रधिया की व्यथा
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मयंक के लिये गांव जाने का प्लान बनाना ही मुसीबत हो गया था। वह कस्बे से निकल पाने का रास्ता ही तलाश नहीं कर पाया था... यहां तो दंगा हो गया था और कर्फ्यू लगा हुआ था। बाजार और आवागमन के सभी साधन ठप्प थे। जो जहां था, वहीं थमा हुआ था।
किसी तरह कस्बे तक पंहुचा था तो यहीं फंस
गया... न आगे जाने का कोई साधन था, न वापसी का ही विकल्प।
छोटी जगह थी तो जाहिर है कि होटल जैसा आसरा नहीं था। यहां वह बस शौकत मियाँ को ही
जानता था, लेकिन चूँकि दंगा ही हिंदू मुस्लिम के बीच हुआ था
तो झिझक रहा था कि क्या पता शौकत मियाँ का बर्ताव अब उसके साथ कैसा हो।
डरते-झिझकते दो पुलिस वालों के साथ वह
उनके द्वार पंहुचा था और उम्मीद के खिलाफ शौकत मियाँ ने उसी गर्मजोशी से उसका
स्वागत किया था जिसका वह आदी था।
बहरहाल, सेवा
सत्कार के बाद उनकी बैठक जमीं तो बातचीत का सिलसिला चल निकला।
"यहां तो कभी ऐसा नहीं हुआ पहले चाचा...
फिर ऐसा क्या हुआ जो लोग हिंदू मुसलमान हो गये?"
"पहले यह जो तुम लोगों के फोन पे
इंटरनेट के तमाशे हैं न, यह भी नहीं होते थे। सरकार भी ऐसी
नहीं होती थी और माहौल भी ऐसा नहीं होता था।"
"पर हुआ किस बात पर?"
"राधिया की वजह से... देखो मियाँ,
रधिया हुई हिंदू, और परसों गायब हो गयी तो
जाहिर है कि मियाँ भाइयों की जेबें टटोली जानी ही थीं। किसी ने बलदेव को हुसका
दिया कि उसने रधिया को बबन पठान के पास देखा था। अब बलदेव पंहुच गया बबन कने...
बबन ठहरा बबन, एक नंबर का दबंग। उसने बलदेव को ठोक दिया।"
"पुलिस के पास जाना था ऐसी बात थी तो।"
"भई देखो मियाँ, यह
है आधुनिक रामराज... यहां पुलिस को बीच में नहीं लाते, खुद
ही निपटा लेते हैं। बलदेव ने बजरंगियों की शरण ली... अब उनके कने तो ठेका है। सबने
मिल के बबन को धोना शुरू किया... लेकिन इधर से हरे बजरंगी भी मैदान में आ गये और
फिर तो समझो मियाँ कि सबको मौका मिल गया।"
"और रधिया?"
"रधिया का तो साहब ऐसा है कि जब तक
बलदेव के पास थी तब तक न उसकी कुपोषित देह की चिंता और न घर करती बीमारियों की,
लेकिन मुल्ले के संग नाम जुड़ गया तो लाडली हो गयी... अब उसके लिये
तो जमीन आसमान एक होना ही था।"
"क्या वाकई बबन ले गया था उसे?"
"अरे न भई, आजकल
यही तो चल रहा है कि जिससे कोई खुन्नस हो, ऐसे ही फंसा दो।
बबन को पता भी न कि रधिया है कौन।"
"फिर... रधिया मिली नहीं?"
"रधिया को ढूंढने में दिलचस्पी होती तो
मिलती न, उन्हें तो उसके बहाने अपनी नफरत निकालने का मौका
चाहिये था। बस उसी के नाम पे चमन को दंगे की भेंट चढ़ा दिये सब लोग।"
"और रधिया?"
"तुम मिलोगे मियाँ?"
"हाँ क्यों नहीं।" मयंक की जिज्ञासा भड़क उठी, "आपके यहां है क्या?"
शौकत मियाँ मुस्कराते हुए उठ कर अंदर चले
गये। वापस लौटे तो उनके हाथ में रोटियों का बंडल था। उन्होंने उसे अपने पीछे आने
का इशारा किया और वह चल पड़ा।
गलियारे से गुजर कर पीछे आंगन में आ गये
जहां एक भूरे रंग की गाय बंधी हुई थी। वे उसे बड़े प्यार से रोटियां खिलाने लगे।
"यह है रधिया।" उन्होंने स्नेहिल स्वर में कहा।
"यह गाय... इसके लिये दंगा हो गया। आपने
बताया नहीं कि यह आपके पास है।"
"जब दंगा हुआ तब नहीं थी... तब तो
बेचारी ऐसे ही कचरा खाती फिर रही थी और लोग इसके नाम पे लड़े मरे जा रहे थे।"
"मैं समझा नहीं।"
"यह एकदम सफेद थी, किसी कमबख्त ने इसे इस रंग में रंग दिया कि इसकी पहचान ही खत्म हो गयी और
अफवाह उड़ा दी कि रधिया गायब हो गयी। लोग इसे ढूंढते रहे और यह सड़कों पे वैसे ही
आवारा फिरती रही जैसे हमेशा फिरती थी।"
"पर यह आपको मिल गयी थी तो बताना चाहिये
था।"
"बताया था, पर तब
तक हत्या, लूट, आगजनी वाले अपने काम
में लग चुके थे। उन्हें पहले ही कब परवाह थी इसकी... बात जब इस हद तक बिगड़ जाये तो
यह मसला कहीं पीछे छूट जाता है कि शुरू कहां से हुई थी। अब तो हाल यह है कि खुद
रधिया जाके कह दे कि यह मेरे साथ रहना चाहती है तो इसके फर्जी बेटे इसे मार
डालेंगे।"
"पर आपने इसे अपने घर क्यों रखा है,
इससे आपको भी तो खतरा है।"
"क्योंकि अब इसे पहचाना जा चुका है,
हमाए हरे वाले बजरंगी कम थोड़े हैं। उन्हें बाहर मिल गयी तो वे इसकी
जिंदगी छीन लेंगे। पुलिस को पता है... वही ले जायेगी।"
"लेकिन आपने इसे पहचाना कैसे?"
"रोज रात को दरवाजे पे आके रंभाती थी,
जब तक शौकत मियाँ इसे दो तीन रोटियां न खिला दें। परसों के हुड़दंग
में न आ पायी, कल रात पंहुच गयी अपने टाईम पे शौकत मियाँ की
रोटी खाने। जानवर तो जानवर... उसे क्या खबर कि अब उसकी शक्ल बदल गयी है, आदत तो न बदली और रोटी खिलाने वाले शौकत की परख पे शक मत करो।"
वे मुस्कराते हुए उसकी पीठ सहलाने लगे और
मयंक भारी मन से सोचने लगा कि इंसान इस आधुनिक जमाने में किधर रुख किये दौड़ रहा
है।
Written by Ashfaq Ahmad







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