक बड़े गिरोह के साथ ईराक का रुख किया। खलीफा ने खालिद रज़ि0 को उनकी मदद के लिए भेजा। उन्होंने ईराक के तमाम सरहदी मक़ाम फतह कर लिए लेकिन उधर शाम की मुहिम भी दरपेश थी, जहाँ इसाइयों ने ज़ोर शोर से लड़ने की तैयारियां कर रखी थीं। रबीउल सानी तेरहवीं हिजरी में खलीफा के हुक्म पर वह सना को अपना जां-नशीन करके शाम की मुहिम पर चल पड़े और ईराक की फुतुहात रुक सी गयीं।

हज़रत उम्र रज़ि0 खलीफा बने तो उन्होंने ईराक की मुहिम पर तवज्जोह दी। शुरुआत बैते खिलाफत के लिए तमाम अतराफो दयार से बेशुमार आदमियों के बीच जेहाद के वाज़ से हुई। पहले लोग ठन्डे रहे फिर चौथे दिन उनकी पुरजोश तक़रीर से लोग उबल पड़े… फ़ौज बनाई गयी… सहाबी न होते हुए भी अबु उबैद को सिपहसालार बनाया गया, हलाकि फ़ौज में सैकड़ों सहाबी थे लेकिन अबु उबैद को इस सिलसिले में खास हिदायत दी गयी और फिर क़ाफ़िला चल पड़ा।

ईराक पर हुए पहले हमले के बाद ही पोरानदख्त ने गवर्नर खुरासान के फरखज़ाद, शुजाउ और साहब-ए-तदबीर बेटे रुस्तम को वज़ीर हरब मुक़र्रर कर दिया। यह रुस्तम की शख्सियत का ही जादू था कि सल्तनत में फैली बदअमनी मिट गई और धीरे-धीरे सल्तनत ने फिर वही जोरो क़ूवत हासिल कर ली जो परवेज़ के ज़माने में हासिल थी।

मुसलमानों के खिलाफ बगावत फैल गई और अबु उबैद के पहुँचने से पहले ही इराक के फतह किये मुक़ाम हाथ से निकल गए। रुस्तम की मदद के लिए पोरान ने ज़ाबान और नरसी की अगुवाई में एक और फ़ौज भेज दी जो नमाज़क में रुकी… हालात देख कर हैरता से फगान को हटी अरबों की फ़ौज नमाज़क में आ लड़ी और फतेहयाब हुई… फिर यही फ़ौज कस्कर पहुंची जहाँ सकातिया में नरसी की फ़ौज से उनका मुक़ाबला हुआ... यहाँ भी फतह हुई। 

इस शिकस्त के बाद पोरान ने चार हज़ार फ़ौज के साथ मरदान शाह को भेजा… मशरिकी फरात के किनारे मरोहा नामी मकाम पर दोनों हरीफ़ सफ-आरा हुए, जहाँ अपने सरदारों की मुखालिफ राय के बावजूद, मरदान शाह के जोश दिलाने पर अबु उबैद ने फरात पर कश्तियों का पुल बंधवाया… और उससे पार जाकर फ़ौज लड़ पड़ी।

लेकिन इस लड़ाई में खुद अबु उबैद भी शहीद हुए… उनके भाई भी… कई नामवर सहाबी भी और तकरीबन छः हज़ार फ़ौज भी... और शिकस्त फाश हुई। इसी शिकस्त से अरब में मातम पड़ गया और सभी अरबों को एक होकर लड़ने पर आमादा कर दिया।

दारैन हज़रात अबु बक्र रज़ि0 के दरबार से रुखसत हुआ तो फ़ौज के साथ सना की अगुवाई में ईराक पहुँच गया। कोफे के करीब बोएब नामी मक़ाम था… उन लोगों ने वहीँ डेरा डाला।

उस वक़्त दूर रेत के आँचल में सुर्ख आफताब धंसने को बेताब था। खेमों से दूर रेत के एक टीले की ओट में दारैन हाथों का तकिया बनाये लेटा खुले आसमान को देख रहा था। उसे अब भी अफ़सोस था कि उसकी बांसुरी तलवार बन गयी थी।

उसने फलक से नज़रें हटा कर पास ही पड़ी तलवार को देखा… जैसे वह खून की प्यासी हो। एक 'आह' भर कर उसने आँखें बंद कर ली… सामने ही उज़्मा का खूबसूरत चेहरा नाच उठा।

आज वह दुल्हन के कपड़ों में मलबूस थी… जेवरों से लदी थी। आज उसके चेहरे की जिल्द में नई सुर्खी थी।  उसकी झुकी पलकों को निहारता दारैन उसके सामने जा बैठा। उसने उज़्मा की ठुड्डी पर उंगली का दबाव देकर चेहरा ऊपर उठाया। उज़्मा की निगाहें उससे मिलीं… उफ़! उन निगाहों में बेपनाह मुहब्बत थी।  

उसने तड़प कर आँखें खोल दीं… एक पल में कितना खूबसूरत सपना देख डाला उसने।
वह सर झटकता हुआ उठ खड़ा हुआ और तलवार उठा कर खेमों की ओर चल पड़ा।

शाम को कुछ लोग आये… मालूम हुआ वह सना के जासूस थे जिन्होंने फ़ौज की बागडोर संभाल रखी थी। उन्होंने बताया कि अज़मी जासूसों ने शाही दरबार में इस्लामी फ़ौज की आमद की खबर पहुंचा दी है… फ़ौज ख़ासा से बारह हज़ार सवार पोरान दख्त के हुक्म से इंतखाब किये गये हैं और अरबों के बीच तरबियत पाने वाले, अरबों की जोरो क़ूवत की जानकारी रखने वाले महरान बिन महरोया हमदानी को उनका अफसर मुक़र्रर किया गया है, जो बोएब की जानिब रवाना हो चूका है।

महरान, फरात को बीच में डाल कर खेमाज़न हुआ और सुबह होते ही बड़े साज़ो-सामान से लश्कर की आराई शुरू कर दी। सना ने भी बड़ी तरतीब से लश्कर को आरास्ता किया… फ़ौज के मुख्तलिफ हिस्से बड़े बड़े नामवरों की मातहती में दिये। 

मैमने में खड़े दारैन के कानों तक सिपाह सालार की आवाज़ पहुंची जो उन्हें जोश दिला रहे थे। फिर इस्लामी कायदे के तौर पर तीन बार 'अल्लाहो अकबरकहा गया और बाकायदा जंग शुरू हो गयी।

अज़मों के शोर से दारैन का दिल लरज उठा पर सना की आवाज़ ने उसे तसल्ली दी। देखने में वह लड़ाई में शामिल था मगर हकीकत यह थी कि वह साथ के नौजवान का साथ भर दे रहा था। वह आशिक़ था… तलवार उसने कभी चलाई न थी।

शमशीर की हर खनक और उसका बनाया हर ज़ख्म दारैन के दिल को कंपा देता था। न वह जंग का हामी था, न उसे जंग की कोई तरबियत ही हासिल थी। वह बेबसी से होंठ कुचलता एक लड़ाके का साथ भर दे रहा था।

इस्लामी फ़ौज बड़ी बहादुरी से अज़मों से भिड़ी हुई थी।

इन हालात में भी उसकी आँखों में उज़्मा थी… वह तलवार चला रहा था और उसकी आँखों में बेबसी का पानी आता जा रहा था। उसी पल में उसके साथी अरब ने मुकाबिल अज़म की गर्दन उड़ा दी। अज़म कुछ वक़्त ज़मीन पर गिर कर तड़पा और फिर ठंडा पड़ गया।

यह नज़ारा देख कर उसका दिल दहल उठा… उसके हाथों ने तलवार उठाने से इन्कार कर दिया।

और यही वक़्त था जब दो अज़मों ने उसके साथी पर हमला कर दिया। उसने मदद के लिए दारैन की तरफ देखा मगर दारैन की तलवार न उठ सकी।

उसका साथी बड़ी बहादुरी से लड़ा लेकिन दो लोगों का मुकाबला वह ज्यादा देर न कर सका और जल्द ही सीने पर ज़ख्म खा कर ज़मीन पर गिर पड़ा। उसके बाद क़ातिलों की नज़र दारैन पर पड़ी… जो घुटनों के बल ज़मीन से टिका भीगी आँखों से शिद्दत और बेबसी से उज़्मा को याद कर रहा था।  उन दोनों अज़मों  में से एक अज़म आगे बढ़ा और उसने तलवार के एक ज़बरदस्त वार में ही दारैन का काम तमाम कर दिया।

जिस घड़ी दारैन की साँसें टूटी… उसके होंठों पर उज़्मा का ही नाम था।

हालाँकि इस जंग में कई नामवर अरब शहीद हो गये लेकिन शिकस्त अज़मों के हिस्से आई। कुल के कुल बर्बाद हो गये… तग़लिब के एक इसाई जवान के हाथों महरान के मारे जाते ही जंग का खात्मा हो गया।

उस ऐतिहासिक लड़ाई ने इतनी लाशें अपनी यादगार छोड़ी कि वह भी एक मिसाल है… मुद्दतों बाद जब उधर से मुसाफिरों का गुज़र हुआ तो उन्होंने जगह जगह हड्डियों के अम्बार लगे देखे।

उज़्मा जंग के खात्मे के अर्से बाद भी दारैन की वापसी का इंतज़ार करती रही। 
Written by Ashfaq Ahmad



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