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फेसबुक इफेक्ट

फेसबुक इफ़ेक्ट


नसीर उसे कालेज से जानता था... अजय उसका खास दोस्त तो नहीं था पर बोलचाल तो थी ही और चूँकि उसे अजय की आइडियालोजी नहीं पता थी
, तो किसी मतभेद का सवाल ही नहीं उठता था।

लेकिन फिर कालेज खत्म हो गया और सब अपने काम धंधे से लग गये तो सामना होना बंद तो नहीं पर कम जरूर हो गया। अजय ठाकुर गंज में रहता था और नसीर हुसैनाबाद में, तो जाने के लिये रास्ता एक ही था... जाते भी दोनों सिकंदर बाग की तरफ थे, इसलिये रास्ते में दुआ सलाम हो ही जाती थी कभी न कभी।

बहरहाल, गर्ज यह कि हकीकी दुनिया से इतर वे फेसबुक पर भी एक दूसरे के साथ एड थे और यहीं नसीर को उसकी विचारधारा पता चली थी। वह सेकुलर था, लिबरल था, नास्तिक था... जबकि बाहरी दुनिया में नसीर भले जुमे के अलावा दूसरी नमाज न पढ़ता हो और शरई एतबार से भी नाम का ही मुस्लिम हो, लेकिन फेसबुक पे वह एक कट्टर मोमिन था।

मजहबी पोस्ट और ऐसी पोस्ट पे कमेंट... कोई मजहब के खिलाफ बोले तो सीधे तू तड़ाक, इल्जामतराशी और कभी खुली गालियां तक देने से गुरेज नहीं था। उसने ओवैसी की मजलिस ज्वाईन कर ली थी और फेसबुक पर मिल्लत का एक जांबाज और दबंग सिपाही था।

यहीं से उसके अजय से इख्तिलाफात शुरू हुए थे। अजय अक्सर उसकी मजहब से रिलेटेड पोस्ट पर भी सवाल उठा देता था, मजलिस की रणनीति और औचित्य पर भी सवाल उठा देता था।

यह और बात थी कि उसने कभी बदतमीजी से बात नहीं की लेकिन नसीर को फिर भी उससे इतनीचिढ़ सी हो गयी थी कि उसने सामने दिखने पर नजर फेरना और अनदेखा करना शुरू कर दिया था। हालाँकि उसने महसूस किया था कि ऐसे हर मौके पे अजय के होंठों पर मुस्कराहट आ जाती थी।

एक दिन शाम को वापसी में उसने देखा था... अजय को घायल होते हुए। शायद बाईक स्लिप हो गयी थी और वह सड़क पर फैल गया था। उसका पांव बाईक के नीचे ही था और वह बुरी तरह रगड़ गया था।

इत्तेफाक से वह पीछे ही था और उसकी मदद के लिये शायद सबसे नजदीक वही था। उसने सोचा भी लेकिन उसके दिमाग में अजय के फेसबुक पोस्ट और कमेंट नाच गये और वह ब्रेक लगाने की कोशिश करता उसके पास से आगे गुजरता चला गया... अजय ने भी उसे देख लिया था।

वह रुका तो आगे जा कर, मगर जब तक मदद का फैसला करता, पास से गुजरते दो कार वाले रुक गये थे और उसके देखते-देखते वे अजय को संभालने लगे थे। शायद अब उसकी जरूरत नहीं थी... यह सोच कर वह आगे बढ़ लिया था।

इस घटना के फिर कई महीने गुजर गये... इस बीच अजय कम ही आता था ऑनलाइन। आता भी था तो उसकी पोस्ट पे कम ही कुछ बोलता था।

फिर एक दिन वक्त ने एक खेल और दिखाया।

डालीगंज अंडरपास के आगे मेडिकल कालेज की तरफ से आती एक तेज रफ्तार कार ने ऐसी साईड मारी थी कि वह तिरछा होता सड़क पर फैल गया था... सड़क छोड़ सीधे डिवाइडर से टकराया था और सर बुरी तरह गर्म होते महसूस किया था।

होश तो गुम होना ही था लेकिन बेहोश होने से पहले बस वह इतना ही देख सका था कि पीछे ही शायद अजय भी था, जो अपनी गाड़ी गिरती पड़ती छोड़ उसकी तरफ दौड़ा था।

फिर उसे हास्पिटल के बैड पे ही होश आया था और पास मौजूद भाई से पता चला कि दो दिन वह बेहोश रहा था। भाई से ही पता चला कि उसे अजय ही आनन फानन में हास्पिटल ले के आया था और घरवालों को फोन किया था। उसे खून की जरूरत पड़ी थी तो खून भी अजय ने ही दिया था।

भाई ने उसके होश में आने की खबर अजय को दे दी थी और आधे घंटे में ही वह फल लिये हाजिर हो गया था।

नसीर की हिम्मत न हुई उससे एकदम से नजर मिलाने की... उसे अपने पिछले रवैये पर गहरी आत्मग्लानि महसूस होने लगी।

कितना फर्क था दोनों में... अजय उसके पास बैठा तो नसीर ने उसका हाथ पकड़ लिया। वह बोलना चाहता था पर गला भर आया और आंखें मिलाईं तो आंसू छलक आये।

"मुझे माफ कर दे भाई।" रूंधे कंठ से वह बड़ी मुश्किल से बोल पाया।

"क्यों... किसलिये?" अजय ने ताज्जुब से उसे देखा।

"एक दिन तुम्हारा भी एक्सीडेंट हुआ था और सबसे नजदीक होने के बाद भी मैंने तुम्हारी हेल्प नहीं की और तुम..." आगे के शब्द उसके गले में ही रूंध गये।

"अबे साले जिंदगी में फेसबुक होती है, फेसबुक में जिंदगी नहीं होती... मेरे एक्सीडेंट के वक्त तू दिमाग से फेसबुक पे था और एक मुसलमान की नजर से एक हिंदू या काफिर, नास्तिक की नजर से देखा होगा मुझे... और मैं हमेशा हकीकत की दुनिया में था और तेरे एक्सीडेंट के वक्त मैंने एक इंसान के तौर पर दूसरे इंसान की तकलीफ देखी और वही किया जो एक इंसान को करना चाहिये।" कह कर अजय जोर से हंस पड़ा था... एक मासूम, निर्लिप्त, बिंदास हंसी।

और नसीर की आंख में थमे आंसू अपना दायरा तोड़ कर बह चले।

Written by Ashfaq Ahmad

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